Wednesday, April 19, 2017

ग्लोबलाइजेशन का साइड इफ़ेक्ट

जब नब्बे के दषक में वैष्वीकरण को लेकर दुनिया अपने-अपने ढंग के ताने-बाने बुन रही थी तब षायद ही किसी की सोच रही हो कि एक गांव में तब्दील हो रहा संसार इसके साइड इफेक्ट से अछूता नहीं रहेगा। यह महज एक मामूली घटना नहीं जब निजी स्वार्थों के चलते या स्थानीय जनता के दबाव में दुनिया की बड़ी से बड़ी सरकारें नरम हो रही हो और ऐसे कानून बनाने के लिए बाध्य हुई हो जो षेश के लिए किसी कठिनाई से कम न हो। बामुष्किल अभी हफ्ताभर बीता था कि दिल्ली के अक्षरधाम मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठकर प्रधानमंत्री मोदी के साथ गुफ्तगू करने वाले आॅस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री मैलकम टर्नबुल ने आॅस्ट्रेलिया पहुंच कर एक कड़ा और बड़ा निर्णय लिया। बीते दिनों भारत से 6 समझौते पर सहमति देने वाले टर्नबुल अमेरिकी तर्ज पर ही वीजा को लेकर एक ऐसा निर्णय लिया जिससे भारत भी हैरत में होगा। बीते 18 अप्रैल को आॅस्ट्रेलिया ने अपना 457-वीजा प्रोग्राम रद्द कर दिया जिसका उपयोग प्रमुख रूप से भारतीय ही करते थे। गौरतलब है कि इसके पहले अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी एच-1बी वीजा पर सख्त निर्णय लेते हुए अमेरिका में रोजगार युक्त भारतीयों समेत अन्यों के वापसी का फरमान सुना चुके हैं। फिलहाल आॅस्ट्रेलिया के इस कदम से 95 हजार विदेषी कामगार प्रभावित होंगे जिनमें से अधिकांष भारतीय हैं। इसके अलावा ब्रिटेन और चीनी नागरिक भी इसमें षुमार देखे जा सकते हैं। बता दें कि 457-वीजा कार्यक्रम के तहत आॅस्ट्रेलियाई कम्पनी को देष में ई-कामगारों की कमी वाले सेक्टरों में चार साल तक विदेष के कर्मचारियों को नियुक्त करने की इजाजत थी। जिसे प्रधानमंत्री टर्नबुल ने रद्द करते हुए सख्त बंदिषों से जुड़ा वीजा कार्यक्रम लाने का एलान किया है। इसके पीछे बड़ी वजह क्या है यह किसी से छुपी नहीं है। दरअसल जो अमेरिका में ट्रंप चाहते हैं वही आॅस्ट्रेलिया में कमोबेष अब टर्नबुल भी चाहते हैं। जाहिर है स्किल्ड जाॅब में वे ‘आॅस्ट्रेलियन फस्र्ट‘ की नीति अपनाने की ओर हैं।
फिलहाल आॅस्ट्रेलिया के इस कदम से भारतीय पेषेवरों को चार साल के लिए नौकरी पाना जो आसान काज था अब षायद कठिन हो जायेगा। सटीक तर्क यह भी है कि जब दुनिया का कोई देष नये परिवर्तन और प्रगति की ओर चलायमान होता है तो इसका सीधा असर वहां के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवेष पर तो पड़ता ही है साथ ही इससे पनपा साइड इफेक्ट अन्य अक्षांष और देषान्तर वाले देषों पर भी होता है। संसार में कई ऐसे उदाहरण हैं जिसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि बीते तीन दषकों से जिस तर्ज पर ग्लोबलाइज़ेषन का दौर बढ़ा और जिस रूप में संसार विविध तकनीकों और विषेशताओं से युक्त हुआ, आदान-प्रदान की नीति तथा आपसी मेलजोल को बढ़ाया साथ ही आवागमन को जिस प्रकार सुलभ किया। इतना ही नहीं व्यावसायिक गतिविधियां जिस पैमाने पर बढ़त बनाई और रोजगार समेत कई अन्य पर सीमाएं बाधा मुक्त हुईं उसका असहज परिप्रेक्ष्य अब परिलक्षित होने लगा है। पिछले वर्श जब ब्रिटेन ने यूरोपीय यूनियन को अचानक अलविदा कहा तो उसके पीछे भी एक अच्छी खासी वजह थी और उसके साइड इफैक्ट से वह भी परेषान था। गौरतलब है कि यूरोपीय संघ में रहने के चलते ब्रिटेन में प्रति दिन 5 सौ प्रवासी दाखिल होते थे जबकि पूर्वी यूरोप के करीब 20 लाख तो ब्रिटेन में ही रह रहे थे। इस प्रकार की बढ़ती तादाद से यहां बेरोजगारी का संकट उत्पन्न हुआ। यूरोपीय संघ में बने रहने के लिए ब्रिटेन द्वारा एक लाख करोड़ रूपया सालाना खर्च किया जाना और ब्रिटेन के नागरिकों द्वारा यूरोपीय संघ के नौकरषाहों को नापसन्द किया जाना जैसी तमाम समस्याएं विद्यमान थी। चूंकि यूरोपीय संघ में होने के चलते उक्त गतिविधियों पर लगाम लगाना सम्भव नहीं था। ऐसे में उपरोक्त के चलते पिछले साल 23 जून को हुए जनमत संग्रह के फलस्वरूप ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग हो गया। इस घटना से तत्कालीन प्रधानमंत्री कैमरन को कुछ महीने बाद इस्तीफा देना पड़ा और ब्रिटेन की प्रधानमंत्री टेरिज़ा को बनाया गया। बीते 18 अप्रैल को उन्होंने यह कह कर सभी को चैंका दिया कि आगामी 8 जून को मध्यावधि चुनाव सम्पन्न कराया जायेगा साथ ही यह भी साफ किया गया कि इसके चलते ब्रेक्ज़िट पर कोई असर नहीं पड़ेगा। 
बदलती दुनिया का एक ढंग अब अमेरिका में भी देखा जा सकता है। इसी वर्श 20 जनवरी को सबसे ताकतवर देष अमेरिका की कमान डोनाल्ड ट्रंप ने संभाली और ताबड़तोड़ कई फैसले लिये जिसमें सात मुस्लिम देषों पर अमेरिका में एंट्री पर प्रतिबंध और एच-1बी वीजा समेत कई निर्णय देखे जा सकते हैं। एच-1बी वीजा के चलते सीधा असर भारतीयों पर भी पड़ा है। दरअसल यह वीजा ऐसे विदेषी पेषेवरों के लिए जारी किया जाता है जो खास कार्य में कुषल होते हैं इसके लिए उच्च षिक्षा की जरूरत होती है। इसमें वैज्ञानिक, इंजीनियर, कम्प्यूटर प्रोग्रामर आदि आते हैं। हर साल ये करीब 65 हजार के आसपास जारी होते हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले वर्श एच-1बी वीजा के लिए 2 लाख 36 हजार लोगों ने आवेदन किया था। जो इस वर्श घटकर 2 लाख के आसपास पहुंच गया है। डोनाल्ड ट्रंप ने वीजा मामले में सख्त कदम इसलिए उठाया क्योंकि वे ‘अमेरिकन फस्र्ट‘ की थ्योरी पर काम करना चाहते हैं। गौरतलब है कि कुछ माह पहले भारत के दो इंजीनियरों पर इस बात के लिए गोली चलाई गयी कि वे अमेरिका में नौकरी करते थे और उन्हें देष छोड़कर जाने के लिए कहा गया जिनमें से एक की मौत भी हो गयी थी। दो टूक यह भी है कि जिस ग्लोबलाइज़ेषन के चलते दुनिया एक होने का दम भरती थी आज मजबूत से मजबूत देष अपने निजी हितों को ध्यान में रखते हुए इसके साइड इफेक्ट से बिलबिलाया हुआ दिख रहा है। 
यह सर्वविदित है कि यूरोप से लेकर अमेरिका और एषिया से लेकर अफ्रीका और लैटिन अमेरिका और प्रषान्त महासागर का आॅस्ट्रेलिया भी अपने-अपने नीतियों में कुछ ऐसा सख्तपन भर रहे हैं कि भारत जैसे देष कहीं न कहीं प्रभावित होते दिख रहे हैं। गौरतलब है कि 24 जुलाई 1991 से भारत आर्थिक उदारीकरण के माध्यम से दुनिया में बढ़ रहे वैष्वीकरण से ताल से ताल मिलाने लगा था। 25 बरस की इस यात्रा में भारत ने उन्नति और तरक्की के पथ भी बनाये और उस पर चला भी। कईयों के लिए मददगार तो कईयों से मदद की दरकार भी रखी। किसी भी अक्षांष व देषान्तर के देष से भारत फिलहाल अब अछूता नहीं है। मानव विकास सूचकांक से लेकर आर्थिक, तकनीकी और वाणिज्य विकास में भी भारत षनैः षनैः ऊँचाई की ओर बढ़ा है। देष के अन्दर जीवन मूल्य भी तुलनात्मक, गुणात्मक हुए हैं। षिक्षा और रोज़गार के लिए यहां के युवाओं ने दूसरे देषों में भी खूब आवा-जाही की। अमेरिका और यूरोप के देषों में तो ऐसा बहुतायत में हुआ। इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी समेत यूरोप के कई देषों में लाखों की मात्रा में भारतीय आज भी देखे जा सकते हैं। वहीं अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को से लेकर न्यूयाॅर्क और वांषिंगटन तक इनकी पहुंच और कौषल बाकायदा देखी जा सकती है। आंकड़े भी इस बात समर्थन करते हैं कि गूगल, फेसबुक व अन्य तकनीकी विधाओं में भारतीय ही छाये हुए हैं परन्तु जिस प्रकार वीजा और विदेषों में रोजगार व बसावट को लेकर संकीर्णता विकसित हो रही है उससे साफ है कि वैष्वीकरण की अवधारणा कुछ हद तक जगह से खिसक रही है। अब दुनिया के देष इस होड़ की ओर जाते दिखाई दे रहे हैं कि सबसे पहले रोजगार तथा अन्यों पर उनके देष का ही कब्जा हो। कहीं यह तीन दषक से चले आ रहे ग्लोबलाइजेषन का साइड इफेक्ट तो नहीं है। यदि ऐसा है तो समय रहते भारत को भी अपनी नीतियों में बड़ा फेरबदल कर लेना चाहिए ताकि आने वाली समस्याओं से उसके लिए दो-चार होना आसान रहे। 

सुशील कुमार सिंह

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