Monday, April 17, 2017

घाटी का लोकतंत्र घाटे में क्यों !

लोकतंत्र महज एक मतों का आंकड़ा नहीं बल्कि प्रवाहषील भारतीयों की वैचारिक धारा भी है। दो दषक पहले जब गठबंधन के बगैर सत्ता मिलती ही नहीं थी तब इस बात की चर्चा आम थी कि हमारा लोकतंत्र किधर जा रहा है? ध्यान पड़ता है कि उन दिनों सिविल सेवा परीक्षा के निबंध प्रष्न पत्र में भी इस विशय को बड़ी षिद्दत से पूछा जाता था। उक्त का संदर्भ यहां तब लाज़मी हो गया जब घाटी में लोकतंत्र अनुमान से कहीं अधिक नीचे चला गया। हालांकि यह एक लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव से जुड़ा मामला है पर यह इतना सीधा भी नहीं है। जम्मू-कष्मीर के श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के लोकसभा उपचुनाव के हालिया नतीजे को देखते हुए इस एहसास से भर जाना गैर-वाजिब नहीं है कि लोकतंत्र का आषा दीप इन दिनों घाटी में मानो बुझ गया हो। सख्त लहज़े में कहा जाय साथ ही परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण के निहित भाव को देखा जाय तो लोकतंत्र का बंटाधार करने वालों में हमारे देष के राजनेता ही अव्वल नज़र आयेंगे। जम्मू कष्मीर में बरसों बरस सत्ता चलाने वाले फारूख अब्दुल्ला महज़ 48 हजार से कुछ अधिक वोट पाकर श्रीनगर सीट जीतकर लोकसभा में एंट्री पा ली है। इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र की इस गिरावट से जो प्रष्न उठ रहे हैं वह कई लोगों के माथे पर बल जरूर डालेंगे और मन यह मथता रहेगा कि आखिर घाटी इस कदर वोट विहीन क्यों हुई? सवाल तो यह भी उठेगा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतंत्र की ही सबसे बड़ी हार घाटी में कैसे हो गई? सभी जानते हैं कि चुनाव कितने भी लड़े जिसके पक्ष में मतदान अधिक विजय उसी की होगी। यह लोकतंत्र का मज़ाक ही है कि जहां हम आमतौर पर 65 से 70 फीसदी तक मतदान होते देख रहे हों और कहीं-कहीं यह आंकड़ा 80 से अधिक हो उसी देष में देष की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचने के लिए महज़ कुल वोट का 4 फीसदी मत प्राप्त करने वाला संसद जाय हैरत भरी बात है। फिर भी यदि हम गर्व से कहते हैं कि हमारा लोकतंत्र सषक्त है तो यह हमारी जनता के प्रति उपजी सद्भावना ही कही जायेगी पर साढ़े बारह लाख से अधिक मतदाताओं में महज़ नब्बे हजार मतदान देने वाले बूथ तक पहुंचे तो इसे विडम्बना ही कहा जायेगा। फिलहाल फारूख अब्दुल्ला घाटी से संसद की दूरी तय कर चुके हैं पर किस कीमत पर यह सवाल कचोटता रहेगा। 
इस सच्चाई से फारूख अब्दुल्ला भी अनभिज्ञ नहीं है कि घाटी में लोकतंत्र हादसे का षिकार हुआ है। जीत के बाद उन्होंने मांग की कि जम्मू-कष्मीर में राज्यपाल षासन लगाया जाय। इसके पीछे का आरोप यह है कि राज्य सरकार षान्तिपूर्ण चुनाव कराने में विफल रही है। हालांकि बारीक पड़ताल की जाय तो पता चलेगा कि फारूख अब्दुल्ला यहां भी जमकर राजनीति कर रहे हैं और इन दिनों षायद ही उन्हें घाटी में फैली अषान्ति को लेकर बड़ी चिन्ता है क्योंकि षान्ति स्थापित करने की जिम्मेदारी तो पीडीएफ-भाजपा गठबंधन की सरकार चला रही महबूबा मुफ्ती को होनी चाहिए जिससे फिलहाल उनका छत्तीस का आंकड़ा है। ध्यान्तव्य है कि ये वही फारूख अब्दुल्ला हैं जो घाटी में बीते कई महीनों से पत्थरबाजी में संलिप्त कष्मीरी युवाओं को वतनपरस्त बता चुके हैं। यहां यह स्पश्ट कर दें कि पत्थरबाज कष्मीरी बेरोज़गार युवा हैं या अलगाववादी कह पाना मुष्किल है पर यह कहना सहज है कि पत्थरबाज वतनपरस्त तो नहीं हो सकते। हाल ही में चुनाव कराने वाले सीआरपीएफ के जवानों पर इन्हीं अलगाववादियों ने न केवल लात-घूसे बरसाये बल्कि उन्हें जलील करने की हर मुनासिब कोषिष की जिसका वीडियो बीते दिनों वायरल हुआ था। हालांकि जवानों द्वारा इन्हें सबक सिखाये जाने वाला वीडियो भी वायरल हो चुका है। फिलहाल इस सच का सभी समर्थन करेंगे कि घाटी में अषान्ति का माहौल बीते कुछ वर्शों से तो व्याप्त है। गौरतलब है कि पहली बार जम्मू-कष्मीर के विधानसभा में कुल 87 सीटों के मुकाबले 25 स्थानों पर भाजपा काबिज हुई जो महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार चला रही है परन्तु इस आरोप से पूरी तरह मुक्त नहीं है कि भाजपा ने सत्ता की चाहत में बेमेल समझौते किये हैं और अलगाववादियों के साथ गठजोड़ किया है। दो टूक सच्चाई यह भी है कि जब मुख्यमंत्री की कुर्सी महबूबा मुफ्ती से पहले मुफ्ती मोहम्मद सईद ने संभाली थी तब कई अलगाववादियों को उन्होंने कुर्सी संभालते ही जेल से रिहा कराया था। तब भी यह चर्चा जोरों पर थी कि केन्द्र में मोदी सरकार होने के बावजूद सईद की मनमानी पर रोक नहीं लगा पाये थे। कमोबेष आज भी अलगाववादियों पर नियंत्रण कर पाना टेड़ी खीर बना हुआ है।
भारतीय संविधान में इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं है कि लोकसभा या विधानसभा में सदस्य बनने के लिए कम से कम कितना वोट पाना चाहिए। षायद संविधानविद्ों ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि 21वीं सदी के दूसरे दषक में जब देष आजादी के सात दषक पूरे कर लेगा तब भी लोकतंत्र को हाषिये पर फेंके जाने वाली घटना होगी। जिस तर्ज पर देष में लोकतंत्र परवान चढ़ा है उसके मुकाबले फारूख अब्दुल्ला की जीत और घाटी का रसातल में पहुंचा लोकतंत्र षायद ही किसी को पचे। ठण्डी वादी में राजनीति इतनी गरम होगी इसका भी एहसास किसी को नहीं रहा होगा। गौरतलब है कि महज़ कुछ वोट पाने वाले फारूख अब्दुल्ला 2014 के लोकसभा चुनाव में चुनाव हार गये थे। तब पीडीएफ नेता तारिक हमीद कर्रा ने जीत हासिल की थी परन्तु पिछले साल हिजबुल मुजाहिद्दीन के सदस्य बुरहान वानी के मार जाने के बाद पीडीएफ-बीजेपी गठबंधन की नीतियों से नाराज होकर तारिक कर्रा ने इस्तीफा दे दिया था। जिसके चलते खाली सीट को भरना था ऐसे में जाहिर है छः महीने के अंदर चुनाव कराना जरूरी था। फिलहाल बाजी फारूख अब्दुल्ला के हाथ लगी और घाटी का लोकतंत्र हार गया। इसका जिम्मेदार कौन है षायद ही खुले मन से कोई स्वीकारे।
सभी जानते हैं कि कष्मीर बरसों से सुलग रहा है। भारी हिंसा और अषान्ति का माहौल यहां की वादियों में व्याप्त है। आलम यह है कि उपचुनाव के दौरान भी पोलिंग स्टेषन और मतदान कर्मचारियों पर भीड़ द्वारा हमला किया गया। सुरक्षाकर्मियों द्वारा गोली भी चलाई गयी, दर्जनों मारे भी गये पर क्या मिला, देखा जाय तो एक बीमार लोकतंत्र। गौरतलब है कि जम्मू कष्मीर उन 9 राज्यों में से एक है जहां बीते 9 अप्रैल को विधानसभा और लोकसभा का उपचुनाव हुआ था। सवाल यह भी है कि जिस प्रकार घाटी में हिंसा पैर पसार लेती है जिस प्रकार भारत विरोधी नारे और आतंक की आड़ में पाकिस्तानपरस्त लोगों की बाढ़ आ जाती है  क्या उसे देखते हुए इस बात पर एकजुटता नहीं हो सकती कि कष्मीर के हितों के लिए सभी को अपनी-अपनी कोषिष करनी चाहिए। जिस तरह अलगाववादी बैंक लूटने, एटीएम लूटने तत्पष्चात् पत्थरबाजी का कारोबार बादस्तूर चलाये हुए हैं इससे यह भी संकेत मिलता है कि कुछ हद तक राजनीतिक नरमी भी इनके मनोबल को ऊंचा किये हुए है। हुर्रियत जैसे अलगाववादी दलों के लोगों ने कष्मीरी युवाओं का दिमाग खराब कर रखा है परन्तु फारूख अब्दुल्ला जैसों कका अनाप-षनाप बयान भी उनका मनोबल बढ़ाने के काम आ रहा है। पीडीएफ की दौड़ रही सरकार भी अलगाववादियों के लिए भी कुछ हद तक आका का काम कर रही है। षायद मोदी ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने तीन बरस के भीतर जम्मू-कष्मीर की सर्वाधिक यात्रा की है पर हालात काबू में नहीं हैं और अब तो लोकतंत्र की सांस भी यहां उखड़ गयी है। ऐसे में श्रीनगर में हुआ उपचुनाव से क्या सबक भविश्य में लिया जायेगा इस पर भी देष के राजनेताओं को होमवर्क करना चाहिए।

सुशील कुमार सिंह


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