Tuesday, November 22, 2016

सोशल इंजीनियरिंग के साधक

आगामी कुछ महीनों में देष के सबसे बड़े प्रदेष उत्तर प्रदेष समेत उत्तराखण्ड एवं पंजाब जैसे प्रांतों में विधान सभा का चुनाव होना है और राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने को लेकर अभियान भी छेड़ दिया है।  गौरतलब है कि उत्तर प्रदेष में पूर्ण बहुमत के साथ समाजवादी पार्टी जब 2012 में बसपा से सत्ता हथियाई थी तब भी भाजपाई अपने पक्ष में सत्ता परिवर्तन के कसीदें गढ़ रहे थे। जबकि उन दिनों मायावती से सत्ता फिसल कर भारी भरकम बहुमत के साथ अखिलेष यादव के हाथों में आ गई थी। इस बार भी भाजपा प्रधानमंत्री मोदी और अमित षाह के बूते यूपी में करिष्में के इंजतार में है पर सच्चाई यह है कि यूपी की सियासत से भाजपा दषकों से दूर खड़ी है और इसी मामले में कांग्रेस तीन दषक पीछे चल रही है। गौरतलब है कि तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रही षीला दीक्षित को यूपी में चेहरा पेष कर महीनों पहले कांग्रेस बड़ी चाल चलने की कोषिष की पर सियासी हल्कों में षीला दीक्षित को हल्के तरीके से ही लिया गया। देखा जाए तो यूपी के सियासी क्षितिज से कांगे्रस बीते तीन दषकों से ओझल हो गई है जबकि भाजपा सत्ता की चाह में कड़े अभ्यास में जुटी रही लेकिन इस चासनी का स्वाद बसपा और सपा के बीच बनी रही। हलांकि इस बार मायावती का भी उतना व्यापक रसूक दिखायी नहीं दे रहा है। बीते 2014 के लोकसभा के चुनाव में बसपा का खाता न खुल पाना भी इसके सियासी समीकरण को काफी हद तक छिन्न-भिन्न किया है। इसके अलावा ऐसे दलों की एक समस्या यह भी है कि इनके पास दूसरी-तीसरी पंक्ति के नेतृत्व का घोर अभाव है। हलांकि यह बात कांग्रेस पर भी लागू होती है। यहां भी सोनिया और राहुल गांधी के अलावा दूसरी पंक्ति की कतार नहीं दिखायी देती। 
सियासी जमात और उससे उगे विचार से चुनाव जीते है । हलांकि कि इतना ही प्र्याप्त नहीं होता है कम से कम उत्तर प्रदेष के मामले में यह बात पूरी तरह पुख्ता है। यहां सियासत जाति और धर्म की ध्रुवीकरण से ओत-प्रोत है। बेषक सियासी मैदान मारने के लिए सभी एड़ी चोटी का जोर लगाते है और नैतिकता की धरातल पर अपने -अपने हिस्से की सभी कसीदें गढ़ते है पर सच्चाई यह है कि साफ राजनीति से सभी अछूते है। उत्तर प्रदेष से पृथक उत्तराखण्ड में भी सियासी बयार इन दिनों परवान चढ़ी हुई है। भाजपा के अध्यक्ष अमित षाह देहरादून, हरिद्वार और अब अल्मोड़ा से सत्ता परिवर्तन की चाह में जान फूंकने की कोषिष में लगे है। उत्तराखण्ड भारतीय जनता पार्टी के लिए ऐसा सिरदर्द है कि हर सूरत में यहां का सिहांसन चाहिए। अदालती लड़ाई हार चुकी केंद्र सरकार उत्तराखण्ड में अपना वाजूद बनाने के लिए काफी कुछ दांव पर लगायेगी षायद यहीं वजह है कि अमित षाह समेत कई केंद्रीय नेता की चहल कदमी और मंचीय भाशण यहां की फिजा में खूब गूंज रहे है। जिस परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण के साथ सियासत मजबूरी लिये रहती है उसका भी नजारा यहां देखा जा सकता है। कहे तो बिना उत्तराखण्ड में चेहरा पेष किए बिना भाजपा जिस रूप में आगे बढ़़ रही है और  कांगे्रस के जिस चेहरे से उसका मुकाबला है उसका वाजूद इस पहाड़ी राज्य में इतना असहज नहीं है कि जनता सिरे से नकारा दे। अदालती लड़ाई से पुनः सत्ता वापस पाने वाले हरीष रावत एक लोकप्रिय चेहरे के रूप में अपनी पैठ बनाने में कम कामयाब नहीं है । खास बात यह भी है कि उत्तराखण्ड की सियासत विकास के मुद्दे से प्रभावी रही है। हलांकि हरिद्वार और उधमसिंह नगर के कुछ मैदानी इलाके सोषल इंजीनियरिंग के चलते मैनेज किये जाते रहे है। 
भाजपा को उत्तर प्रदेष भी जीतना है जाहिर है असीमित पसीने वहां भी बहाने है। बीते 14 नवम्बर को प्रधानमंत्री मोदी गाजीपुर के आरटीआई मैदान से पूर्वांचल वासियों को अपनी सियासी जद में लाने की कोषिष कर चुके है। गौरतलब है कि पूर्वांचल की राजनीति साधने के फिराक में वर्श 2014 के लोकसभा चुनाव में बनारस को केंद्र में रखा था । इस बार विधानसभा चुनाव में केंद्र गाजीपुर परिलक्षित होता दिखाई दे रहा है। हलांकि कई इसे असफल रैली करार भी दे रहे है। फिलहाल राजनीति का यह लब्बो लुआब रहा है कि एक दूसरे के समीकरण को बिगाड़ने के लिए आरोप प्रत्यारोप लगते रहे है । फिलहाल 23 नवम्बर को गाजीपुर में ही सपा मुखिया मुलायम सिंह की रैली से  भाजपा को मुलायम सिंह की जमीनी हकीकत का अंदाजा हो गया होगा कि पूर्वांचल की सियासत में उनकी सोषल इंजीनियरिंग कितनी व्यपाक है। वैसे भाजपा पूर्वांचल फतह करने के लिए काफी जोर लगा रही है। कौमी एकता दल का सपा में विलय भी पूर्वांचल की सियासत लिए समाजवादियों को मजबूती का आधार दे सकता है पर यह तभी सफल माना जायेगा जब सपा मजबूती से चुनाव में बनी रहेगी। कहा तो यह भी जा रहा है कि भाजपा का मंसूबा सपा के गढ़ में सेंध लगाने का है। फिलहाल सियासी पैंतरे में कौन अव्वल है इसका लेखा-जोखा आगामी दिनों में हो जाएगा। बेषक सियासत का उतार-चढ़ाव किसी भी दल के हिस्से में चाहे जिस रूप में फैले पर लाख टके का सवाल यह बना रहेगा कि मतदाताओं के लिए कौन बेहतर षुभचिंतक है। समाजवादी की सत्ता  चला रहे अखिलेष यादव भी परिवारिक लड़ाई में फंस चुके है। इन पर भी परिवारवाद का आरोप लगता रहा है । रोचक यह भी है कि 2014 के लोकसभा के चुनाव में भाजपा अपने सहयोगी सहित 80 के मुकाबले 73 सीटें जीती थी जबकि दो सीटों पर गांधी परिवार यानि सोनिया और राहुल की जीत हुई थी जबकि बची पांच सीटों पर सपा के मुलायम परिवार के सदस्यों ने जीती थी। केन्द्र के सियासी क्षितिज पर जो आरोप सोनिया गांधी पर परिवारवाद का लगता रहा है कुछ ऐसा ही मुलायम सिंह यादव पर लगाया जाता है। 
खास यह भी है कि भाजपा से टक्कर लेने वाली सपा पारिवारिक झगड़े से लगभग उबर सी गई है। मुलायम, षिवपाल तथा अखिलेष अब एक मंच पर दिखायी देते है। जबकि राम गोपाल यादव की पार्टी में वापसी हो चुकी है।  जिस तर्ज पर पार्टी में एकजुटता का प्रयास सभी कर रहे है उससे भी यह संकेत मिलता है कि सियासी मैदान मारने को लेकर किसी में कोई अनबन नहीं है। समाजवादी पार्टी भी जानती है कि पूर्ण बहुमत से युक्त मायावती से जब 2012 में वे अपनी राजनीतिक ताकत के चलते सत्ता छीन कर स्वयं की मजबूत पूर्ण बहुमत वाली सरकार बना सकते है तो कोई दूसरा ऐसा क्यों नहीं कर सकता । दषकों से सत्ता से दूर भाजपा की सीधी लड़ाई फिलहाल सपा से ही दिखाई देती है। ऐसे में पारिवारिक लड़ाई से ऊपर उठकर सियासी जंग जीतने के लिए एकजुटता दिखानी होगी। हलांकि कि यहा बसपा को दरकिनार नहीं किया जा सकता क्योंकि उत्तर प्रदेष की सोषल इंजीनियरिंग का मिजाज यह रहा है कि जाति और उपजाति वोट के बहुत काम आये है। पिछड़ा दलित एवं मुस्लिम वोटों पर सभी सियासी दलों की नजर रही है और औसतन यह झुकाव जिस ओर अनुपात से अधिक हुआ है सत्ता की चासनी का स्वाद उसी दल ने लिया है। फिलहाल भाजपा की ओर से स्वयं मोदी एवं अमित षाह वोट प्रतिषत बढ़ाने के लिए सोषल इंजीनियरिंग के साधक सिद्ध हो सकते है जबकि सपा की ओर से यहीं काम मुलायम सिंह यादव समेत उनके कुछ चाहीते कर सकते है। बसपा के लिए भी इस बार का चुनाव आसान नहीं होने वाला । रही बात कांगे्रस की तो उसका वजूद यूपी में आज भी फीका है सबके बावजूद अभी पार्टियों का गठबंधन और महागठबंधन का होना बाकी है। यदि ऐसा हुआ तो भविश्य में सियासी तेवर बदल सकते है। 




सुशील कुमार सिंह


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