Tuesday, November 8, 2016

दिल्ली के आकाश में तबाही का मंज़र

जब हम सुनियोजित एवं संकल्पित होते हैं तब प्रत्येक संदर्भ को लेकर अधिक संजीदे होते हैं पर यही संकल्प और नियोजन घोर लापरवाही का षिकार हो जाय तो वातावरण में ऐसा ही धुंध छाता है जैसा इन दिनों दिल्ली में छाया है। मनुश्य की प्राकृतिक पर्यावरण में दो तरफा भूमिका होती है पर विडम्बना यह है कि भौतिक मनुश्य जो पर्यावरण को लेकर एक कारक के तौर पर जाना जाता था आज वह सिलसिलेवार तरीके से अपना रूप बदलते हुए कभी पर्यावरण का रूपांतरकर्ता है तो कभी परिवर्तनकर्ता है अब तो वह विध्वंसकर्ता भी बन गया है। इसी विध्वंस का एक सजीव उदाहरण इन दिनों दिल्ली का आकाष है। राजधानी में दीपावली के बाद प्रदूशण का स्तर बढ़ने के चलते जीवन के मोल में भारी गिरावट इन दिनों देखी जा सकती है। सांस लेने में दिक्कत दमा और एलर्जी के मामले में तेजी से हो रही बढ़ोत्तरी इसका पुख्ता उदाहरण है। चिकित्सकों की राय है कि ऐसे मामलों की संख्या 60 फीसदी तक हो गयी है। बीते 17 सालों में सबसे खराब धुंध के चलते दिल्ली इन दिनों घुट रही है। सर्वाधिक आम समस्या यहां ष्वसन को लेकर है। इस बार धुंध की वजह से सांस लेने में गम्भीर परेषानी खांसी और छींक सहित कई चीजे निरंतरता लिए हुए है। स्थिति को देखते हुए उच्च न्यायालय को यहां तक कहना पड़ा कि यह किसी गैस चैम्बर में रहने जैसा है। प्रदूशण की स्थिति को देखते हुए निगम के करीब 17 सौ स्कूल बीते 5 नवम्बर को बंद कर दिये गये। स्कूल खुलने के दौरान अध्यापकों और छात्रों को कक्षा के बाहर न जाने और प्रार्थना मैदान के बजाय कक्षा में ही कराने के निर्देष भी दिये गये।
इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली एनसीआर और उसके आस-पास के इलाकों में हवायें जहरीली हो गयी हैं। अब इस जहरीली धुंध ने नोएडा, गाजियाबाद, गुरूग्राम, आगरा और लखनऊ को भी अपनी चपेट में ले लिया है। सबसे बेहाल दिल्ली में धुंध इतनी खतरनाक है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिन के 12 बजे भी सूरज की रोषनी इस धुंध को चीर नहीं पा रही है। यहां हवाओं का कफ्र्यू लगा हुआ है और दुकानों पर मास्क खरीदने वालों की भीड़। जब हवा में जहर घुलता है तो जीवन की कीमत भी बढ़ जाती है। सामान्य रूप से जन साधारण के लिए जीवनवर्धक पर्यावरण को किसी भी भौतिक सम्पदा से तुलना नहीं की जा सकती। मानव औद्योगिक विकास, नगरीकरण और परमाणु उर्जा आदि के कारण खूब लाभान्वित हुआ है परन्तु भविश्य में होने वाले अति घातक परिणामों की अवहेलना भी की है जिस कारण पर्यावरण का संतुलन डगमगा गया है और इसका षिकार प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूपों में मानव ही है। भूगोल के अन्तर्गत अध्ययन में यह रहा है कि वायुमण्डल पृथ्वी का कवच है और इसमें विभिन्न गैसें हैं जिसका अपना एक निष्चित अनुपात है मसलन नाइट्रोजन, आॅक्सीजन, कार्बन डाईआॅक्साइड आदि। जब मानवीय अथवा प्राकृतिक कारणों से यही गैसें अपने अनुपात से छिन्न-भिन्न होती हैं तो कवच कम संकट अधिक बन जाती है। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो आने वाले कुछ दिनों तक दिल्ली में फैले धुंध से छुटकारा नहीं मिलेगा। सवाल उठता है कि क्या हवा में घुले जहर से आसानी से निपटा जा सकता है। फिलहाल हम मौजूदा स्थिति में बचने के उपाय की बात तो कर सकते हैं। स्थिति को देखते हुए कृत्रिम बारिष कराने की सम्भावना पर भी विचार किया जा रहा है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री की माने तो राश्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूशण के खास स्तर के लिए दिल्ली सरकार जिम्मेदार है क्योंकि 80 प्रतिषत से अधिक प्रदूशण दिल्ली के कचरे को जलाने से हुआ है। 
अब प्रदूशण के चलते आपे से बाहर हो गयी दिल्ली को लेकर सियासत भी रंगदारी दिखा रही है। एतियाती उपाय के तौर पर कह दिया गया है कि जितना हो सके लोग घरों में रहें। सभी सामान्य रिपोर्टों का निश्कर्श यही है कि दिल्ली का प्रदूशण अपनी उस सीमा पर चला गया है जहां से मनुश्य की सहनषीलता जवाब दे देती है। यह महज़ आंकड़ों का खेल नहीं है बल्कि सबके लिए डरावनी स्थिति पैदा करने वाला भी है। दिल्ली सरकार के मुखिया केजरीवाल प्रदूशण को आपातकालीन स्थिति मानते हुए जो कुछ कर रहे हैं उसका कितना असर होगा यह देखने वाली बात है। दरअसल केजरीवाल ने 5 दिनों तक किसी प्रकार के निर्माण या तोड़-फोड़ की कार्यवाही पर रोक लगाने की बात कही है। अस्पतालों एवं मोबाइलों के टावरों को छोड़ सभी जनरेटर सेट चलाने पर दस दिन की बंदिष है। यहां तक की बदरपुर प्लांट से इतने ही दिनों तक राख भी नहीं उठाई जायेगी। बेषक केजरीवाल के इस प्रयास के चलते कुछ हद तक प्रदूशण के स्तर में तो कमी आयेगी पर जिस बुलंदी पर दिल्ली के आकाष में प्रदूशण तैर रहा है उसे देखते हुए इतने प्रयास नाकाफी लगते हैं। कृत्रिम बारिष का उपाय भी पूरी तरह कारगर है इस पर भी अभी बातें कुछ अस्पश्ट सी हैं। नेषनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने प्रदूशण के मामले को लेकर दिल्ली सरकार को फटकार लगाई है और कहा है कि उसे स्टेटस रिपोर्ट दे। ट्रिब्यूनल की तल्खी इस कदर है कि उसने केजरीवाल को यहां तक कहा कि आप सिर्फ मीटिंग करने में व्यस्त हैं जबकि प्रदूशण रोकने में कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं। फिर सवाल उठता है कि पर्यावरण की स्वच्छता को लेकर क्या केवल दिल्ली सरकार की लानत-मलानत से पूरा समाधान मिलेगा। प्रदूशण को फैलाने वाले जिम्मेदार लोग कहां गये इस प्रष्न की भी तलाष होनी चाहिए। 
रोषनी का त्यौहार दीपावली में फूटे पटाके और उससे फैले प्रदूशण के चलते आंखों के आगे अंधेरा छा जायेगा इसकी कल्पना षायद ही किसी को रही हो। यह बात भी मुनासिब है कि जिस विन्यास के साथ सामाजिक मनुश्य, आर्थिक मनुश्य तत्पष्चात् प्रौद्योगिक मानव बना है उसकी कीमत अब चुकाने की बारी आ गयी है। विज्ञान एवं अत्यधिक विकसित, परिमार्जित एवं दक्ष प्रौद्योगिकी के प्रादुर्भाव के साथ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में औद्योगिक क्रान्ति का 1860 में सवेरा होता है। इसी औद्योगिकीकरण के साथ मनुश्य और पर्यावरण के मध्य षत्रुतापूर्ण सम्बंध की षुरूआत भी होती है तब दुनिया के आकाष में प्रदूशण का सवेरा मात्र हुआ था। एक सौ पचास वर्श के इतिहास में प्रदूशण का यह सवेरा कब प्रदूशण की आधी रात बन गयी इसे लेकर समय रहते न कोई जागरूक हुआ और न ही इस पर युद्ध स्तर पर काज हुआ। विकसित और विकासषील देषों के बीच इस बात का झगड़ा जरूर हुआ कि कौन कार्बन उत्सर्जन ज्यादा करता है और किसकी कटौती अधिक होनी चाहिए। 1972 के स्टाॅकहोम सम्मेलन, मांट्रियल समझौते से लेकर 1992 एवं 2002 के पृथ्वी सम्मेलन, क्योटो-प्रोटोकाॅल तथा कोपेन हेगेन और पेरिस तक की तमाम बैठकों में जलवायु और पर्यावरण को लेकर तमाम कोषिषें की गयी पर नतीजे क्या रहे? कब पृथ्वी के कवच में छेद हो गया इसका भी एहसास होने के बाद ही पता चला। हालांकि 1952 में ग्रेट स्माॅग की घटना से लंदन भी जूझ चुका है। कमोबेष यही स्थिति इन दिनों दिल्ली की है। उस दौरान करीब 4 हजार लोग मौत के षिकार हुए थे। कहा तो यह भी जा रहा है कि यदि धुंध का फैलाव दिल्ली में ऐसा ही बना रहा तो अनहोनी को यहां भी रोकना मुष्किल होगा। सीएसई की रिपोर्ट भी यह कहती है कि राजधानी में हर साल करीब 10 से 30 हजार मौंतो के लिए वायु प्रदूशण जिम्मेदार है इस साल तो यह पिछले 17 साल का रिकाॅर्ड तोड़ चुका है। ऐसे में इस सवाल के साथ चिंता होना लाज़मी है कि आखिर इससे निजात कैसे मिलेगी और इसकी जिम्मेदारी सबकी है यह कब तय होगा?


सुशील कुमार सिंह


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