Wednesday, November 23, 2016

सत्ता बनाम विपक्ष और जनता

नोटबंदी आखिरी कदम नहीं है इस वक्तव्य के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी के फैसले के विरूद्ध अभियान चलाने वालों को एक और झटका दिया है। लोकतंत्र में हमेषा से सत्ताधारकों की एक खूबी साहसिक निर्णय लेने वाली भी रही है पर ऐसा साहस जो जोखिम से भरा हो और जिसे लेकर विपक्ष भी खूब बेचैन हो जाये ऐसा पहले देखने को नहीं मिला है। बीते 8 नवम्बर को नोटबंदी को लेकर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा एक साहसिक पहल की गयी और तभी से वे जनता से संवाद स्थापित करने को लेकर और संवेदनषील भी हो गये हैं। नोटबंदी के निर्णय के तुरंत बाद मोदी तीन दिवसीय यात्रा पर जापान गये और जब उनकी भारत में वापसी हुई तब इस बात का उन्हें भी अंदाजा हो चुका था कि नोटबंदी के फैसले से देष की जनता क्या और कैसा महसूस कर रही है। गोवा में दिये गये भाशण से कई बातें स्पश्ट हो गयी थी साथ ही भावनाओं पर काबू रखते हुए उन्होंने जनता से 50 दिन देने की अपील भी दोहराई थी। उत्तर प्रदेष के गाजीपुर के सम्बोधन में भी कुछ इसी प्रकार जन लगाव मोदी के भाशण में झलका। नोटबंदी के प्रकरण को एक पखवाड़ा बीत चुका है। बैंकों और एटीएम के सामने कतारों में संख्या तुलनात्मक कम हुई है परन्तु समस्याएं कई रूपों में अभी भी विद्यमान है। नोटबंदी को लेकर 23 नवम्बर को जंतर-मंतर पर पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने धरना दिया जिसमें षरद यादव सहित कुछ विपक्षी चेहरे भी दिखे जबकि इसके पहले संसद से राश्ट्रपति भवन का मार्च भी ममता बनर्जी के नेतृत्व में हो चुका है। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, बसपा समेत आप नोटबंदी के मामले में मोदी सरकार को निरंतर घेरने में लगे हैं। देखा जाय तो नोटबंदी के चलते जनता कुछ हद तक परेषानी में तो है बावजूद इसके निर्णय आज भी सराहे जा रहे हैं। काली कमाई वालों के लिए यह निर्णय किसी विपदा से कम नहीं है। सर्वे भी बताते हैं कि अगर विपक्ष के दबाव में आकर मोदी सरकार यह फैसला वापस लेती है तो मोदी समर्थकों को इससे गहरा झटका लगेगा। जाहिर है अब इंच भर भी पीछे हटना मुष्किल भरा काज होगा।
प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष के विरोध के बीच नये आयामों के साथ आगे बढ़ रहे हैं। दरअसल मोदी जानते हैं कि 15 फीसदी को छोड़कर बाकी भारत उनके साथ है। ऐसा सर्वे भी बता रहे हैं। हालांकि विपक्ष की लानत-मलानत से भी सरकार कम नहीं जूझ रही है। इन सबके बीच मोदी ने जनता से भी दस सवाल पूछे हैं। ऐसा कभी नहीं देखा गया कि अपने निर्णयों के प्रति भारी-भरकम सरकारों ने इतनी तत्परता दिखाई हो और जनता की इच्छा जानने की कोषिष की हो। जिन 10 सवालों को लेकर जनता की राय मांगी गयी है उसमें कुछ हां, ना में तो कुछ का लिखित रूप में जवाब दिया जा सकता है। सवालों की फेहरिस्त में पहला सवाल ऐसा है जिससे जनता में हमेषा उबाल रहा है। सवालों की सूची यहां से षुरू होती है क्या आप मानते हैं कि भारत में काला धन है, क्या आप सोचते हैं कि काले धन और भ्रश्टाचार से लड़ना और खत्म करना जरूरी है, काले धन से निपटने के लिए सरकार के इस कदम को आप कैसे देखते हैं और भ्रश्टाचार को लेकर सरकार के अब तक के प्रयासों पर आपकी क्या राय है। इसी प्रकार सवाल सूचीबद्ध होते हुए 10 सवाल तक पहुंचते हैं आखिर में यह पूछा गया है कि क्या आपके पास कोई सुझाव है जो आप प्रधानमंत्री से साझा करना चाहते हैं। इस अन्तिम सवाल के माध्यम से यह भी कोषिष की गयी है कि देष के किसी भी नागरिक के पास यदि कोई बेहतरीन उपाय है तो उससे वह उसे प्रधानमंत्री से साझा कर सकता है। उपरोक्त से यह भी स्पश्ट होता है कि सरकार अपने निर्णयों को लेकर जनता को यह संदेष भी देना चाहती है कि यह उनके हित में लिया गया एक बड़ा फैसला है और जनता किसी प्रकार का असमंजस न पाले। 22 नवम्बर का प्रधानमंत्री का सम्बोधन इसका पुख्ता प्रमाण है। 
फिलहाल तमाम दृश्टिकोण इस ओर भी इषारा कर रहे हैं कि नोटबंदी के निर्णय के चलते यदि समस्याओं को समय रहते हल नहीं किया गया तो यह आने वाले चुनाव के लिए जोखिम भरा कदम भी हो सकता है। हालांकि 22 नवम्बर को ही उपचुनाव के नतीजे घोशित हुए हैं। जिसमें नोटबंदी का असर सकारात्मक ही देखने को मिलता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार जनहित को लेकर संजीदा है पर होमवर्क को लेकर थोड़ी कमजोर भी है। मोदी जानते हैं कि नोटबंदी का मसला आगामी विधानसभा चुनाव के लिए जोखिम भरा भी हो सकता है और वे इसे भी जानते हैं कि इसमें 85 फीसदी नागरिकों की भलाई छुपी है और वे उनके साथ हैं। ऐसे में उनके मनोबल को फिलहाल कोई खतरा दिखाई नहीं देता है और जिस अंदाज में वो जनता को समझा-बुझा रहे हैं और संवाद स्थापित कर रहे हैं उससे भी स्पश्ट है कि जनता का प्रधानमंत्री जनता के बीच संवाद के माध्यम से दूध का दूध, पानी का पानी करना चाहता है। वैष्विक परिदृष्य में देखें तो नोटबंदी के निर्णय पहले भी कई देषों में हुए हैं। घाना से लेकर सोवियत संघ तक पहले ऐसा हो चुका है और इसे लेकर कई खट्टे-मीठे अनुभव भी देखे जा सकते हैं। टैक्स चोरी और भ्रश्टाचार रोकने के उद्देष्य से घाना में 1982 में 50 सेडी के नोटों को बन्द कर दिया गया था। 1984 में नाइजीरिया तथा वर्श 1987 में पड़ोसी म्यांमार भी नोटबंदी पर कदम उठा चुका है। जब म्यांमार द्वारा 80 फीसदी मुद्रा को अमान्य किया गया तब इस कदम से गुस्सा और विरोध के साथ लोग सड़कों पर उतरे थे जैसा कि बीते कुछ दिन पहले कुछ राजनीतिक पार्टियां सड़क पर विरोध प्रदर्षन कर रही थी। खास यह भी है कि भारत में पांच सौ और हजार के नोट बंद होने से 86 फीसदी मुद्रा अमान्य घोशित हुई है जो किसी भी नोटबंदी करने वाले देष की तुलना में सर्वाधिक प्रतीत होती है। वर्श 1991 में सोवियत संघ के राश्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव भी अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए 50 और 100 रूबल को वापस ले लिया था हालांकि वे इस कदम से महंगाई पर काबू नहीं रख पाये और लोगों का विष्वास भी उनके प्रति घटा। अन्ततः सोवियत संघ के विखण्डन में भी इसे एक वजह के तौर पर देखा जाता है।
वर्श 1991 की 24 जुलाई को भारत में आर्थिक उदारीकरण की लकीर खींची गयी थी। 25 वर्श के इस उदारीकरण के बाद जिस मोड़ पर भारत आज खड़ा है कईयों का मानना है कि वहां से इसे दस कदम और आगे होना चाहिए था परन्तु काला धन और भ्रश्टाचार के चलते ऐसा सम्भव नहीं हो पाया। इसी से निपटने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी का फरमान सुनाया है। जिसे लेकर मौजूदा समय में अफरा-तफरी का माहौल बना हुआ है। कई इसे आर्थिक आपात तो कई इस निर्णय से कुछ नहीं होगा जैसी बातें भी कह रहे हैं। विष्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनोमिस्ट और यूपीए सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार का कहना है कि भारत में जीएसटी अर्थव्यवस्था के लिए ठीक था परन्तु नोटों को रद्द किया जाना ठीक नहीं है। भारत की अर्थव्यवस्था काफी जटिल है और इसके फायदे के मुकाबले व्यापक नुकसान उठाना पड़ेगा परन्तु कई अर्थषास्त्री यह मानते हैं कि बेहतर अर्थव्यवस्था के लिए और फैली अव्यवस्था को ठीक करने के लिए ऐसे निर्णय की आवष्यकता थी। दो टूक यह भी है कि भले ही इसके तात्कालिक प्रभाव परेषानी में डालने वाले हों पर दीर्घकाल में यह अर्थव्यवस्था को बड़ी ऊँचाई दे सकता है जहां से सब कुछ व्यवस्थित होना आसान होगा। बावजूद इसके सरकार इसके साइड इफैक्ट पर भी नजरे गड़ाई होगी। 

सुशील कुमार सिंह

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