Monday, April 3, 2017

चुनौतियों से भरा है सामाजिक प्रशासन

अक्सर यह देखा जा सकता है कि विकसित देशों  में प्रशासन एक सीमा तक नियमबद्ध है और वे विधायी आधार पर भी लिपिबद्ध हुए हैं। हालांकि सुधार की गुंजाइश से विकसित देश भी परे नहीं है परन्तु विकासशील देश विशेषतः  भारत में तो सामाजिक प्रषासन विधायी आधार पर पूर्णतः लिपिबद्ध ही नहीं हो पाये हैं। अनेक विभाग और निदेषालय बिना किसी विधायी आधार के समाज कल्याण कार्यक्रमों को सम्पन्न करने में लगे हुए हैं। दरअसल लोक कल्याण के इस युग में सरकारों की इसे लेकर अपनी मनोदषा रही है। फलस्वरूप इसका एक नुकसान या फायदा यह माना जाता है कि सरकारों के बदलने के साथ कल्याण कार्यक्रमों में भी बड़ा फेरबदल हो जाता है अर्थात् नई सत्ता की नई विचारधारा में पुराने सत्ताधारियों के लोक कल्याण कार्यक्रमों में या तो आकर्शण का लोप होता है या सुधार, या फिर नये कार्यक्रम स्थान ले लेते हैं। बीते मार्च में पांच राज्यों में नये विधानमण्डल का गठन होना जिसमें पंजाब को छोड़कर उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, मणिपुर समेत गोवा में भाजपा का काबिज होना इस गुंजाइष से परे नहीं है कि पहले के लोक कल्याणकारी कार्यक्रम यथावत रहेंगे। उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री योगी के नित नये निर्णयों से व्यापक सुधार की कवायद जारी है। अब तक एक पखवाड़े का वक्त तय कर चुकी योगी सरकार ताबड़तोड़ कई सामाजिक फैसले ले चुकी है जिसमें अवैध बूचड़खानों को बंद करना, गोमती रीवर फ्रंट पर नये सिरे से विचार करना साथ ही अध्यापकों की भर्ती पर रोक लगाना इसके अलावा अखिलेष सरकार के कई कार्यक्रमों को स्थगित करते हुए राषन कार्ड से उनकी फोटो हटाने और समाजवादी षब्द से तौबा करना आदि रहा है। उत्तराखण्ड पर भी उत्तर प्रदेष की ही परछाई देखी जा सकती है। यहां भी अवैध बूचड़खाने से लेकर भ्रश्टाचार के मामले में त्रिवेन्द्र सरकार बड़ी कसरत करते हुए दिखाई दे रही है जबकि इसके पहले राश्ट्रीय राजमार्ग घोटाले को सीबीआई को सौंपना और पांच अधिकारियों को निलंबित कर भ्रश्टाचार पर ज़ीरो टाॅलरेंस की मंषा वे प्रकट कर चुके हैं। 
जब भी सुषासन की राह पर सरकारों को चलना पड़ा तब कुछ इसी प्रकार की सामाजिक प्रषासन से जुड़े सूझबूझ का परिचय भी देना पड़ा। असल में सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है सरकारें चाहे मजबूत हों या कमजोर हर हाल में जनता को सषक्त करना उनका दायित्व है। सामाजिक-आर्थिक दृश्टि को लेकर जिस प्रकार की दृढता समाज में दिखनी चाहिए उसका पूरा प्रभाव आज भी देखने को नहीं मिलता है। दषकों से तमाम कोषिषों के बावजूद वोट देने वाला हाषिये पर क्यों है इसका जवाब षायद ही किसी के पास हो पर इसे लेकर सैकड़ों बहाने जरूर बनाये जा सकते हैं, दर्जनों झूठ बोले जा सकते हैं और लीपापोती से भरे आंकड़े प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इन सबके बीच क्या इसकी समय सीमा सम्भव है कि समाज के कमजोर वर्गों के लिए सामाजिक सुरक्षा कब मिलेगी, महिलाओं पर हो रहे अत्याचार कब रूकेंगे, कानून व्यवस्था जो बेपटरी है वह कब पटरी पर आयेगी इतना ही नहीं देष-प्रदेष में युवा बेरोजगारी का आलम यह है कि वे अपराध के रास्ते को चैड़ा करने में लगे हैं। इस पर सषक्त नीति कब आयेगी। ऐसे सवाल सैकड़ों में हो सकते हैं वक्त के साथ पीड़ा बढ़ी तो ये हजारों में भी हो सकते हैं पर निदान के लिए विधि विन्यास कितना है और कितना सषक्त है यह तय करेगा कि सरकारें लोक कल्याण का दायरा कितना रखती हैं। एक विचारक ने बरसों पूर्व कहा था कि सरकार निर्मित करने का ईंधन तो जनता है पर पांच साल तक सरपट दौड़ने वाली सरकारें यदि इंजन को ही पूरी ट्रेन समझेंगे तो बोगियों में सवार जनता सामाजिक प्रषासन से अछूती रहेगी। सात दषक से आजाद देष में बुनियादी आवष्यकताओं के आभाव में सामाजिक प्रषासन की प्रकृति अभी भी पिलपिली ही है। प्रषासन की अपेक्षा सामाजिक प्रषासन अभी षैष्वावस्था में ही कहा जायेगा। हालांकि विकसित देषों में यह सैकड़ों साल से व्याप्त है। यही कारण है कि अमेरिका में बुनियादी विकास और अन्य उभरी सामाजिक समस्याएं व्यापक पैमाने पर समाधान को प्राप्त कर चुकी हैं।
 देखा जाय तो सामाजिक प्रषासन, प्रषासन की तरह ही है और इसी का अगला चरण सुषासन है बस फर्क यह है कि यह सामाजिक कार्यक्रमों के सिद्धान्तों पर टिकता है। इसमें सामाजिक विकास के साथ सामाजिक सुरक्षा भी निहित है। भारत एक संघीय राज्य है, प्रकृति में पुलिस राज्य तो नहीं पर जन कल्याण के आभाव में यहां पूरा लोक कल्याण नहीं हो पाया है। संविधान में भी राज्यों के कत्र्तव्य गिनाये गये हैं। नीति-निर्देषक तत्व इसका उदाहरण है। केन्द्र में मोदी सरकार को लगभग तीन बरस हो रहे हैं जबकि उदारीकरण के तीन दषक पूरे होने में कुछ ही वर्श बचे हैं। सुषासन की राह पर चलते हुए मोदी सरकार डिजिटल इण्डिया, मेक इन इण्डिया तथा स्टार्टअप एवं स्टैण्डअप इण्डिया को अपनाकर एक सुगम पथ बनाने की कोषिष में है जिसका हालिया संदर्भ अभी बहुत प्रखर नहीं हुआ है और आंकड़े इस ओर इषारा करते हैं कि ये तमाम कोषिषें अभी वाइब्रेंट इण्डिया की अवधारणा तक नहीं पहुंच पाई हैं। स्वच्छ भारत अभियान से लेकर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ साथ ही षौचालय जैसे सामाजिक कार्यक्रम देष में बरसों पहले आ जाने चाहिए थे। इसकी देरी का खामियाजा भी बरसों से चुकाया जा रहा है। उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में जिस कूबत के साथ एक तरफा जीत वाली सरकारों का निर्माण हुआ है उसे देखते हुए यह उम्मीद बढ़ना लाज़मी है कि सरकारों को लोक कल्याण के मामले में मीलों आगे रहना चाहिए। सामाजिक सुरक्षा के मामले में तो मोदी और योगी समेत अन्यों को भी जी-जान लगा देना चाहिए। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की 2009 की रिपोर्ट में सामाजिक सुरक्षा को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की गई थी मसलन अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्गों के षैक्षिक विकास, आर्थिक और सामाजिक अधिकार प्रदान करना, विकलांग व्यक्तियों और नषीली दवाओं आदि के लोगों के पुनर्वास साथ ही वरिश्ठ नागरिकों समेत समाज के ऐसे ही तमाम लोगों के कल्याण के लिए वचनबद्ध होना था। उक्त के निहित परिप्रेक्ष्य में कार्यक्रमों की संख्या बढ़ी पर पड़ताल बताती है कि दवा के साथ दर्द बढ़ा है जबकि उम्मीद घटने की थी। 
विकास का एक बहुत अच्छा पहलू लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की अवधारणा को माना जाता है। भारत 125 करोड़ की जनसंख्या रखता है जिसमें 25 करोड़ उत्तर प्रदेष के हिस्से है। योगी सरकार को इन्हें ध्यान में रखकर अपने सामाजिक कार्यक्रम लागू करने हैं जिसमें महिलाओं एवं बच्चों का सषक्तीकरण, अल्पसंख्यक, विकलांग के कल्याण हेतु कदम उठाना, पिछड़े वर्गों को लेकर भी बचा हुआ काम करना, अनुसूचित जाति में वे सभी उभार लाना जिससे अभी वे अछूते हैं इतना ही नहीं चुनौती तो यह भी है कि उन्हें धर्मनिरपेक्ष सरकार होने का विष्वास भी पैदा करना है। उत्तर प्रदेष में यह आम है कि योगी प्रखर हिन्दूवादी हैं जाहिर है इससे ऊपर उठकर छवि विकसित करना भी उनके लिए एक चुनौती है। इस बात को भी समझना ठीक होगा कि इस बार के विधानसभा चुनाव में चाहे उत्तर प्रदेष हो या उत्तराखण्ड धर्म और जाति से काफी हद तक मुक्त रहा है यदि प्रभाव था तो विकास का। जिन वायदों और इरादों के साथ विकास की अवधारणा पल्लवित और पोशित की गयी है उससे भी यह साफ है कि सामाजिक प्रषासन के मार्ग पर चलना ही होगा। सुषासन की रट लगाने वाले सत्ताधारियों को यह समझना होगा कि भारत जैसे विकासषील देष में मात्र सरकारों के अधिक नम्बर होने से यह सम्भव नहीं है बल्कि जनता का नम्बर वन होना इसकी मेरिट है। ऐसे में वे लोक कल्याण से जुड़े सामाजिक कार्यक्रमों को ऐसी दिषा दें जिससे सामाजिक प्रषासन के साथ सुषासन की राह चैड़ी हो सके। 

सुशील कुमार सिंह


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