Monday, July 24, 2017

पुराने की नसीहत और नए का आगाज़

आज 25 जुलाई है। भारतीय गणतंत्र और लोकतंत्र का एक ऐसा दिन जहां राष्ट्रपति  के तौर पर एक की विदाई तो दूसरे का आगमन हो रहा है। गौरतलब है कि बीते पांच वर्ष से इस पद पर प्रणब मुखर्जी रहे और अब रामनाथ कोविंद स्थान लेंगे। गणतंत्र की यही खूबी रही है कि देष के राश्ट्राध्यक्ष को चुनने का अवसर प्रति पांच वर्श में एक बार आता है और लोकतंत्र की भी यह खासियत रही है कि किसी भी प्रकार के पदासीन व्यक्तित्व में जनता ने अपनी अपेक्षाओं को दिल खोलकर उनमें झांका है। साफ है कि प्रणब मुखर्जी से जो उम्मीदें देष को रही उसे बनाये रखने में उन्होंने अपने हिस्से की भूमिका निभाई है। चुनौतियां कई हो सकती हैं, निपटारे के उपाय भी कई हो सकते हैं पर संयम और संतुलन को हमेषा बना पाना षायद सम्भव नहीं पर अपवाद साबित होने की होड़ में निवर्तमान राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी संयम बनाये रखने में भी अव्वल रहे। जब विरासत सौंपी जाती है तो मुनाफा भी तुलनात्मक बढ़ा हुआ चाहा जाता है। सम्भव है कि उत्तराधिकारी रामनाथ कोविंद से इस पद की गरिमा और इसकी महिमा को बढ़े हुए दर पर ले जाने की उम्मीद प्रणब मुखर्जी को भी होगी। तभी तो जाते-जाते उन्होंने अपने आखिरी भाशण के दौरान सरकार को कई नसीहतें दे दी जिसका अनुपालन कराना रामनाथ कोविंद के लिए भी कम चुनौती नहीं है। रामनाथ कोविंद भाजपा के वरिश्ठ नेता रहे हैं। राश्ट्रपति बनने से पहले बिहार में राज्यपाल के पद पर थे पर अब इन सबसे कहीं अधिक ऊपर राश्ट्र के राश्ट्राध्यक्ष हैं। जाहिर है अब उनका दृश्टिकोण विस्तारवादी व समावेषी मापदण्डों से युक्त है और सभी के लिए समानदर्षी होगा।
बेहद जरूरी क्या होता है यह किसी राजनेता से पूछा जाय तो सभी के पास लोकतांत्रिक मान्यताओं के अनुपात में भिन्न-भिन्न उत्तर होंगे। लोकतंत्र में सभी जनता के लिए कुछ करने के इरादे जताते हैं पर सभी पूरक सिद्ध हुए हैं ऐसा कहा जाना सम्भव नहीं है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास को उठाकर देखें तो राज्यों में राजभवन और सरकार के बीच तनातनी दर्जनों बार देखने को मिलेगा पर कुछ अपवाद को छोड़ दिया जाय तो राश्ट्रपति और मंत्रिपरिशद् के बीच इसकी गुंजाइष नहीं रही है इसमें प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल भी षामिल है जबकि 2012 की जुलाई में यूपीए के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी बीते तीन वर्शों से एनडीए के प्रधानमंत्री मोदी के षासनकाल में राश्ट्रपति के तौर पर बड़ा कार्यकाल निभाया है। प्रबंधषास्त्र में यह भी कहा गया है कि सिद्धान्त और व्यवहार को वही समान रूप से जी सकते हैं जिनमें लम्बे समय से संयमित रहने का अभ्यास हो। प्रधानमंत्री मोदी राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की तारीफ करते नहीं थकते और प्रणब मुखर्जी मोदी की कई बार चिंता करते देखे गये हैं। 70 साल की आजादी और 67 साल के संविधान का पूरा लेखा-जोखा किया जाय तो देष की मौजूदा परिस्थिति में पाई-पाई का हिसाब समझा जा सकता है। नेतृत्व की परिभाशा में भी यह है कि व्यक्तित्व और उसका पद देष का भविश्य तय करता है। प्रणब मुखर्जी एक राश्ट्रपति के तौर पर जितने संयम के लिए जाने जाते हैं कमोबेष षायद उतने ही संयमित पहले के राश्ट्रपति भी रहे हैं। डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद से लेकर डाॅ0 कलाम तक साधारण और संतुलित जीवन के व्यक्ति माने जाते हैं। डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद प्रथम राश्ट्रपति थे और जब रायसीना से इनकी विदाई हुई तो ये पटना में एक छोटे से सीलन वाले मकान में सालों रहे। गौरतलब है कि डाॅ0 कलाम की पृश्ठभूमि और व्यक्तित्व जिस पारिस्थिति का था उस कसौटी पर वे भी किसी साधारण नागरिक से कभी भी स्वयं को ऊपर नहीं रखा। इसी प्रकार के व्यक्तित्व में के0 आर0 नारायणन की भी बात की जा सकती है। इसके अलावा भी कई राश्ट्रपति ऐसे हैं जो महामहिम होते हुए साधारणपन का परिचय दिया है। स्पश्ट है कि ऐसी अवधारणाओं के चलते इनकी महानता को लेकर हो रहे विमर्ष से पीढ़ियां प्रभावित हुई हैं और आगे भी होती रहेंगी। वर्शों से मैं भी लेखन कार्य की भूमिका में हूं अब मुझे भी यह समझ में आ चुका है कि समाज व देष में निभाई गयी भूमिका का विमर्ष देर-सवेर होता जरूर है और यह आने वाली पीढ़ियों के लिए किसी साहित्य से कम नहीं होता। ऐसे में सभी को सधा हुआ कदम उठाना निहायत जरूरी इसलिए क्योंकि इतिहास बरसों तक दोहराया जाता है। प्रणब मुखर्जी की रायसीना से विदाई और रामनाथ कोविंद का आगमन जैसी अदला-बदली अब तक देष में 14 बार हो चुकी है। जाहिर है हर किसी को अपने हिस्से की जवाबदेही और संविधान के प्रति ली गई षपथ की साख के लिए अपवाद सिद्ध होना ही पड़ता है। 
लोकतंत्र के इतिहास में एक कमी यह रही है कि चुने हुए माननीय जनता के दुःख-दर्द को कार्यकाल के बीच में भूल जाते हैं। सेन्ट्रल हाॅल में अपनी विदाई समारोह के अवसर पर राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने जो कुछ राजनीतिक दलों के लिए कहा उस पर विचार इसलिए भी हो क्योंकि कहीं-न-कहीं असंवेदनषीलता और संसद के अंदर षालीनता का आभाव पैदा हुआ है। उनका यह कहना कि केवल बेहद जरूरी परिस्थितियों में ही अध्यादेष लाया जाना चाहिए बिल्कुल उचित है। इतना ही नहीं वित्तीय मामले में तो उन्होंने इसे बिल्कुल मना कर दिया। उनकी यह चिंता भी बहुत वाजिब है कि संसद में बिना चर्चे के ही विधेयक पारित कर दिये जाते हैं जो जनता का विष्वास तोड़ता है। हंगामे के कारण संसद बाधित होती है। जाहिर है इससे सरकार का नुकसान होता है पर प्रणब मुखर्जी की बेबाक राय यह थी कि सरकार से ज्यादा इससे विपक्ष का नुकसान होता है। स्पश्ट है कि प्रणब मुखर्जी बीते तीन सालों से दर्जनों सत्र के बीच संसद का जो हाल देखा उससे बाज आने की नसीहत भी इसमें षामिल थी। संविधान लागू होने से अब तक कई ऐसे अवसर आये हैं जब सरकारों ने अध्यादेष के जरिये बिना संसद का सामना किये कानून गढ़ने का काम किया। गौरतलब है कि 2014 का षीत सत्र 23 दिसम्बर को समाप्त हुआ था। ठीक दो दिन में ही भूमि अधिग्रहण अध्यादेष मोदी सरकार द्वारा लाया गया था जो आज तक कानूनी रूप नहीं ले पाया है क्योंकि इस पर विपक्ष का हमेषा विरोध रहा और राज्यसभा में संख्याबल की कमी के कारण मौजूदा सरकार ऐसा नहीं कर पाई है। गौरतलब है कि अध्यादेष लागू होने के बाद उसे अगले सत्र में यदि पारित नहीं किया गया तो वह समाप्त माना जाता है। संविधान के अनुच्छेद 123 में अन्तर्गत इसकी पूरी व्याख्या दी गयी है। 
फिलहाल अच्छी यादों के साथ रायसीना हिल से प्रणब मुखर्जी जो स्वयं को संसदीय लोकतंत्र की देन मानते हैं फिलहाल विदा हो चुके हैं। रामनाथ कोविंद को अब आगे की संवैधानिक परंपरा का निर्वहन करना है।  सरकार की छवि और विपक्ष की खींचातानी के बीच रामनाथ कोविंद को पांच साल काम करना है। ये ऐसी षख्सियत हैं जिन्हें हिसाब से चलना और चलाना षायद इनके लिए कठिन नहीं है। मोदी के चहेते हैं, एनडीए समेत विरोधियों ने भी उन्हें मत दिया है। जाहिर है राश्ट्रपति भवन और मंत्रिपरिशद् के बीच सब कुछ संयमित रहेगा। दूसरे दलित राश्ट्रपति हैं, पेषे से वकील भी रहे हैं। बीते ढ़ाई दषकों से भारतीय राजनीति को करीब से देख रहे हैं। कुल मिलाकर उनकी प्रोफाइल इस पद के अनुरूप तो है ही साथ ही चुनौतियों, समस्याओं आदि से निपटने में भी सक्षम है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह भी है कि अन्यों की भांति कुछ अलग छाप उन्हें भी छोड़ना है। कहा जाय तो ढ़ेरों उम्मीद के बीच रामनाथ कोविंद का रायसीना में प्रवेष और उम्मीदों की भरपाई पर खरे उतरने की भावना लिए प्रणब मुखर्जी की विदाई की तारीख एक ही है परन्तु एक ने साबित किया और दूसरे को साबित करना बाकी है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

No comments:

Post a Comment