Wednesday, November 16, 2016

इस शीत सत्र का मर्म और दर्शन

वैज्ञानिक प्रबंध के जनक एफ. डब्ल्यू. टेलर जब इस बात के लिए निराष हुए कि तमाम फायदेमंद सिद्धांत देने के बावजूद सभी उनकी आलोचना करते हैं तब उनके एक घनिश्ठ मित्र ने कहा था कि टेलर तुम्हारी उपलब्धियों को सभी सराहते हैं और आलोचना उस बात के लिए करते हैं जो तुमने किया ही नहीं है। ठीक इसी तर्ज पर इन दिनों मोदी सरकार को घेरने की कोषिष की जा रही है। जब से नोटबंदी वाला निर्णय आया है तब से कई विरोधी दलों का सुर सरकार के विरोध में और सरकार का रूख जनमानस के मान-मनव्वल की ओर कहीं अधिक झुक गया है। गोवा से लेकर गाजीपुर तक प्रधानमंत्री का सम्बोधन इस बात को पुख्ता करते हैं। गौरतलब है कि भले ही नोटबंदी के निर्णय को लेकर देष में अफरा-तफरी का माहौल हो पर अधिकतर का यह मानना है कि सरकार के इस निर्णय में दम है और काली कमाई वालों पर करारा आघात परन्तु नोटों की अदला-बदली के चलते जो दिक्कतें बढ़ी है उससे न केवल विरोधियों को सरकार घेरने का अवसर मिला है बल्कि जनता की भी दिनचर्या इन दिनों बैंकों और एटीएम के इर्द-गिर्द खप रही है। अभी यह मामला जमा एक हफ्ता बीता था कि संसद का षीतकालीन सत्र भी 16 नवम्बर से षुरू हो गया। हालांकि यह पहले से निर्धारित एक प्रक्रिया है पर इसमें कोई षक नहीं कि गरम माहौल में आहूत षीत सत्र को काफी झमेले झेलने पड़ेंगे। फिलहाल नोटबंदी का मामला सत्र के कोर में रहेगा और इसकी बानगी पहले दिन के तल्ख तेवरों से साफ झलकती है। जिस तर्ज पर विरोधियों ने संसद से लेकर राश्ट्रपति भवन तक मार्च किया और अपने इरादे जता दिये हैं साथ ही संसद में पहले ही दिन दिख रहे तेवरों से भी साफ है कि सरकार को भी डिफेन्सिव मोड के बजाय अफेन्सिव मोड में उतरना पड़ सकता है।
मोदी षासनकाल के आलोक में यदि इस षीत सत्र को परखें तो यह तीसरा होगा। इसके पहले वर्श 2014 के षीत सत्र को कामकाजी दृश्टि से काफी बेहतर करार दिया गया था। हालांकि इसमें भी कम अड़ंगेबाजी नहीं रही। पूर्ण बहुमत से युक्त मोदी सरकार की एक परेषानी हमेषा से रही है कि उसका राज्यसभा में संख्या बल का कम होना। षीत सत्र के मर्म और दर्षन को उजागर किया जाय तो 2015 का षीत सत्र उत्पादकता की दृश्टि से बोझ कम ही उतार पाने में सफल हुआ था। जहां लोकसभा में 13 विधेयकों पर बात बनी थी वहीं राज्यसभा कमतर रहते हुए 9 विधेयक तक ही सीमित रहा। बहुचर्चित और सरकार की महत्वाकांक्षी विधेयक जीएसटी को इस सत्र से भी निराषा मिली थी। हालांकि अब यह अधिनियमित हो चुका है। एक सच्चाई यह भी है कि असहिश्णुता के आरोप और पुरस्कार वापसी की होड़ के चलते पिछला षीत सत्र जिस तापमान पर पहुंच गया था उससे भी यह साफ होता है कि स्पश्ट बहुमत के बावजूद लोकतंत्र में विरोध के लिए व्यापक रिक्तता हमेषा कायम रहती है। कहा जाय तो साल 2015 का षीत सत्र उम्मीदों पर उतना खरा नहीं उतरा था इस अफसोस के साथ कि कांग्रेस ने काफी विघ्न डाला और रचनात्मक के बजाय नकारात्मक सियासत को पोशित किया था इसी समय नेषनल हेराल्ड का मामला भी उठा था। रही सही कसर इसके चलते पूरी हो गयी थी। सवाल है कि जब देष में समस्याएं आती हैं तो संसद में सवाल खड़े किये जाते हैं पर इसका जवाब कहां मिलेगा कि जब संसद में ही कई सवाल खड़े हो जायें। 
मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने पांच सौ और हजार रूपए के नोट बंद किये जाने को लेकर काम रोको प्रस्ताव लाने का नोटिस इस षीत सत्र में पहले ही दे चुकी है। राज्यसभा में पार्टी के उपनेता आनंद षर्मा ने नियम 267 के तहत ऐसा किया। सत्र के पहले दिन राज्यसभा में बोलते हुए उन्होंने नोटबंदी के मसले को लेकर सरकार की काफी लानत-मलानत की है और कहा है कि इससे छोटे-मोटे व्यापारियों सहित कईयों में लेनेदेन की दिक्कतें बढ़ी हैं। उन्होंने दो हजार रूपए के जारी नये नोट पर चुटकी लेते हुए इसे चूरन वाला नोट भी कहा। विपक्ष के हमले को सरकार भी समझ और बूझ रही है पर सरकार यह भी जानती है कि हो न हो उसे जनता का समर्थन मिल रहा है ऐसे में विपक्ष के दबाव में कदम वापिस खींचना सही संदेष नहीं जायेगा। गौरतलब है कि आगामी चार से पांच महीने के अंदर उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड एवं पंजाब समेत कुछ राज्यों में चुनाव होने हैं। यदि निर्धारित पचास दिन के अंदर नोटों की किल्लत से लोगों को मुक्ति दिला दी तो सरकार की जय-जयकार तो होगी ही साथ ही सियासी मैदान भी मारा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने देष की जनता से नोटबंदी से सम्बंधित अड़चनों को दूर करने को लेकर पचास दिन का वक्त मांगा है। हो सकता है कि पचास दिन में जनता की समस्याओं को सरकार हल भी कर दे पर इसमें कोई दो राय नहीं कि काली कमाई दबा कर रखने वाले लोगों के लिए यह नासूर लम्बा चलेगा। कई सियासी दल नोटंबदी के विरोध कर के भी जनता की ही भलाई की बात कर रहे हैं जिसमें कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, बहुजन पार्टी समेत कई दल षामिल हैं। फिलहाल इसमें भी कोई दो राय नहीं कि संसद में सरकार को घेरने की कोषिष भी खूब की जायेगी सरकार भी यह जानती है पर सरकार लोकतांत्रिक सीमाओं का ख्याल करते हुए विपक्ष को कैसी घुट्टी पिलायगी अभी इस पर कुछ स्पश्ट नहीं है। काला धन के खिलाफ यदि नोटबंदी है तो आम जनता इसमें क्यों पिस रही है यह सवाल भी संसद में सरकार से पूछा जायेगा। उन असुविधाओं का हिसाब कौन देगा और उन समस्याओं का जिम्मेदार कौन है जिसका गुनाह जनता ने किया ही नहीं और सड़क पर सजा भोग रही है। जाहिर है विपक्ष ऐसे तंज भरे प्रष्नों से सरकार को आहत करना चाहेगी। देखने वाली बात यह होगी कि नोटबंदी जैसे बड़े निर्णय लेने वाली मोदी सरकार विपक्ष को कैसे संतुश्ट कर पाती है। 
मोदी कार्यकाल के तीन षीत सत्रों में मसलन वर्श 2014, 2015 काफी गरम रहे हैं और अब 2016 इसी तापमान से जूझने वाला है। सत्र के वर्श बदले हैं पर आदत वही रही है विधेयक रोक जायेंगे क्योंकि उस पर राजनीति होगी। विमर्ष होंगे भले ही नतीजे न मिलें। इच्छा षक्ति भी दिखाई जायेगी भले ही उसके प्रति चाहत न हो। अन्तिम अवसरों तक यह प्रयास रहेगा कि विरोधी सरकार को हाषिये पर धकेल कर नोटबंदी के मामले पर सौदेबाजी करवा लें और सरकार की यह कोषिष रहेगी कि उसे इंच भर पीछे न हटना पड़े। निजी प्रष्न भी दागे जायेंगे जो संसदीय पाठ्यक्रम के हिस्से षायद नहीं होंगे। कमोबेष लोकसभा में स्पीकर और राज्यसभा में सभापति होने वाले ऐसे बोझिल हंगामों से त्रस्त रहेंगे जिसके चलते बार-बार सदन भी रूकती रहेगी पर इस बात की किसे फिक्र होगी कि लोकसभा की एक घण्टे की कार्यवाही पर सरकारी खजाने से डेढ़ करोड़ और राज्यसभा में यही एक करोड़ दस लाख खर्च हो जाते हैं। यह आंकड़ा पिछले साल के आधार पर है। काली कमाई वाले जो सोचना वो सोचें पर जनता के टैक्स के पैसे से चलने वाली सदन का तो लिहाज़ माननीयों को रखना ही होगा। दो टूक यह भी है कि हर सत्र में कुछ ऐसे मुद्दे पनप जाते हैं जिसके चलते संसद को बंधक बना लिया जाता है। इस बार नोटबंदी का मामला कुछ इसी प्रकार का है। क्या इस बार भी कुछ ऐसा ही होने वाला है। बेषक देष के प्रतिनिधियों को जनता की भलाई के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है पर ख्याल रहे कि विरोध सियासी मैदान पर न हो कर जनहित के पिच पर हो। 

सुशील कुमार सिंह


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