Wednesday, April 26, 2017

लोकतंत्र की राह और दिल्ली

जब मुम्बई स्थानीय निकाय के चुनाव के नतीजे फरवरी में आये और 227 के मुकाबले 82 पर बीजेपी काबिज हुई जो वहां के स्थानीय दल षिवसेना से महज़ 2 स्थान से ही पीछे थी तब यह विमर्ष जोर पकड़ा था कि नोटबंदी का कोई नकारात्मक असर लोगों में नहीं गया है और यह बात तब और पुख्ता हो गयी जब मार्च में विधानसभा चुनावों में भाजपा ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की। बामुष्किल अभी इससे जुड़े चर्चा एवं परिचर्चा समाप्ति की ओर थे कि दिल्ली स्थानीय निकायों के नतीजों से यह सिद्ध हो गया कि लोकतंत्र के हर सोपान पर भाजपा की तूती बोलती है और उसके हर नीतिगत निर्णय जनता को खूब भा रहे हैं। हालांकि इसे मोदी सरकार की नीतियों का परिणाम माना जा रहा है और हर भाजपाई मोदी चालीसा पढ़ने में तनिक मात्र भी गुरेज नहीं कर रहा है, करे भी क्यों जब उसके षीर्श नेतृत्व के चेहरे में मतदाताओं का इतना बड़ा रूझान छुपा हो तो ऐसा होना लाज़मी है। जाहिर है प्रत्येक चुनाव के बाद इस मामले में कसीदे और गढ़े जाते हैं और गाढ़े भी हो जाते हैं। इसमें कोई षक नहीं कि भाजपा बीते तीन वर्शों में पूरे देष में बड़े बदलाव से गुजरी है और यह सिलसिला बादस्तूर अभी जारी है जबकि दूसरे दलों में भी बड़ा बदलाव हो रहा है पर इनके हिस्से केवल हार आ रही है। बीते 11 मार्च को 5 विधानसभा चुनाव के नतीजे घोशित हुए थे। पंजाब को छोड़ उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड समेत गोवा एवं मणिपुर में भाजपा ही सत्ता पर काबिज हुई। इतना ही नहीं यूपी और उत्तराखण्ड में तो जनमत इतना बड़ा था कि बाकी दलों के लिए चुनावी महोत्सव किसी तबाही से कम नहीं थे। जो हश्र इन दिनों भाजपा से ताल ठोकने वाले दलों का हो रहा है इससे यह रेखांकित होता है कि इनकी राह न केवल कठिन है बल्कि किसी अंधेरे गली की ओर है। स्पश्ट कर दें कि दो साल पहले केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में ऐतिहासिक और अभूतपूर्व जीत हासिल करके मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कब्जा किया था साथ ही कांग्रेस और भाजपा को दिल्ली की सियासत से दरकिनार कर दिया था कांग्रेस 70 के मुकाबले षून्य पर रही जबकि भाजपा तीन सीटों पर सिमट गयी थी। तब यह विमर्ष भी जोर लिए था कि मोदी नीति से दिल्ली की जनता बेफिक्र है और वे अपने कृत्यों से आकर्शित नहीं कर पाये जबकि राजनीति की नज़ाकत को देखते हुए भाजपा ने मुख्यमंत्री के तौर पर किरण बेदी को भी मैदान में उतार दिया था। हालांकि फरवरी 2015 में घोशित दिल्ली विधानसभा के नतीजे तक मोदी के कार्यकाल को जमा 8 महीने ही हुए थे। उस दौरान सभी हैरत में थे कि जो भाजपा 2014 के मई में घोशित लोकसभा के परिणाम में प्रचण्ड जीत हासिल करती हो साथ ही दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर कब्जा करती हो वही विधानसभा में इतनी बुरी हार का सामना कैसे कर सकती है। 
राजनीतिक षोध यह इषारा करता है कि मोदी विरोध दिल्ली के अंदर साल 2013 में ही आम लोगों में व्याप्त था तभी तो दिल्ली में दो नतीजे आये थे। ऐसा प्रतीत होता है कि दिल्ली में जनता केजरीवाल को और देष में मोदी को चाहती थी। उसी का परिणाम था कि 26 मई, 2014 को मोदी देष के प्रधानमंत्री बने और जब दिल्ली विधानसभा का चुनाव फरवरी 2015 में हुआ तो केजरीवाल ऐतिहासिक बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बने। ऐसे में सवाल उठना लाज़मी है कि जिस केजरीवाल को लोगों ने दिल्ली की भलाई के लिए एकतरफा मत दिया था क्या केजरीवाल उस पर स्थिर बने रहे। जाहिर है जब सारी सीटें केजरीवाल को जनता ने दिया है तो वही जनता उनसे अपेक्षा भी भारी-भरकम रखेगी परन्तु दिल्ली की सफलता से अभीभूत केजरीवाल स्वयं को भारत की सियासत में क्षितिज का नेता समझने लगे और अपनी तुलना सीधे उसी प्रधानमंत्री से करने लगे जिसे देष की जनता ने 30 साल बाद पूर्ण बहुमत के साथ देष की बागडोर सौंपी थी। इतना ही नहीं हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनाव में आप ने पंजाब और गोवा में सत्ता हथियाने के मनसूबे से अपनी जोरदार दखल भी दी पर नतीजे सब को पता हैं। सौ फीसदी सत्ता पर काबिज होने की बात करने वाले केजरीवाल के लिए लोकतंत्र निहायत घाटे का सौदा सिद्ध हुआ और यह भी संदेष गया कि आप उसी प्रकार की राजनीति में संलिप्त है जैसे अन्य हैं। उपरोक्त को देखते हुए क्या यह माना जाय कि देष या प्रदेष का मतदाता इस बात को समझने की कोषिष कर रहा है कि जिम्मेदारी की सीमाओं में जो नहीं रहेगा उसे ऐसी ही पटखनी मिलती रहेगी। रोचक तो यह भी है कि दिल्ली में दो साल से अधिक समय से केजरीवाल की सरकार चल रही है जहां कभी भी ऐसा अवसर नहीं आया जब केन्द्र सरकार और वहां के उपराज्यपाल से उनकी अनबन न रही हो। ऐसे में सवाल उठता है कि जिस तर्ज पर केजरीवाल सियासत में दाखिल हुए थे क्या उस पर वे स्वयं कायम थे। दिल्ली स्थानीय निकाय के नतीजे इस बात को पुख्ता करते हैं कि आम आदमी पार्टी की सरकार और उसकी नीतियों से लोग बेहद खफा हैं। 
गौरतलब है कि 14वीं लोकसभा के चुनाव के समय 2004 से ही पूरे देष में ईवीएम का उपयोग होने लगा था। देखा जाय तो बीते विधानसभा चुनाव के नतीजे के बाद ईवीएम को लेकर भी खूब राजनीति हुई है। मायावती समेत अनेक विपक्षी ने इस मामले को लेकर भाजपा पर खूब निषाना साधा जबकि केजरीवाल के लिए ईवीएम एक ऐसा मुद्दा था जिसकी जद् में चुनाव आयोग और बीजेपी दोनों थे। एमसीडी के नतीजे यह भी इषारा कर रहे हैं कि इन गतिविधियों से भी केजरीवाल की पार्टी की न केवल छवि खराब हुई बल्कि जनता में यह संदेष भी चला गया कि वे बेतुकी बात कर रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि इसी ईवीएम से इन्हें भी 70 के मुकाबले 67 सीट मिली थी और हाल ही में पंजाब विधानसभा में हुए चुनाव और प्रयोग में लाई गयी ईवीएम से ही कांग्रेस सत्ता पर काबिज़ हुई है, तो फिर ये हो-हल्ला क्यों? हालांकि यह मुखर संदर्भ इस बात की दरकार रखता है कि यदि ईवीएम किसी गड़बड़ी से युक्त है तो जांच-पड़ताल होनी चाहिए साथ ही लोकतंत्र की मजबूती के लिए इसका पूरा माजरा सामने आना चाहिए। गौरतलब है कि वर्श 2009 में 15वीं लोकसभा के नतीजों के बाद भाजपा भी ईवीएम पर सवाल उठा चुकी है। फिलहाल एमसीडी चुनाव में केजरीवाल बुरी तरह परास्त हुए हैं और 2012 में 77 सीट जीतने वाली कांग्रेस आधे पर ही सिमट गयी है जबकि विधानसभा में तीन सीटों पर सिमटी बीजेपी पिछले नतीजे 138 के मुकाबले और बड़ी जीत करते हुए लोकतंत्र की बुलन्दी पर है। फिलहाल यह भी समझ लेना सही होगा कि लोकतंत्र पर किसी एक का कब्जा नहीं है। यदि मतदाता को खटका तो किसी को भी झटका दे सकता है। साफ है कि इस चुनाव से एक बार फिर स्पश्ट हो गया कि लोकतंत्र की राह और दिल्ली के मतदाता को समझना आसान तो नहीं है। सवाल तो यह भी है कि क्या केजरीवाल नासमझी कर रहे हैं। दिल्ली एमसीडी के नतीजे में आप दूसरे नम्बर जबकि कांग्रेस तीसरे स्थान पर है इन सबके बीच भाजपा की जीत को ईवीएम की जीत के आरोप यहां भी लग रहे हैं। हार के बाद सभी केजरीवाल की लानत-मलानत कर रहे हैं। अन्ना हज़ारे भी केजरीवाल को राह से भटका मान रहे हैं। सबके बावजूद क्या यह मान लिया जाय कि लोकतंत्र के सभी सोपान में क्या मतदाता भाजपा को ही देखना चाहती है। हो न हो यूपी में योगी की कार्यप्रणाली भी दिल्ली के मतदाताओं को प्रभावित किया हो फिलहाल लोकतंत्र की राह में भाजपा एक और पड़ाव पार कर चुकी है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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