Monday, May 1, 2017

लाल बत्ती, लाल फीताशाही और सुशासन

मैक्स वेबर ने अपनी पुस्तक सामाजिक-आर्थिक प्रशासन में इस बात को उद्घाटित किया है कि नौकरशाही प्रभुत्व स्थापित करने से जुड़ी एक व्यवस्था है जबकि अन्य विचारकों की यह राय रही है कि यह सेवा की भावना से युक्त है। पुस्तक विषेश में दिया गया यह वक्तव्य वर्ष 1920 का है तब भारत में दौर औपनिवेषिक सत्ता का था पर स्वतंत्रता के पष्चात् क्या नौकरषाही अपेक्षानुरूप उस बदलाव तक पहुंच पाई जहां से वीआईपी कल्चर को विराम लगता हो और भारत की उस संस्कृति का आगाज होता हो, जहां मनोवैज्ञानिक संघर्श इस बात का न हो कि कईयों ने समाज में उच्च दर्जा किसी को नीचा दिखाने के लिए प्राप्त किया हुआ है। लालफीताषाही की पर्याय रही नौकरषाही और उसके सिर पर चमकती लाल, नीली बत्तियां वाकई में सेवा के बजाय प्रभुत्व से कहीं अधिक जुड़ी समझी जाती रही है। बदली हुई सूरत और बदले देष में बड़े बदलाव का जिम्मा तो सभी के हिस्से में समय-समय पर आया और परिवर्तन को लेकर खूब वायदे भी किये गये पर खरे उतरने के मामले में षायद कम ही लोगों को जांचा और परखा जाता है। फिलहाल इन दिनों लाल बत्ती गुल करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की वाहवही हो रही है। जिन्होंने वीआईपी कल्चर खत्म करने के लिए अप्रैल में एक बड़ा फैसला लिया कि लाल बत्ती वाली गाड़ियां फिलहाल 1 मई से सड़कों पर नहीं दिखाई देंगी। हालांकि फैसले के दिन से ही कई मंत्री अपनी गाड़ियों से लाल बत्ती उतारते देखे भी गये। सम्भव है कि वीआईपी कल्चर को विराम लगाते हुए मोदी ने यह संकेत दे दिया है कि सात दषक की आजादी से युक्त भारत समतामूलक मनोविज्ञान से अब आगे का रास्ता तय करेगा। बावजूद इसके इस दृश्टिकोण पर भी दृश्टि होगी कि लाल बत्ती, नीली बत्ती एवं हूटर की आदत डाल चुके मंत्री व नौकरषाह वर्ग क्या इसे लेकर मन से भी पूरी तरह मुक्त हो पायेंगे। मोदी के मन की बात में भी कुछ इस प्रकार का ही प्रसंग सुनने को मिला। जाहिर है इसे लेकर ज़ेहन से पूरी मुक्ति में अभी षायद वक्त लगेगा। 
देष में लाल बत्ती के बैन को लेकर फैसले ने नये सिरे से देष में बहस छेड़ दी है। यह सही है कि भारतीय जनमानस में वीआईपी की जो छवि उभरती है उसमें लाल बत्ती अव्वल है। हालांकि यह एक प्रतिकात्मक परिप्रेक्ष्य है बावजूद इसके कईयों को रूतबा दिखाने का यह एक तरीका भी बन गया था। स्वीडन और नोर्वे जैसे देष वीआईपी कल्चर से अछूते माने जाते हैं साथ ही कई अन्य देष भी जनमानस के बीच स्वयं को उनके जैसा होने का एहसास कराने में पीछे नहीं रहते। गौरतलब है कि जब प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका की यात्रा पर थे तब वे मैक्सिको भी गये थे उस दौरान वहां के राश्ट्रपति स्वयं गाड़ी चला रहे थे और बगल की सीट पर मोदी बैठे थे। ऐसे कई और उदाहरण मिल जायेंगे जहां के उच्च पदों पर आसीन लोग वीआईपी कल्चर से दूर सामान्य संस्कृति का निर्वहन करते हैं। हालांकि इसका आज से तीन दषक पहले एक साइड इफेक्ट यह रहा है कि बहुत अधिक सामान्यता में स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री ओलेफ पामे की हत्या हो गयी थी जब वे सिनेमा देखने के बाद पैदल घर लौट रहे थे। मामला चाहे जैसा हो पर यह तो है कि अन्य देषों के प्रधानमंत्री या मुख्य पदों पर बैठे लोग सड़कों पर आम जन की तरह भी चलते हैं। आज से आठ बरस पहले न्यूज़ीलैण्ड के प्रधानमंत्री हेलन क्लार्क के काफिले को तेज गति से गाड़ी चलाने के लिए पकड़ा गया था और उनके साथ भी कानूनी प्रक्रिया ऐसे हुई थी मानो वे आम जन हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में वीआईपी कल्चर की जड़ें काफी गहरी हैं। बदलते दौर में इनको नेस्तोनाबूत करना समय की मांग भी है। आम और खास के बीच का अंतर मिटाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि समाज निर्माण और सामाजिक सरोकार किसी एक मात्र से सम्भव नहीं है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि सामंतवाद से ग्रस्त भारत बरसों तक गुलामी से जकड़ा रहा। यदि कहा जाय कि लाल बत्ती पुराने सामंतवाद के उस मनोविज्ञान से जकड़ी व्यवस्था थी जहां एक तबका दूसरों की तुलना में श्रेश्ठ बन गया था तो गलत न होगा। 
देखा जाय तो सुषासन प्राप्ति के मार्ग में लाल बत्ती, लाल फीताषाही और अकर्मण्यता जैसे तमाम पहलू बड़े रूकावट से कम नहीं हैं। हालांकि इसकी संख्या दर्जनों और सैकड़ों में भी हो सकती है जिसे निपटे बगैर  मनचाहा सुषासन विकसित करना सम्भव नहीं होगा। जाहिर है जनहित को सुनिष्चित करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है और इसके लिए उन्हें नीतियों के निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तत्पष्चात् मूल्यांकन का सफर तय करना होता है। ऐसा भी देखा गया है कि लोकतंत्र की ढांचागत व्यवस्था होने के बावजूद कई जिम्मेदार पदाधिकारियों ने जनहित से मुंह भी मोड़ा है और रीति तथा प्रथा को तवज्जो देते हुए समाज में अपनी प्रभुत्ववादी दृश्टिकोण पर ही चलते रहे जबकि सच्चाई इसके उलट होनी चाहिए थी। इसके चलते भी लाल बत्ती का गुल होना स्वाभाविक था। दो टूक यह भी है कि नये प्रयोग युवाओं के मन को तो भा ही रहा है साथ ही आम जनता जो सरकार, प्रषासन या सुषासन कि परिभाशा व महत्व को पूरी तरह षायद ही समझ पाती हो वह भी इसे सही करार दे रही है। इसमें कोई दिक्कत नहीं कि न्यू इण्डिया की अवधारणा और मजबूत सुषासन की प्राप्ति में लाल बत्ती विहीन व्यवस्था सहायक ही होगा। उदारीकरण के बाद से ही भारत काफी खुले मन से आगे बढ़ रहा है। विनिवेष, निजीकरण, पष्चिमीकरण, आधुनिकीकरण तथा वैष्वीकरण की प्रसार होती व्यवस्था में लोकतांत्रिक मूल्यों को संजोना महज़ एक जरूरत नहीं बल्कि सुषासन साबित करने का बड़ा प्रसंग भी है। ढ़ाई दषक से अधिक की यात्रा में उदारीकरण ने देष को बदलाव दिया है पर काम इतने से नहीं चलेगा ऐसे में कुछ और रूपांतरण उभारने होंगे। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इतने ही वर्शों में अभिषासन का रूपांतरण हुआ है, सूचना युग, ई-गवर्नेंस और ई-लोकतंत्र की ओर देष बढ़ा है। भूमण्डलीयकरण का दौर है जाहिर है सुषासन का पूर्ण होना निहायत जरूरी है। विकेन्द्रीकरण दौर की मांग है और बिना सेवा प्रदायक बने भूमिका में खरे उतर पाना सम्भव नहीं है। विकास की क्षमता पैदा करना, राजनीति का अपराधीकरण रोकना, भ्रश्टाचार पर लगाम लगाना और चुनाव सुधार की दिषा में भी कदम उठाने समेत कई सुषासनिक लक्षण से देष को अभी पोशण देना बाकी है। निहित भाव यह भी है कि नौकरषाही देष का प्रषासनिक बल है और इसमें निहित सकारात्मक मनोविज्ञान ही जनता को बल दे सकता है।
चुनौतियों से भरे देष, उम्मीदों से अटे लोग तथा वृहद जवाबदेही के चलते मौजूदा मोदी सरकार के लिए विकास व सुषासन की राह पर चलने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। यह कहना भी लाज़मी है कि बीते तीन वर्शों में सरकार ने कई आकस्मिक और जोखिम भरे निर्णय लिये हैं जिसमें नोटबंदी इस मामले में सबसे बड़े रूप में षुमार है। बावजूद इसके यह बात तभी चैबीस कैरेट खरी उतरी मानी जायेगी जब देष के अन्तिम व्यक्ति की आवष्यकता इस सरकार से पूरी होगी। लाल बत्ती पर विराम कठिन तो नहीं पर सहज भी नहीं था। असल सफलता तो इसके मनोविज्ञान से उबरने पर मिलेगी। उदारीकरण के बाद से नौकरषाही सिविल सेवक बन गयी पर लाल फीताषाही से पीछा नहीं छूटा। सरकारें बहुत आईं पर सुषासन को लेकर मील का पत्थर षायद ही किसी ने गाड़ा हो। माना मार्ग में बहुत अड़चने हैं और सवा अरब के देष को पूरी निश्ठा से चला पाना बड़ी चुनौती भी पर यह नहीं भूलना चाहिए कि बड़ी समस्याओं के हल के लिए ही बड़ी सरकारों का निर्माण होता है। ऐसे में बात महज़ लाल बत्ती तक ही न हो बल्कि सुषासन की अन्य रूकावटों की भी बाकायदा कांट-छांट हो। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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