Thursday, August 11, 2016

जहां गूंज उठी मेरी बेटी, मेरी पहचान

जब 22 जनवरी, 2015 को हरियाणा के पानीपत से प्रधानमंत्री मोदी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ‘ अभियान को प्रखर करने की कोषिष कर रहे थे तो उसी समय अनायास ही यह सवाल भी मन में पनपा था कि आखिर इस अभियान के लिए हरियाणा ही क्यों? ऐसा करने के पीछे एक वजह यह समझ में आई कि हरियाणा में पुरूशों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या सर्वाधिक न्यून है। इसके अतिरिक्त यहां के 70 गांव ऐसे हैं जहां एक भी लड़की नहीं जन्मीं साथ ही एक हजार पुरूशों पर 877 स्त्रियों का होना जबकि 6 वर्श से कम आयु में यह आंकड़ा 830 का है। कृशि विकास एवं समृद्धि के मामले में कई प्रदेषों की तुलना में कहीं बेहतर हरियाणा बच्चियों के मामले में हाषिये पर है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ‘ एक सरकारी सामाजिक योजना है जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने डेढ़ वर्श पहले हरियाणा के पानीपत से षुरू किया था जिसकी ब्रांड अम्बेसडर अभिनेत्री माधुरी दीक्षित भी मंच पर उपस्थित थी। इस योजना से न केवल बच्चियों की सुरक्षा हो रही है बल्कि उनकी षिक्षा का भी प्रबंध देखा जा सकता है। छोटी बच्चियों के मामले में बढ़ रहे असंतुलन को देखते हुए सभ्य समाज को संतुलित करार नहीं दिया जा सकता पर इस गिर रहे अनुपात के बीच बेटी बचाने की एक नई तरकीब झारखण्ड के जमषेदपुर के एक जनजातीय बाहुल गांव से दिखाई देती है। जहां ‘मेरी बेटी, मेरी पहचान‘ का नारा इन दिनों बुलंद है। दरअसल झारखण्ड के जमषेदपुर जिले से 26 किलोमीटर दूर एक जनजातीय बाहुल गांव तिरिंग है जो पोटका प्रखण्ड के जूड़ी पंचायत में पड़ता है। यहां की खासियत यह है कि सभी घरों की पहचान बेटियों से है। इस मुहिम से इलाके विषेश में न केवल लोगों में उत्साह है बल्कि बेटियों के प्रति लोगों का नजरिया भी सकारात्मक होते दिखाई दे रहा है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि ‘मेरी बेटी, मेरी पहचान‘ के इस मुहिम के चलते बेटियों का आत्मबल बढ़ेगा साथ ही महिला सषक्तिकरण को भी ऊर्जा मिलेगी।
देष में जहां ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ‘ की अवधाराणा को धरातल पर उतारने की कोषिष की जा रही है वहीं झारखण्ड के एक छोटे से जनजातीय गांव से मेरी बेटी, मेरी पहचान को जमीन पर उतारना बड़े नेक का काज कहा जा सकता है। वह इसलिए क्योंकि आंकड़े भी इस बात का समर्थन करते हैं कि यहां हजार बच्चों में 768 बच्चियां हैं जो निहायत चिंता का विशय है। झारखण्ड के तिरिंग गांव की सूरत बदलने में यहां के उपजिलाधिकारी संजय कुमार का जिक्र न किया जाय तो यह उनके प्रति अन्याय होगा। दरअसल संजय कुमार जमषेदपुर मुख्यमंत्री कैंप कार्यालय में पदास्थापित उपसमाहर्ता (उपजिलाधिकारी) हैं जिनकी यह सोच कि घरों की नेमप्लेट बेटियों और उनकी मां के नाम से किया जाय जो अपने आप में एक रोचक प्रसंग है साथ ही इस बात का भी संकेत है कि लिंग असमानता से निपटने के लिए इस प्रकार की कार्यप्रणाली बेहद अच्छी होने के साथ भविश्य के लिए कारगर सिद्ध हो सकती है। संजय कुमार की इस मुहिम को केवल क्षेत्र विषेश तक ही सीमित नहीं माना जा सकता। जिस तर्ज पर इन्होंने तिरिंग गांव की बेटियों को उभारने का प्रयास किया है उससे साफ है कि आने वाले दिनों में न केवल तिरिंग बल्कि पूरे झारखण्ड के साथ देष की सूरत खूबसूरत बदलाव ले सकती है। इससे लिंगानुपात से निपटने का रास्ता काफी हद तक आसान भी हो सकता है। अक्सर यह रहा है कि सकारात्मक पहल को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ा है। बेषक यह बात रोचक और हैरत से भरी है पर इसके पीछे कड़ी मेहनत भी उतनी ही षामिल है। अगर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ‘ को षुरूआत में 100 जिलों में लागू करके इसके निहित परिप्रेक्ष्य से देष भर में विस्तार देना था तो तिरिंग गांव से उठी आवाज ‘मेरी बेटी, मेरी पहचान‘ आने वाले दिनों में झारखण्ड समेत पूरे देष की गूंज बन सकती है और संजय कुमार जैसे नौकरषाहों के मनोबल को भी बढ़ाने में मदद मिलेगी। देष में जिस भांति नौकरषाही का रवैया है उसे देखते हुए भी झारखण्ड के इस अधिकारी की पहल को प्रमुखता से देखा जाना चाहिए। 
बरसों की चिंता खपाने के बावजूद अभी भी लिंगानुपात के मामले में मामला कमोबेष जस का तस बना हुआ है। हालांकि इस दिषा में दो वर्श से अधिक पुरानी मोदी सरकार पहल कर चुकी है और सामाजिक सोच बदलने की राह पर है। प्रति दस वर्श की दर से देष में जनगणना का चलन रहा है। स्वतंत्रता से लेकर अब तक सात बार जनगणना हो चुकी है। देष में बच्चियों और स्त्रियों की पुरूशों की तुलना में स्थिति कभी भी उत्साहवर्धक नहीं रहा। आंकड़ें इस बात को जताते हैं कि समाज ने स्त्री के फलने-फूलने में कम दिलदारी दिखाई है। चेतना और आधुनिकता ने काफी हद तक सामाजिक मनोविज्ञान में परिवर्तन किया है परन्तु आधी दुनिया का पूरा सच पूरी तरह प्राप्त होने में अभी भी कठिनाई बनी हुई है। स्वतंत्रता के बाद की पहली जनगणना में हजार पुरूशों की तुलना में स्त्रियों की संख्या 946 थी यह आंकड़ा 1971 आते-आते 930 हो गया जबकि 1981 में इसमें 4 की वृद्धि हुई परन्तु 1991 में यह 927 पर जाकर रूका। 21वीं सदी की पहली जनगणना जब 2001 में हुई तो स्त्रियों की पुरूशों की तुलना में स्थिति थोड़ी सुधरते हुए 933 की हो गयी। अब 2011 की जनगणना के हिसाब से यह 940 आंकी गई है जबकि 6 वर्श से कम की बच्चियां मात्र 914 हैं। मिजोरम जैसे राज्य में जहां बच्चियों की संख्या 971 है वहीं पंजाब, जम्मू-कष्मीर, राजस्थान, महाराश्ट्र आदि में इनकी संख्या का कम होना चिंता का सबब बना हुआ है। इतना ही नहीं झारखण्ड जैसे प्रान्तों मंे भी स्थिति बेचैन करने वाली है। इसके अलावा 46 फीसदी बच्चे कुपोशित हैं जिसमें 70 प्रतिषत लड़कियां ही हैं। जमषेदपुर के तिरिंग गांव का हाल भी काफी खराब है। 2011 की जनगणना के अनुसार बच्चियों की संख्या 768 जबकि साक्षरता दर भी यहां केवल 50 फीसदी ही है। उक्त आंकड़े के आलोक में यह भी संदर्भित होता है कि यहां साक्षरता, षिक्षा, सुरक्षा एवं पोशणता सभी की एक साथ आवष्यकता है। ऐसे में जरूरी है कि देष-प्रदेष में बच्चियों की हालत को पुख्ता बनाने के लिए समाकलित नीति पर काम किया जाय ताकि जीवन के सभी जरूरी पक्षों को उभारा जा सके। 
बेटियां किसी से कम नहीं हैं यह बात भी सिद्ध हो चुकी है। जरा ठहर कर यह भी सोचने की जरूरत है कि कौन सा काज ऐसा है जहां पर लड़कियों की भागीदारी सम्भव नहीं है।  फौज, पुलिस, सरकार, आईटी, खेलकूद, एवरेस्ट पर चढ़ना, अंतरिक्ष में जाना, षिक्षक, वैज्ञानिक और डाॅक्टर सहित तमाम तक इनकी पहुंच देखी जा सकती है। अचरज भरे आंकड़े यह भी है कि देष में 2011 की जनगणना के अनुसार एक हजार लड़कों पर 914 बच्चियां हैं। प्रखर बिन्दु यह भी है कि योजना के लिए चाहे जितनी आर्थिक सबलता दी जाय या फिर कोई और ताकत लगाई जाय परन्तु यह बिना मनो-सामाजिक सोच को बदले पूरी तरह कारगर सिद्ध नहीं हो पायेगीं देष में ऐसी योजनाओं को लेकर जो पहल की जा रही है और मोदी जिस दृश्टिकोण से अपनी बात कह रहे हैं इससे उम्मीद जगती है परन्तु जहां बच्चियों की पैदावार तत्पष्चात् सुरक्षा और उसके बाद षिक्षा का संकट खड़ा होता हो वहां कहीं अधिक मजबूती से घात करने की जरूरत भी है ताकि ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ‘ के कार्यक्रम को उस राह पर ले जाया जा सके जहां से संजय कुमार की सोच ‘मेरी बेटी, मेरी पहचान‘ की अवधारणा हकीकत में बदलती हो। फिलहाल सकारात्मक होने में कोई बुराई नहीं है। उम्मीद रखनी चाहिए कि भविश्य के नतीजे बेहतर हों।

सुशील कुमार सिंह


No comments:

Post a Comment