Tuesday, August 9, 2016

संविधान की जीत पर हार किसकी!

बीते 4 अगस्त को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दिल्ली की संवैधानिक स्थिति स्पश्ट कर देने के पष्चात् यह साफ हो गया कि भारत की राजधानी दिल्ली एक केन्द्रषासित प्रदेष है और यहां का प्रषासनिक प्रमुख उपराज्यपाल है तथा उसी की चलेगी भी। फरवरी 2015 से दिल्ली की सत्ता पर काबिज अरविन्द केजरीवाल और उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच कामकाज को लेकर लम्बे समय से खींचातानी चल रही थी। अब हाईकोर्ट के कथन के बाद दिल्ली की तस्वीर क्या होगी इसके भी संकेत मिल चुके हैं। हालांकि दिल्ली सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है। यदि षीर्श अदालत दिल्ली हाईकोर्ट के स्पश्टीकरण को ही बनाये रखती है तो केजरी सरकार के काम-काज से जुड़ी मुसीबतें कम नहीं होंगी। ऐसे में उन वायदों का क्या होगा जिसे करके केजरीवाल ने सत्ता हथियाई थी। आम आदमी पार्टी जब से दूसरी बार दिल्ली में काबिज हुई है उसके कुछ अर्से बाद ही केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाती रही है कि मोदी सरकार उन्हें काम करने नहीं देती। इतना ही नहीं समाचार पत्रों एवं टेलीविजन के विज्ञापनों में भी यह स्लोगन देखने को मिलता रहा है कि ‘वो परेषान करते रहे, हम काम करते रहे‘। उपराज्यपाल नजीब जंग और केजरीवाल के बीच सीधी जंग भी गाहे-बगाहे होती रही है और नजीब जंग पर यह आरोप रहा है कि केन्द्र सरकार के इषारे पर वे केजरी सरकार के लिए मुसीबत खड़ा करते हैं लेकिन जब लड़ाई न्यायालय की चैखट पर पहुंची तब जो सुनने को मिला उससे केजरीवाल सरकार असहज जरूर हुई होगी। असल में 23 सितम्बर, 2015 को अदालत ने सीएनजी फिटनेस घोटाले की जांच के लिए गठित न्यायिक आयोग को चुनौती देना, उपराज्यपाल द्वारा दानिक्स अधिकारियों को दिल्ली सरकार के आदेष न मानना, एसीबी के अधिकार को लेकर जारी केन्द्र सरकार की अधिसूचना एवं डिस्काॅम में निवेषकों की नियुक्ति को चुनौती सहित अन्य मामलों में प्रतिदिन सुनवाई करने का फैसला लिया था। इसी वर्श के 24 जुलाई को अदालत में दिल्ली सरकार की उस याचिका को जिसमें इन मामले की सुनवाई पर रोक लगाने की मांग की गई थी पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। इस बीच दिल्ली सरकार इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी गयी पर न्यायालय ने याचिका पर सुनवाई करने से मना कर दिया था। अब दिल्ली हाईकोर्ट के कठोर तेवर के बाद दिल्ली सरकार एक बार फिर षीर्श अदालत से उम्मीद लगा रही है। 
दिल्ली हाईकोर्ट उपराज्यपाल को प्रमुख मानते हुए कहा कि दिल्ली मंत्रिमण्डल अगर कोई फैसला लेता है तो उसे उपराज्यपाल के पास भेजना होगा। हालांकि अमूमन ऐसा सभी राज्यों में होता है पर यहां अलग यह है कि यदि राज्यपाल उस पर भिन्न दृश्टिकोण रखते हैं तो इस संदर्भ में केन्द्र सरकार की राय की जरूरत पड़ेगी जो कामकाज के लिहाज़ से सामान्य राज्यों में नहीं होता है फिर भी कुछ मामलों में यहां भी राज्यपाल को षक्ति है कि वे ऐसे विधेयकों को राश्ट्रपति के लिए सुरक्षित रख सकते हैं जो संसदीय अधिनियम और संविधान का अतिक्रमण करते हों। चूंकि उपराज्यपाल दिल्ली के प्रषासनिक प्रमुख हैं ऐसे में नीतिगत फैसले बिना उनसे संवाद किये नहीं लिये जायेंगे। उक्त के आलोक में यह स्पश्ट होता है कि 70 विधायकों वाली दिल्ली की मंत्रिपरिशद आम राज्यों की भांति तो कतई नहीं है। जाहिर है जिस तर्ज पर संविधान दिल्ली सरकार को अधिकार देता है उससे साफ है कि दिल्ली हाईकोर्ट का कथन सौ फीसदी सही है। दिल्ली क्या है, दिल्ली को लेकर विषेश उपबंध क्या हैं आदि पर भी गौर करने की जरूरत है। दरअसल 1991 में 69वें संविधान संषोधन अधिनियम द्वारा संविधान में अनुच्छेद 239(कक) और 239(कख) जोड़कर दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र को राश्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का दर्जा दिया गया और दिल्ली के संदर्भ में विषेश उपबंध किये गये थे। यहां की विधानसभा को राज्यसूची और समवर्ती सूची के विशयों में कानून बनाने की वैसी ही षक्ति प्राप्त है जैसे कि अन्य राज्यों को। अनुच्छेद 239कक(5) के अुनसार दिल्ली राजधानी क्षेत्र के मुख्यमंत्री की नियुक्ति राश्ट्रपति करेगा का उल्लेख मिलता है जबकि अन्य प्रान्तों के मामले में नियुक्ति राज्यपाल करता है। जाहिर है कि उपराज्यपाल राश्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में संघ राज्य क्षेत्र का प्रषासन करता है। ऐसे में उपराज्यपाल को वरीयता देना स्वतः प्रत्यक्ष होता है।
दिल्ली की संवैधानिक स्थिति जिस प्रकार है उसे देखते हुए स्पश्ट है कि केजरीवाल कम से कम मनमानी तो नहीं कर पायेंगे। हालांकि एक सरकार के नाते केजरीवाल उन तमाम सीमाओं को समझ रहे होंगे जो उनके अधिकारक्षेत्र में है पर षायद वे दिल्ली को उत्तर प्रदेष या मध्य प्रदेष जैसे प्रांत की तरह चलाना चाहते हैं जो कि संवैधानिक बाधाओं के चलते सम्भव नहीं है। गौरतलब है कि केजरीवाल कानूनी लड़ाई के साथ पूर्ण राज्य के दर्जे को लेकर भी सत्ता के दिन से ही संघर्श कर रहे हैं। पर वे दोनों मोर्चे पर परास्त होते हुए भी दिखाई दे रहे हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से यह हार और पुख्ता हो जाती है। रही बात दिल्ली के विकास की तो यह बात समझ से परे है कि बीते ढ़ाई दषकों में भाजपा से लेकर कांग्रेस तक की सरकारें रही हैं पर जितनी खटपट केजरीवाल को लेकर देखी जा रही है उतनी कभी न थी। 70 के मुकाबले 67 विधायकों से युक्त आम आदमी पार्टी की सरकार चला रहे केजरीवाल जिस तीव्रता से सियासत की बुलंदी को छुआ है, जिस प्रकार राजनीति में उनका आगाज हुआ था उसकी तुलना में उनकी गति तेज होगी ये सभी समझते थे पर विवाद और मतभेद इतने गहरे होंगे षायद ही किसी ने सोचा हो। यह पड़ताल का विशय है कि इस उतार-चढ़ाव के बीच दिल्ली की जनता का कितना भला हुआ है मगर इस सच्चाई से षायद ही किसी को गुरेज हो कि नौसिखिया दिल्ली सरकार को कई पचा नहीं पा रहे हैं। सियासी भंवर में अक्सर इस पार्टी के मंत्री से लेकर विधायक तक फंसाद में फंसते जा रहे हैं। दो टूक यह भी है कि नई सियासत जब जड़े जमाती है तो उसे इस प्रकार के थपेड़ों से गुजरना ही पड़ता है। सबके बावजूद एक सच्चाई यह है कि जिस प्रकार केजरीवाल की स्पीड पोलिटिक्स चल रही है उससे कई राश्ट्रीय पार्टियां सकून से नहीं बैठ सकती हैं। 
सबके बावजूद सवाल यह उठता है कि जब दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र के तौर पर आज भी बरकरार है तो एक चुनी हुई सरकार की वहां कितनी प्रासंगिकता रह जाती है। यदि चुनी हुई सरकार को जनता के किये गये वायदे के अनुपात में कार्य करने में व्यवधान है तो इसे दूर कौन करेगा। क्यों नहीं स्पश्ट रेखा खींचकर सरकार की हद बता दी जाय और रोज-रोज के झगड़े से दिल्ली को मुक्त कर दिया जाये। लाख टके का सवाल तो यह भी है कि जब अमेरिका की राजधानी वाषिंगटन डीसी को एक मेयर और 13 सदस्यीय काउंसिल चला सकता है और ब्रिटेन की राजधानी लंदन का स्थानीय प्रषासन ग्रेट लंदन अथोरिटी के जिम्मे हो जिसका संचालन एक मेयर के द्वारा होता है साथ ही विकास और पुलिस का जिम्मा भी हो। इतना ही नहीं फ्रांस की राजधानी पेरिस आदि ऐसी ही प्रषासनिक व्यवस्था से चलाये जा रहे हों तो आखिर भारत की राजधानी दिल्ली क्यों नहीं। दुनिया के बेहतरीन उदाहरण से युक्त देष की राजधानियां चन्द लोगों द्वारा चलायी जा रही हैं तो भारत में भारी-भरकम सरकार की जहमत क्यों उठाई गयी। यदि ऐसा संविधान सम्मत है भी तो भी अधिकारों की लड़ाई को समाप्त करने के लिए अब तक सरहद क्यों नहीं बनाई गयी। यह भी सही है कि दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से संविधान की ही जीत हुई है पर केजरीवाल और नजीब जंग के बीच कोई नहीं हारा है। बावजूद इसके अच्छे विचार और अच्छी धारणा तथा उपजाऊ दृश्टिकोण की जरूरत अभी भी दिल्ली को है। 



सुशील कुमार सिंह

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