Wednesday, July 19, 2017

राज्यसभा के लोकतंत्र पर सवाल कितना वाजिब!

इस सवाल के साथ कि क्या वाकई में देश  के उच्च सदन में लोकतंत्र दरकिनार हुआ है। लाज़मी है धुंआ उठा है तो सवाल उठेंगे पर सियासतदानों को भी यह समझना होगा कि लोकतंत्र के रक्षक व संरक्षक तो वही हैं तो फिर यह सवाल बेमानी क्यों नहीं। बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने जिस तर्ज पर राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया उससे राज्यसभा के लोकतंत्र पर ही सवाल खड़ा हो गया। हालांकि राज्यसभा में राज्य के प्रतिनिधि होते हैं जो सीधे जनता द्वारा नहीं चुने जाते पर परिसंघीय व्यवस्था में इस सदन की षक्ति कई मामलों में जनप्रतिनिधियों की लोकसभा से भी अधिक है। समावेषी लोकतंत्र की दुनिया में जन प्रतिनिधियों को धरातल पर जनता की कितनी चिंता है इस पर प्रष्न अलग से उठाया जा सकता है पर सदन में जब राजनेता जनता की आवाज़ बनता है तो उसके तेवर सियासी दांव पेंच से कितने परे हैं इसका पूरा अंदाजा लगा पाना कठिन होता है। गौरतलब है कि मायावती ने इस्तीफा देकर यह साफ कर दिया कि सियासी चाल में बड़ी हार और करारी षिकस्त के बावजूद उन्हें कमतर न आंका जाय। जिस प्रकार उन्होंने यह सारा कृत्य कुछ ही मिनटों में किया उससे यह साफ होता है कि वह पहले से गुस्सा दिखाने की तैयारी करके आईं थीं। मायावती को अक्सर मंचों पर भाशण पढ़कर बोलने के रूप में जाना जाता है परन्तु बीते 18 जुलाई को राज्यसभा में जिस तरह पांच मिनट वो बोलीं वह उनके सियासी इतिहास का अद्भुत समय ही कहा जायेगा। बसपा की खिसकती जमीन को बचाने का क्या यह अंतिम दांवपेंच था या फिर वाकई में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उनकी बोलती बंद करने की कोषिष की गयी थी। गौरतलब है कि मायावती बीते कुछ महीनों से कई मुद्दों को लेकर तिलमिलाई हुई है। बीते मार्च में जब उत्तर प्रदेष विधानसभा में उनकी हैसियत सिमट कर 403 के मुकाबले 19 सीटों तक रह गयी और सत्ताधारी समाजवादी भी 47 सीटों के साथ सियासत में चकनाचूर हो गयी साथ ही 325 के साथ भाजपा सत्ता में आई तो उन्हें यह अंदाजा हो गया कि दलित और मुस्लिम वोट के आधार पर की जाने वाली सियासत का अंत अब हो चुका है। 
अपनी सियासत में अम्बेडकर को अपनी रियासत मानने वाली मायावती उत्तर प्रदेष की राजनीति से इस तरह बेदखल हो जायेंगी इसका अंदाजा उन्हें भी नहीं रहा होगा जबकि इसके पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में उनका खाता तक नहीं खुला था। राश्ट्रपति चुनाव के एक दिन बाद मायावती का राज्यसभा से इस्तीफा एक और वजह के साथ जुड़ता है। असल में जब रामनाथ कोविंद को राश्ट्रपति उम्मीदवार भाजपा ने घोशित किया तब मायावती उन्हें नकार नहीं पाई थीं और दलित उम्मीदवार के चलते विरोधी होने के बावजूद पेषोपेष में फंस गई परन्तु जब कांग्रेस ने मीरा कुमार को मैदान में उतारा तब तस्वीर साफ हो गयी कि रामनाथ कोविंद उनकी पसंद नहीं है। अब मुकाबला दलित बनाम दलित का था। ऐसे में भाजपा विरोधी मायावती को अब भाजपा का दलित कार्ड फूटी आंख नहीं भा रहा था कुछ इसकी भी खीज हो सकती है। इस सवाल को भी नाजायज़ करार नहीं दिया जा सकता कि मायावती का इस्तीफा एक सियासी दांव है। सभी जानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी सभी विरोधी दलों के लिए एक मुसीबत है।  जिस तर्ज पर भाजपा चुनावी अभियानों में सफल होती है और विपक्षी जिस तरह हाषिये पर फेंके जाते हैं उससे भी झल्लाना स्वाभाविक है। गौरतलब है कि जिस राज्यसभा की सदस्यता से मायावती ने इस्तीफे का दांव खेला वहां मात्र 70 सदस्य सत्ता पक्ष के हैं बाकी सब विरोधी दल के हैं। इतना ही नहीं जिस राज्यसभा उपाध्यक्ष पर यह आरोप है कि उन्हें सहारनपुर के दलित समस्याओं को उठाने का अवसर नहीं दिया गया उनका चुनाव भी कांग्रेस की सत्ता के दौरान हुआ था। कहा जाय तो राज्यसभा उपाध्यक्ष भाजपा निर्मित नहीं है बल्कि विपक्षियों की ही देन है। साफ है कि राज्यसभा के उपसभापति राज्यसभा का राजधर्म निभाने का काम कर रहे थे न कि मायावती को लोकतंत्र विहीन बना रहे थे।
यह पहली बार नहीं है जब विपक्ष ने किसी मसले पर चर्चे के बहाने हंगामा किया हो। मायावती के साथ कांग्रेस और वामदल ने भी राज्यसभा का वाॅकआॅउट किया था। जाहिर है कि भाजपा पर मनोवैज्ञानिक रूप से दबाव बनाने के लिए यह हथकण्डे अपनाये गये जबकि मुख्तार नकवी ने मायावती के कदम को उपसभापति का अपमान बताया। सवाल अब यह भी है कि बसपा प्रमुख ने जो त्यागपत्र दिया है क्या वह तकनीक रूप से स्वीकार करने की अवस्था में है। नियम के मुताबिक इसके स्वीकार करने की सम्भावना कम जताई जा रही है। दरअसल नियम कहता है कि इस्तीफे के साथ न कोई कारण बताया जाता है और न उस पर कोई सफाई दी जाती है। ऐसे में मायावती ने जो विधिवत इस्तीफा राज्यसभा के सभापति व उपराश्ट्रपति हामिद अंसारी को सौंपा है क्या वह इसी प्रारूप पर है वह बिल्कुल ऐसा नहीं है दरअसल मायावती ने इस्तीफे में कहा है कि मैं षोशितों, मजदूरों, किसानों और खासकर दलितों के उत्पीड़न की बात सदन में रखना चाहती थी। सहारनपुर के षब्बीरपुर गांव में जो दलित उत्पीड़न हुआ है मैं उसकी बात उठाना चाहती थी लेकिन सत्ता पक्ष ने इसका विरोध किया और मुझे बोलने का मौका नहीं दिया गया। ऐसा लग सकता है कि बसपा सुप्रीमो ने इस्तीफे वाला कदम हड़बड़ी में उठाया है परन्तु वह जानती हैं कि उनके इस कदम से या इस भावुकता से तात्कालिक सहानुभूति तो मिल सकती है पर बड़ा दांव चलने के लिए सोची-समझी राजनीतिक रणनीति होनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि यह उद्वेग मात्र में उठाया गया कदम हो। मायावती का इस्तीफा अप्रत्याषित है मगर तात्कालिक सियासी फायदे से वे अभी अछूती ही रहेंगी। मायावती जानती हैं कि उनके 19 विधायक एक भी राज्यसभा सदस्य चुनने के योग्य नहीं है। गौरतलब है कि अप्रैल 2018 में मायावती का कार्यकाल समाप्त हो रहा था और उनका दोबारा राज्यसभा में पहुंचने की गुंजाइष न के बराबर थी क्योंकि उत्तर प्रदेष से राज्यसभा में आने के लिए कम-से-कम 40 विधायकों की आवष्यकता पड़ती है। हालांकि भाजपा से खार खाये और सीबीआई जांच झेल रहे लालू प्रसाद ने मायावती को बिहार से राज्यसभा भेजने का न्यौता दे दिया है। 
बीते 3 वर्शों से चाहे लोकसभा हो या राज्यसभा हंगामा खूब काटा जा रहा है और इस हंगामे के बीच सरकार और विपक्ष दोनों में खूब गुत्थम-गुत्थी हो रही है। जनता विकास की बाट जोह रही है और जन प्रतिनिधि सियासी दांवपेंच में मषगुल हैं। भाजपा का मतलब इन दिनों सबसे बड़ा फायदा हो गया है। 20 जुलाई को राश्ट्रपति का परिणाम घोशित होगा जाहिर है आंकड़े रामनाथ कोविंद की जीत सुनिष्चित करते हैं। उपराश्ट्रपति के उम्मीदवार वेंकैया नायडू का भी चुना जाना तय है यहां भी भाजपा का ही बोलबाला है। तीन वर्शों से पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार राज्यसभा में विपक्ष के सामने घुटने पर रही है। स्थिति आज भी वही है पर संख्याबल के मामले में अब उनके अच्छे दिन आने वाले हैं। मोदी जानते हैं कि जब तक राज्यों में विरोधियों को षिकस्त नहीं देंगे तब तक राज्यसभा में वो बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंचेंगे और इसे लेकर वे प्रचण्ड सफलता प्राप्त भी कर चुके हैं। उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, मिजोरम समेत कई राज्यों को कांग्रेस से छीनते हुए कांग्रेस को उसी स्थिति में पहुंचा दिया है जैसे वे पहले स्वयं थे। हालांकि उत्तर प्रदेष की सत्ता समाजवादियों से भाजपा ने ली है। सबके बावजूद मायावती के इस्तीफे को लेकर दो टूक यह भी है कि इससे कोई संवैधानिक या राजनीतिक संकट खड़ा तो नहीं होता पर मायावती की नीयत पर लोग सवाल जरूर खड़ा करेंगे। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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