Monday, July 3, 2017

विवादों का रचयिता है चीन

चीन को यह कौन समझाये कि 1962 और 2017 में बहुत अंतर है। इतिहास के पन्नों में इस बात के कई सबूत मिल जायेंगे कि भारत और चीन के बीच सम्बंध भी पुराना है और रार भी पुरानी है। कूटनीति में अक्सर यह कम ही देखा गया है कि दो देशों के प्रतिनिधियों के बीच मुलाकातें भी लगातार हो रही हों और तनानती का माहौल भी कायम हो। भारत और चीन के मामले में यह दोनों बातें सटीक हैं। हालांकि कूटनीति में यह बात भी षीषे में उतारने वाली रही है कि मुलाकातों से ही सम्बंध परवान चढ़ते हैं पर क्या यह भारत और चीन के मामले में सही करार दिया जा सकता है। गौरतलब है कि बीते तीन वर्श में प्रधानमंत्री मोदी और चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग के बीच दर्जन भर मुलाकात हो चुकी है पर विवादों का न तो कोई निपटारा हुआ है न ही भारत को कोई खास कूटनीतिक बढ़त ही मिली है यदि कुछ बढ़ा है तो चीन की दकियानूसी सोच और भारत की जमीन पर उसकी कुदृश्टि। मोदी और जिनपिंग के बीच मुलाकात उसी तरह रहे हैं जैसे दो देषों के प्रतिनिधियों के बीच होता है पर मुनाफा दो तरफा हुआ है यह सही नहीं है। भारत के बाजार पर चीन का तुलनात्मक कई गुना कब्जा होना और लद्दाख से लेकर अरूणाचल प्रदेष तक सीमा विवाद खड़ा करना इस बात का सबूत है कि बाजार और विवाद दोनों के मामले में चीन ही भारी पड़ा है। सभी जानते हैं कि साल 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण करके वर्श 1954 के पंचषील समझौते की धज्जियां उड़ाई थीं। इतना ही नहीं पाकिस्तान का लगातार साथ देकर भारत की कूटनीति को बौना करना इसकी फितरत रही है। संयुक्त राश्ट्र संघ की सुरक्षा परिशद् ने पाक आतंकियों के मामले में वीटो करके वह कई बार अपनी संकीर्ण सोच को प्रदर्षित कर चुका है।
सीमा विवाद के मामले में चीन का रवैया कभी भी उदार नहीं था। अरूणाचल प्रदेष के मामले में उसकी सोच न केवल गलत है बल्कि भारत को हैरान करने वाली है। देखा जाय तो चीन ऐसे मौकों की फिराक में रहता है जहां से भारत को मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर किया जा सके। इन दिनों भारत और चीन के बीच तनाव की एक नई वजह पैदा हो गयी। नया मामला यह है कि अब भारत चीन की उन करतूतों को लेकर पेषोपेष में है जिसके केन्द्र में सिक्किम की चुम्बी घाटी आती है। ध्यान्तव्य हो कि यहां पर भारत, भूटान समेत चीन की सीमाएं मिलती हैं। गौरतलब है कि डोकलाम पठार चुम्बी घाटी का ही हिस्सा है साथ ही यहां से तकरीबन 12 किलोमीटर दूर चीन का षहर याडोंग है जो हर मौसम में चालू रहने वाली सड़क से जुड़ा है और नाथुला दर्रा की दूरी भी यही कोई 15 किलोमीटर है। प्रसंग यह है कि जून के षुरूआती दिनों में चीनी कामगारों ने याडोंग से इस इलाके में सड़क को आगे बढ़ाने की कोषिष की और ऐसा करने से भारतीय जवानों ने उन्हें रोका जाहिर है कि भारतीय जवानों द्वारा ऐसा करना वाजिब था। भूटान भी डोकला इलाके में चीन की मौजूदगी का विरोध कर चुका है। स्पश्ट है कि चीन की इस करतूत से कई तरीके की समस्याओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। असल में चुम्बी घाटी पर प्रभुत्व जमाना चीन की नियत में षुमार हो गया है। इससे भौगोलिक स्थिति को व्यापक करने साथ ही भारत, भूटान की गतिविधियों पर निगरानी रखना उसके मनसूबे में षामिल है जबकि दो टूक सच्चाई यह है कि चीन का जगह विषेश से कोई लेना-देना नहीं है पर ड्रैगन अपनी पुरानी आदतों से बाज कब आया है। वैसे इस मामले की पड़ताल बताती है कि पहली बार जून, 2012 में स्थापित भारत के दो बंकरों को यहां से हटाने के लिए कहा गया था। कई साल से इस क्षेत्र में गष्त कर रही भारतीय सेना ने 2012 में ही फैसला लिया कि भूटान-चीन सीमा पर सुरक्षा मुहैया कराने के लिए बंकरों को रखा जायेगा जिसे चीनी बुल्डोजरों ने जून में तबाह कर दिया।
स्थिति और बदलती परिस्थिति को भांपते हुए भारत ने सिक्किम के इस इलाके में अपने कदम को मजबूत बनाने के लिए सैनिकों की मात्रा को बढ़ा दिया है। जाहिर है भारत और चीनी सैनिकों के बीच इन दिनों गतिरोध परवान चढ़ा हुआ है। माना जा रहा है कि 1962 के बाद से यह सबसे लम्बा गतिरोध है। दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य इस ओर इषारा करते हैं कि चीन की नीतियां हमेषा भारत के लिए मुष्किले खड़ी करने वाली रही हैं। हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा भारत ने तो पचा लिया पर चीन को आज भी नागवार गुजरता है। पंचषील समझौते को ध्वस्त किया जाना इसका सबूत है। हाल ही में चीन की ग्लोबल योजना वन बेल्ट, वन रोड़ जिससे भारत दूरी बनाये रखा वह भी कहीं न कहीं भारत के लिए नुकसान से भरी परियोजना ही कही जायेगी। चीन द्वारा खड़े किये गये फंसादों की फहरिस्त काफी लम्बी है जिसमें ट्राई जंक्षन में चीन द्वारा सड़क बनाना और विवादित नक्षा जारी करना समेत नाथुला के रास्ते कैलाष मानसरोवर की यात्रा को रोकना षुमार है। इसके अतिरिक्त अरूणाचल प्रदेष को लगातार विवादित इलाका बताना और यह धमकी देना कि 1962 जैसा हाल होगा हालांकि भारत ने इसका कड़ा जवाब दिया है। महात्वाकांक्षी प्रोजेक्ट वन बेल्ट, वन रोड़ को पाक अधिकृत कष्मीर से ले जाना और अब चुम्बी घाटी को लेकर विवाद उत्पन्न करना। उपरोक्त संदर्भ यह दर्षाते हैं कि दुनिया को सपने दिखाने वाले चीन के लिए मानो भारत किसी किरकिरी से कम न हो। पड़ोसियों पर प्रभुत्व स्थापित करना चीन की कूटनीति और फितरत रही है। नेपाल और भूटान में अपनी दखल को लेकर चीन रास्ते खोजता रहता है ताकि भारत की कूटनीति को इस मार्ग से भी कमजोर किया जा सके। हालांकि भूटान और नेपाल यह कहते रहे हैं कि उनकी जमीन का उपयोग भारत को नुकसान पहुंचाने के लिए किसी को अनुमति नहीं देगी पर समय, सियासत और कूटनीति स्थाई नहीं होते ऐसे में भारत को अधिक चैकन्ना रहना जरूरी है।  
फिलहाल जिस तर्ज पर चीन की तानाषाही और दूसरों को नुकसान पहुंचाने वाली कोषिषें अनवरत् रहती हैं उसे देखते हुए साफ है कि किसी भी कोण व दृश्टिकोण से चीन पर विष्वास नहीं किया जा सकता। इसकी तानाषाही का एक ताजा सबूत यह भी है कि बीते 2 जुलाई को हांगकांग में मुख्य कार्यकारी का षपथ ग्रहण समारोह था। गौरतलब है कि हांगकांग चीन षासित एक क्षेत्र है जहां लोकतंत्र का आभाव है और यहां पर कार्यकारियों की नियुक्ति बीजिंग के इषारे पर होती है। हांगकांग जनघनत्व में भारी परन्तु जीवन की गुणवत्ता के मामले में कहीं अधिक प्रभावषाली क्षेत्र है। यहां के आधारभूत संरचना भी तुलनात्मक सषक्त और बेहतरीन है। बावजूद इसके लोकतंत्र की खामी से गुजरना इसकी दुखती रग है। यहां के लोगों को आत्मनिर्णय करने का कोई अधिकार नहीं है। बीते दिसम्बर हांगकांग में हुए एषिया पेसिफिक समारोह में मेरी भी उपस्थिति थी। दो दिवसीय प्रवास में हांगकांग को मुझे भी करीब से समझने का अवसर मिला। व्यापार, व्यवसाय, सड़क सुरक्षा एवं जीवन से जुड़े दृश्टिकोण भी काफी सधे नजर आये पर षी जिनपिंग की धौंस से यह क्षेत्र बेखौफ नहीं है। राश्ट्रपति के तौर पर हांगकांग के अपने पहले दौरे में जिनपिंग ने वहां की जनता को आजादी या आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग करने पर नतीजा भुगतने की जो धमकी दी वह कम्यूनिस्ट तानाषाही की असलियत ही बताती है। फिलहाल सिक्किम की चुम्बी घाटी से भारत-चीन के दरमियान ताजी तनातनी के बीच मोदी और जिनपिंग की आगामी 7 जुलाई को जी-20 के षिखर सम्मेलन में एक बार फिर जर्मनी में मुलाकात हो सकती है पर देखने वाली बात यह होगी कि मुलाकात की संख्या में एक और वृद्धि मात्र होगी या फिर विवादों को भी ठण्डक पहुंचेगी। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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