Friday, September 15, 2023

सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता और भारत

विदित हो कि संयुक्त राश्ट्र के संस्थापक सदस्यों में भारत भी षुमार था और अब तक वह संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद का आठ बार सदस्य भी रह चुका है। आखिरी बार साल 2021-22 में अस्थायी सदस्य के रूप में भारत अपना परचम लहराया था मगर पूरी योग्यता और व्यापक समर्थन के बावजूद अभी भी स्थायी सदस्यता की बाट जोह रहा है। गौरतलब है स्थायी सदस्यता के मामले में भारत दुनिया भर से समर्थन रखता है सिवाय एक चीन के। हालिया परिप्रेक्ष्य देखें तो ब्रिटेन सुरक्षा परिशद में विस्तार का समर्थन किया है और स्पश्ट किया है कि भारत, जापान, ब्राजील समेत अफ्रीकी देषों को संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद में स्थायी सीट दी जाये। इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले 77 वर्शों से चली आ रही इस व्यवस्था में अमूल-चूल परिवर्तन की मांग अक्सर उठती रही है। दुनिया कई प्रकार के आकार और प्रकार को ग्रहण कर लिया है मगर सुरक्षा परिशद 5 स्थायी मसलन अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस और रूस के अलावा 10 अस्थायी सदस्यों के साथ यथावत बना रहा। ऐसे में अब परिवर्तन का समय आ चुका है। हालांकि इसे लेकर बरसों से कवायद जारी है मगर नतीजे जस के तस बने रहे। असल में सुरक्षा परिशद की स्थापना 1945 की भू-राजनीतिक और द्वितीय विष्वयुद्ध से उपजी स्थिति को देखकर की गयी थी पर 77 वर्शों में पृश्ठभूमि अब अलग हो चुकी है। देखा जाय तो षीतयुद्ध की समाप्ति के साथ ही इसमें बड़े सुधार की गुंजाइष थी जो नहीं किया गया। 5 स्थायी सदस्यों में यूरोप का प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा है जबकि आबादी के लिहाज़ से बामुष्किल वह 5 फीसद स्थान घेरता है। अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका का कोई सदस्य इसमें स्थायी नहीं है जबकि संयुक्त राश्ट्र का 50 प्रतिषत कार्य इन्हीं से सम्बन्धित है। ढंाचे में सुधार इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि इसमें अमेरिकी वर्चस्व भी दिखता है। भारत की सदस्यता के मामले में दावेदारी बहुत मजबूत दिखाई देती है। जनसंख्या की दृश्टि से चीन को भी पछाड़ते हुए पहला सबसे बड़ा देष, जबकि अर्थव्यवस्था के मामले में दुनिया में 5वां साथ ही प्रगतिषील अर्थव्यवस्था और जीडीपी की दृश्टि से भी प्रमुखता लिए हुए है। ऐसे में दावेदारी कहीं अधिक मजबूत है। इतना ही नहीं भारत को विष्व व्यापार संगठन, ब्रिक्स और जी-20 जैसे आर्थिक संगठनों में प्रभावषाली माना जा सकता है। भारत की विदेष नीति तुलनात्मक प्रखर हुई है और विष्व षान्ति को बढ़ावा देने वाली है साथ ही संयुक्त राश्ट्र की सेना में सबसे ज्यादा सैनिक भेजने वाले देष के नाते भी दावेदारी सर्वाधिक प्रबल है। हालांकि भारत के अलावा कई और देष की स्थायी सदस्यता के लिए नपे-तुले अंदाज में दावेदारी रखने में पीछे नहीं है। जी-4 समूह के चार सदस्य भारत, जर्मनी, ब्राजील और जापान जो एक-दूसरे के लिए स्थायी सदस्यता का समर्थन करते हैं ये सभी इसके हकदार समझे जाते हैं। एल-69 समूह जिसमें भारत, एषिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई 42 विकासषील देषों के एक समूह की अगुवाई कर रहा है। इस समूह ने भी सुरक्षा परिशद् में सुधार की मांग की है। अफ्रीकी समूह में 54 देष हैं जो सुधारों की वकालत करते हैं। इनकी मांग यह रही है कि अफ्रीका के कम-से-कम दो राश्ट्रों को वीटो की षक्ति के साथ स्थायी सदस्यता दी जाये। उक्त से यह लगता है कि भारत को स्थायी सदस्यता न मिल पाने के पीछे मेहनत में कोई कमी नहीं है बल्कि चुनौतियां कहीं अधिक बढ़ी हैं। बावजूद इसके यदि भारत को इसमें षीघ्रता के साथ स्थायी सदस्यता मिलती है तो चीन जैसे देषों के वीटो के दुरूपयोग पर न केवल अंकुष लगेगा बल्कि व्याप्त असंतुलन को भी पाटा जा सकेगा।

संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में स्थायी सदस्यता को लेकर भारत बरसों से प्रयासरत् रहा है। अमेरिका और रूस समेत दुनिया के तमाम देष स्थायी सदस्यता को लेकर भारत पक्षधर भी हैं मगर यह अभी मुमकिन नहीं हो पाया है। पड़ताल बताती है कि भारत आठ बार अस्थायी सदस्य के रूप में सिलसिलेवार तरीके से 1950-51, 1967-68, और 1972-73 से लेकर 1977-78 समेत 1984-1985, 1991-1992 व 2011-2012 समेत 2021-2022 में भी सुरक्षा परिशद् में अस्थायी सदस्य रहा है। जहां तक सवाल स्थायी सदस्यता का है इस पर मामला खटाई में बना हुआ है। गौरतलब है कि पिछले अमेरिकी राश्ट्रपति चुनाव से पहले भारत में राजदूत रह चुके रिचर्ड वर्मा ने कहा था कि यदि जो बाइडेन राश्ट्रपति बनते हैं तो संयुक्त राश्ट्र जैसी अन्तर्राश्ट्रीय संस्थाओं को नया रूप देने में मदद करेंगे ताकि भारत को सुरक्षा परिशद में स्थायी सीट मिल सके। ध्यानतव्य हो कि जो बाइडेन अमेरिकी के राश्ट्रपति चुने भी गये और 20 जनवरी 2021 से बाकायदा सत्तासीन हैं मगर इस दिषा में अभी कुछ ऐसा होते हुए दिखा नहीं है। 4 जुलाई 2023 को संयुक्त राश्ट्र संघ में ब्रिटेन के स्थायी प्रतिनिधि बारबरा बुडवर्ड ने सुरक्षा परिशद के विस्तार का मुद्दा उठाने के साथ भारत समेत अन्य देषों को स्थायी सदस्यता की बात कहकर एक बार इस मामले को फिर फलक पर ला दिया है। फरवरी 2022 से रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध जारी है। पष्चिमी देष इस हालात से निपटने में नाकाम रहे हैं जबकि भारत इस मामले में कहीं अधिक सफल कूटनीतिक और राजनयिक नेतृत्व को बड़ा किया है। भारत के इस बदले वैष्विक परिप्रेक्ष्य में उभरे नेतृत्व ने उसे दुनिया के केन्द्र में खड़ा किया है। ऐसे में सुरक्षा परिशद में बहुत देर तक भारत को बाहर रखना वैष्विक हानि का संकेत है। पिछले 77 वर्शों में सुरक्षा परिशद कई बड़ी सफलता तो कई नाकामियों के साथ चहल कदमी की है। यह बात सकारात्मक है कि इसके गठन के बाद तृतीय विष्व युद्ध नहीं हुआ मगर दुनिया कई युद्धों से गुजरी है और वर्तमान में रूस और यूक्रेन के बीच यह जारी है। अमेरिका के नेतृत्व में 2003 में इराक पर आक्रमण, साल 2008 में रूस द्वारा जाॅर्जिया पर हमला, अरब-इजराइल युद्ध, 1994 में रवान्डा का नरसंहार, 1993 में सोमालिया का गृह युद्ध समेत मौजूदा रूस-यूक्रेन युद्ध इसकी विफलता की कहानी है। मगर कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर समाधान कर सुरक्षा परिशद ने अपनी साख को भी बड़ा किया है। मसलन 1950 में कोरियाई युद्ध, 1990 में कुवैत पर इराक का हमला, 1993 में बोस्निया और 2001 में अफगानिस्तान इत्यादि को लेकर प्रस्ताव पारित किये। खास यह भी है कि जब पी-5 अर्थात् सुरक्षा परिशद के 5 स्थायी सदस्यों वाले देषों के बीच कभी आमने-सामने का युद्ध नहीं हुआ जो सुरक्षा परिशद की सफलता ही कही जायेगी। हालांकि एक स्थिति ऐसी भी आयी थी जब पी-5 देष 1962 में क्यूबा के मिसाइल संकट के दौरान आमने-सामने हो सकते थे लेकिन संयुक्त राश्ट्र की कूटनीतिक पहल ने हालात से सही तरीके से निपट लिया था।  

फिलहाल भारत को स्थायी सदस्यता की आवष्यकता क्यों है और यह मिल क्यों नहीं रही है और इसके मार्ग में क्या बाधाएं हैं। माना जाता है कि जिस स्थायी सदस्यता को लेकर भारत इतना एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है वही सदस्यता 1950 के दौर में बड़ी आसानी से सुलभ थी। आवष्यकता की दृश्टि से देखें तो भारत का इसका सदस्य इसलिए होना चाहिए क्योंकि सुरक्षा परिशद प्रमुख निर्णय लेने वाली संस्था है। प्रतिबंध लगाने या अन्तर्राश्ट्रीय न्यायालय के फैसले को लागू करने के लिए इस परिशद के समर्थन की जरूरत पड़ती है। ऐसे में भारत की चीन और पाकिस्तान से निरंतर दुष्मनी के चलते इसका स्थायी सदस्य होना चाहिए। चीन द्वारा पाकिस्तान के आतंकवादियों पर बार-बार वीटो करना इस बात को पुख्ता करता है। स्थायी सीट मिलने से भारत को वैष्विक पटल पर अधिक मजबूती से अपनी बात कहने की ताकत मिलेगी। स्थायी सदस्यता से वीटो पावर मिलेगा जो चीन की काट होगी। इसके अलावा बाह्य सुरक्षा खतरों और भारत के खिलाफ सुनियोजित आतंकवाद जैसी गतिविधियों को रोकने में मदद भी मिलेगी। भारत को स्थायी सदस्यता न मिलने के पीछे सुरक्षा परिशद की बनावट और मूलतः चीन का रोड़ा समेत वैष्विक स्थितियां हैं। वैसे चीन न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) के मामले में भी भारत के लिए रूकावट बनता रहा है। गौरतलब है सुरक्षा परिशद में 5 स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य होते हैं। अस्थायी सदस्य देषों को चुनने का उद्देष्य सुरक्षा परिशद में क्षेत्रीय संतुलन कायम करना होता है। जबकि स्थायी सदस्य षक्ति संतुलन के प्रतीत हैं और इनके पास वीटो की ताकत है। इसी ताकत के चलते चीन दषकों से भारत के खिलाफ वीटो का दुरूपयोग कर रहा है। 

संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद में स्थायी सदस्यता का मामला दषकों पुराना है। यदि अमेरिका जैसे देषों को यह चिंता है तो सुरक्षा परिशद में में बड़े सुधार को सामने लाकर भारत को उसमें जगह देना चाहिए। बरसों पहले रूसी विदेष मंत्री ने भी यह कहा है कि स्थायी सदस्यता के लिए भारत मजबूत नाॅमिनी है। वैसे देखा जाय तो दुनिया के कई देष किसी भी महाद्वीप के हों भारत के साथ खड़े हैं मगर नतीजे वहीं के वहीं हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि दुनिया के बहुत सारे संगठन चाहे दक्षिण-एषियाई समूह सार्क या गुटनिरपेक्ष समूह समय के साथ मानो अप्रासंगिक से हो गये हैं। विष्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर विष्व व्यापार संगठन पर भी समय-समय पर उंगली उठती रही है। संयुक्त राश्ट्र संघ की उपादेयता पर भी सफलता और असफलता की लकीर कमोबेष छोटी-बड़ी रही है। संदर्भ यह भी है कि किसी भी संगठन या परिशद को यदि सुधार और बदलाव से विमुख लम्बे समय तक रखा जाये तो उसमें गैर उपजाऊ तत्व स्वतः षामिल हो जाते हैं। षिखर पर खड़े भारत का नेतृत्व मौजूदा समय में यह पूरी धमक के साथ स्वयं को प्रतिबिंबित करता है कि सुरक्षा परिशद में फेरबदल के साथ उसे स्थायी सदस्य बनाया जाये। इसी में वैष्विक हित के साथ संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद का संतुलन सम्भव है।

 दिनांक : 06/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

सुषासन के लिए चुनौती साइबर सुरक्षा

यह तर्कसंगत है कि देष में जैसे-जैसे डिजिटलीकरण का दायरा बढ़ता जायेगा वैसे-वैसे साइबर सुरक्षा सम्बंधी चुनौतियां भी बढ़ती जायेंगी। डाटा चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी साइबर अपराध के बड़े आधार हो गये हैं। षायद यही कारण है कि रोजगार के नये अवसर में डाटा प्राइवेसी, डाटा सिक्योरिटी और नेटवर्क सिक्योरिटी के विषेशज्ञ प्रोफेषनल की मांग तेजी से बढ़ी है। देखा जाये तो साइबर सुरक्षा का बाजार भी बड़ा आकार लेता जा रहा है। एक रिपोर्ट से यह पता चलता है कि इस बाजार का आकार 2021 में 220 करोड़ का था जो 2027 तक 350 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है। देखा जाये तो साल 2021 में साइबर हमलों में विष्व में भारत का दूसरा स्थान था और 2022 में तो इसे लेकर 14 लाख मामले दर्ज किये गये थे। विज्ञान और तकनीक जिस मुकाम को हासिल किये उसमें सब कुछ उजला ही नहीं है कुछ उसके स्याह पक्ष भी है साइबर अपराध इसी का एक नतीजा है। कम्प्यूटर, सर्वर, मोबाइल डिवाइस, इलेक्ट्राॅनिक सिस्टम, नेटवर्क और डेटा को हमले से बचाने का एक बड़ा प्रयास साइबर सुरक्षा है। वैष्विक स्तर पर साइबर खतरा तेजी से गतिमान है और दिन दूनी-रात चैगुनी की तर्ज पर तेजी लिए हुए है। साइबर अपराधियों ने किसी को भी सुरक्षित नहीं छोड़ा। संसद, न्यायाधीष, विष्वविद्यालय के कुलपति, व्यापारी, पुलिस अधिकारी को भी अपने षिकंजे में फंसा चुका है। आंकड़े की पड़ताल से यह पता चलता है कि भारत में साइबर अपराध को लेकर साल 2021 में 18 हजार से अधिक मामलों में आरोप पत्र दाखिल हुए जिसमें इसे लेकर लगभग 53 हजार मामलों पर केस दर्ज हुआ और 491 मामलों में सजा हुई। उक्त से यह परिलक्षित होता है कि साइबर अपराध का दायरा अच्छा खासा प्रसार लिया है और साथ ही साइबर सुरक्षा की चुनौती को बढ़ा दिया है।

मौजूदा दौर सुषासन उन्मुख दृश्टिकोण से युक्त है साथ ही ई-गवर्नेंस को भारी पैमाने पर बढ़ावा दिया जा रहा है। इंटरनेट कनेक्टिविटी को 5-जी व 6-जी की ओर ले जाने का पूरा प्रयास है। 2025 तक 90 करोड़ आबादी को इंटरनेट से जोड़ने का लक्ष्य है। पढ़ाई-लिखाई से लेकर चिकित्सा व अदालती व्यवस्थाओं में इंटरनेट का पूरा समावेष देखा जा सकता है। ई-बैंकिंग समेत दर्जनों प्रकार की इलेक्ट्राॅनिक विधाओं से युक्त क्रियाकलापों को जमीन पर उतार दिया गया है। लेन-देन की प्रक्रिया को सरकार भी डिजिटलीकरण के मामले को दो कदम और आगे बढ़ाने की फिराक में रहती है। प्रधानमंत्री मोदी ने तो यहां तक भी कहा है कि एक दिन जेब में बिना कैष के ही रहे और लेन-देन को डिजिटल पर ले जायें। सुषासन की परिपाटी में षासन को यह चिंता होना स्वाभाविक है कि चहुमुखी विकास को डिजिटलीकरण के माध्यम से बड़ा और सघन बनाया जाये। मगर साइबर सुरक्षा को लेकर एक चिंता अपनी जगह रहती है जो हर लिहाज से सुषासन को मुंह चिढ़ाता है। साइबर खतरे का स्तर लगातार बढ़ने के साथ साइबर सुरक्षा समाधानों पर वैष्विक खर्च भी तेजी से बढ़ रहा है। अनुमान तो यह भी है कि साइबर सुरक्षा खर्च 2023 में 188 बिलियन डाॅलर तक पहुंच जायेगा जबकि 2026 तक यही 260 बिलियन डाॅलर हो जायेगा। अमेरिका, इंग्लैण्ड, आॅस्ट्रेलिया देषों में साइबर सुरक्षा के लिए अनेकों पहल किए हैं। खतरों की विवेचना से यह पता चलता है कि साइबर अपराध बिना किसी सीमा के चलायमान है। साइबर हमले, साइबर आतंकवाद जैसे षब्द सभ्य समाज और व्याप्त सुषासन के लिए कड़ी और बड़ी चुनौती दे रहे हैं। देष के कई इलाके जो साइबर अपराधियों के गढ़ बन गये हैं ऐसे ही इलाकों में हरियाणा का नूंह जिला जिसे साइबर लुटेरों ने मिलकर चर्चे में ला दिया। पुलिस के अनुसार इस जिले में 434 गांव हैं। अधिकांष अरावली की तलहटी में स्थित है और फर्जी काॅल के लिए यह उपयुक्त अड्डे हैं। झारखण्ड का जामतारा तो साइबर अपराधियों का बाकायदा अड्डा बना हुआ है। हालांकि साइबर अपराध दुनिया के किसी भी कोने में कहीं से भी पनप सकता है और समाज को नई मुसीबत में डाल सकता है। 

देष में इंटरनेट से करोड़ों की आबादी जुड़ गयी। बहुतायत में व्यक्तिगत ईमेल समेत अन्य प्रकार की इलेक्ट्राॅनिक व्यवस्थाओं से जनता जुड़ गयी मगर एक पक्ष यह भी है कि साइबर सुरक्षा को लेकर जागरूकता का स्तर अभी विकसित ही नहीं हो पाया। कई वर्श पहले ही साइबर अपराध की बढ़ती स्थिति और इलेक्ट्राॅनिक व्यवस्था से गतिमान संदर्भ को देखते हुए यह अनुमान लगा लिया गया था कि देष में साइबर सुरक्षा से जुड़े रोज़गार के आकार में बढ़ोत्तरी होगी। इतना ही नहीं सरकार को साइबर सुरक्षा के मसले पर कठोर नियम और कानून से भी गुजरना पड़ेगा। सुषासन की परिपाटी को देखें तो अपराध मुक्त समाज इसकी परिभाशा का एक हिस्सा है जो अब दबे पांव आॅनलाइन लोगों पर हमला करता है और उन्हें वित्तीय समस्या समेत कई सामाजिक-मनोवैज्ञानिक समस्या की ओर धकेलता है। आज इंटरनेट हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन गया है और जीवन के सभी पहलुओं को कमोबेष प्रभावित कर रहा है। साइबर जागरूकता और सावधानी इसका प्राथमिक बचाव है मगर जिस देष की अभी भी हर चैथा व्यक्ति अषिक्षित हो वहां साइबर षिक्षा कितनी सबल होगी यह समझना कठिन काम नहीं है। साइबर स्टाॅकिंग, बौद्धिक सम्पदा की चोरी, वाइरस समेत कई ऐसे प्रारूप हैं जो अपराध के लिहाज से परेषानी का सबब है। गौरतलब है कि साल 2013 से पहले भारत में कोई साइबर नीति नहीं है मगर अब ऐसा नहीं है। राश्ट्रीय साइबर सुरक्षा नीति 2020 साइबर सुरक्षा और साइबर जागरूकता में सुधार लाने की इच्छा से युक्त है। इसी वर्श भारतीय साइबर अपराध समन्वयक केन्द्र की स्थापना की गयी जबकि 2017 में साइबर स्वच्छता केन्द्र और 2018 में साइबर सुरक्षित भारत पहल जैसी कवायद देखी जा सकती है। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 डेटा एवं सूचना उद्योग को नियंत्रित करता है। इसके अलावा भी कई ऐसी व्यवस्थाएं हैं जिसमें साइबर सुरक्षा को लेकर भारत पहले करता दिखाई देता है। विदित हो कि भारत ने अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ जैसे देषों के साथ अनेकों साइबर सुरक्ष सम्बंधी संधियों पर दस्तखत किये। 

दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य यह है कि साइबर अपराध वर्तमान में वृद्धि के साथ बना हुआ है और इसे रोकने के उपाय वक्त के साथ ढूंढे जा रहे हैं। यद्यपि सरकार साइबर सुरक्षा को लेकर कई सुषासनिक कदम उठाए हैं इसके लिए साइबर सेल भी बनाये गये हैं। इससे प्रभावित व्यक्ति केस दर्ज करा सकता है और राहत पाने की उम्मीद अंदर पनपा सकता है मगर ज्यादातर मामलों में निराषा ही मिलती है। दो टूक कहें तो यह हवा में किया जाने वाला एक ऐसा अपराध है जो कमाई को उड़ा देता है। हालांकि साइबर अपराध की श्रेणी में पोनोग्राफी जैसे चित्र और फिल्म को भी षामिल किया गया है इसके अलावा भी कई ऐसे संदर्भ हैं जो समाज को चुनौती दे रहे हैं। सूचना सुरक्षा भण्डारण में भी सेंध लगने से अखण्डता और गोपनीयता को भी खतरा पैदा हो रहा है। साइबर अपराध की बढ़ती प्रवृत्ति और प्रकार को देख कर यह सोचना सही रहेगा कि इससे सुरक्षा की जिम्मेदारी केवल साइबर सेल और सरकार पर नहीं छोड़ना चाहिए बल्कि जन मानस को साइबर सुरक्षा के प्रति जागरूकता और सावधानी का स्तर भी तुलनात्मक बढ़ा लेना चाहिए। 

  दिनांक : 06/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

सुशासन के दौर में सुलगता मणिपुर

दो टूक कहें तो सुषासन का अभिप्राय षांति और खुषहाली है जो लोक सषक्तिकरण की अवधारणा पर टिकी है। मगर इन दिनों पूर्वोत्तर का मणिपुर जिस तरह हिंसा में झुलसा हुआ है उससे कई सवाल खड़े हो गये हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर यह समस्या पनपी ही क्यों। विदित हो कि मणिपुर में मेइती और कूकी समुदाय के बीच मई के षुरूआती दिनों में भड़की हिंसा से सौ से अधिक मौत हो चुकी है। अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मेइती समुदाय की मांग के विरोध में 3 मई को पर्वतीय जिलों में आदिवासी एकजुटता मार्च के आयोजन के बाद यह घटना घटित हुई। गौरतलब है कि मणिपुर की 53 फीसदी आबादी इसी समुदाय की है जो मुख्य रूप से इम्फाल घाटी में प्रवास करती है जबकि नगा और कूकी की आबादी भी 40 फीसद है जिनका प्रवास पर्वतीय जिले हैं। घटना का स्वरूप कुछ भी हो पर लम्बे समय तक नियंत्रण का पूरी तरह न हो पाना सुषासनिक पहलू की कमजोरी को तो दर्षाता ही है। इतना ही नहीं सुलगते मणिपुर में इस बात को भी जता दिया है कि सरकार से भरोसा भी कम हुआ है। षायद यही कारण है कि जातीय हिंसा से निपटने में नाकाम रहे मुख्यमंत्री एन विरेन्द्र सिंह ने इस्तीफा देने का मन भी बना लिया था। हालांकि ऐसा कहा जा रहा है कि जनता के दबाव में उन्होंने अपना मन बदल लिया। महिलाएं नहीं चाहती थी कि वे इस्तीफा दें और त्यागपत्र की प्रति भी फाड़ दी गयी। यह घटनाक्रम भी मणिपुर की संवेदना को मुखर करता है और इस बात को इंगित करता है कि किसी भी हिंसा को यदि देर तक जिंदा रखा जायेगा तो बड़े नुकसान के लिए तैयार रहना चाहिए जो सुषासन से भरी सरकारों के लिए कहीं से ठीक नहीं है।

मणिपुर के मुख्यमंत्री की मानें तो आदिवासी समुदाय के लोक संरक्षित जंगलों और वन अभ्यारण्य में गैर कानून कब्जा करके अफीम की खेती कर रहे हैं। यह कब्जा हटाने के लिए सरकार मणिपुर वन कानून 2021 के अंतर्गत वन भूमि पर किसी तरह के अतिक्रमण को हटाने के लिए एक अभियान चला रही हैं। आदिवासियों का इस पर मत है कि यह उनकी पैतृक जमीन है न कि उन्होंने अतिक्रमण किया है। जिसके कारण विरोध पनपा और सरकार ने धारा 144 लगा कर प्रदर्षन पर पाबंदी लगा दी। नतीजन कूकी समुदाय के सबसे बड़े जातीय संगठन कूकी ईएनपी ने सरकार के खिलाफ बड़ी रैली निकालने का एलान कर दिया। वैसे देखा जाये तो कूकी जनजाति के कई संगठन 2005 तक सैन्य विद्रोह में षामिल रहे हैं। मनमोहन सरकार के दौरान साल 2008 में सभी कूकी विद्रोही संगठनों से केन्द्र सरकार ने उनके खिलाफ सैन्य कार्यवाही रोकने के लिए सस्पेंष्न आॅफ आॅप्रेषन एग्रिमेंट किया था। 60 विधायको वाले मणिपुर में 40 विधायक मेइती समुदाय से आते हैं जाहिर है इनका दबदबा है और इसमें से ज्यादातर हिन्दु हैं। यहां के पहाड़ी इलाकों में 33 मान्यता प्राप्त जनजातियां रहती हैं जिसमें नागा और कूकी प्रमुख हैं और इनका सरोकार मुख्यतः इसाई धर्म से है। उक्त से यह परिलक्षित होता है कि दो समुदायों की लड़ाई कैसे धार्मिक हिंसा में तब्दील हुई है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 371(ग) को समझे तो मणिपुर की पहाड़ी जनजातीयों को संवैधानिक विषेशाधिकार मिले हैं और मेतई समुदाय इससे अलग है। भूमि सुधार अधिनियम के चलते मेतई समुदाय पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदकर प्रवास नहीं कर सकते हैं जबकि दूसरा समुदाय घाटी में आकर बसने में कोई रोक-टोक नहीं है। नतीजन समुदायों के बीच खाई बढ़ती जा रही है। ऐसे में मणिपुर की ताजी घटना भले ही तात्कालिक परिस्थितियों के चलते पनपी हों मगर यह इसका ऐतिहासिक पहलू और संरचना द्वन्द्व और संघर्श से भरा दिखता है। इन सबके बावजूद यहां आठ फीसद मुस्लिम और लगभग इतने ही सनमही समुदाय के लोग रहते हैं। 

घटना का स्वरूप किसी भी कारण से विकसित हुआ हो मगर यह सुषासन के लिए बड़ी चुनौती है। खास तौर पर तब यह अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जब दौर सुषासन और अमृतकाल का हो। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जिसमें कानून और व्यवस्था को प्राथमिकता देना और बुनियादी विकास को बनाये रखना षामिल है। मणिपुर की कानून और व्यवस्था इस जातीय हिंसा के चलते हाषिये पर है और केन्द्र और मणिपुर सरकार की जमकर किरकिरी हो रही है। मामले पर केन्द्र अपने स्तर पर समाधान खोज रहा है जबकि राज्य की तरकीब समस्या से निपटने में नाकाफी रही है। मुख्य विरोधी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी भी स्थिति को देखते हुए मणिपुर का दौरा किया और वहां की स्थितियों को समझने का प्रयास किया है। हालांकि इसे लेकर भी सियासत गर्म है। फिलहाल 50 हजार से अधिक लोग राहत षिविरों में षरण लिए हुए है जिनमें दोनों समुदाय के लोग षामिल हैं। पड़ताल बताती है कि गुस्सा का स्तर बराबरी का है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सौ मंदिरों के अलावा दो हजार मेइती घरों पर भी हमला हुआ है। कहा तो जा रहा है कि चर्च को भी नुकसान हुआ है। यानि कि हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते हिंसा ने भी धार्मिक रूप ले लिया। दो टूक यह भी है कि मणिपुर इस कदर तूफान से घिरा मगर केन्द्र हो या राज्य सरकार किसी ने इसे तत्काल प्रभाव से काबू में करने का प्रयास क्यों नहीं किया। वैसे देखा जाये तो भारत में जातीय और धार्मिक हिंसा की छुटपुट घटनाएं कहीं पर भी विकसित हो जाती हैं मगर मणिपुर एक खास ख्याल रखने वाला प्रदेष है। यह पूर्वोत्तर का राज्य है और दिल्ली से भी दूर है। यहां कि सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष से षेश भारत उतना वाकिफ नहीं है साथ ही राजनीतिक दृश्टि से भी यह बहुत रसूक की जगह नहीं है। ऐसे में हिंसा का बड़ा हो जाना और हालात को इतने लम्बे वक्त तक बनाये रखना केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों के लिए सही नहीं है। 

राहुल गांधी के मणिपुर दौरे के दौरान राहत षिविरों में जाना और राज्यपाल से मिलना विपक्षी की दृश्टि से सही कदम है और यह कहना कि हिंसा का कोई समाधान नहीं है बिल्कुल दुरूस्त बात है। चाहे सरकार केन्द्र की हो या राज्य की जिम्मेदारी को ठीक से निभायें और जिस सुषासन को लेकर गम्भीर चिंता से जकड़े हुए हैं उसे देखते हुए मणिपुर को षान्ति और खुषहाली के मार्ग पर ले आयें। 2024 का चुनाव एक वर्श से कम समय का रह गया है ऐसे में मोदी सरकार अपनी राजनीतिक सुचिता को सकारात्मक बनाये रखने के लिए मणिपुर को लेकर कम चिंतित नहीं होगी मगर इस राज्य के बढ़े दर्द को सुषासन के मरहम से दूर किया जाना तत्काल की आवष्यकता है। मणिपुर में जो हुआ वो बेहद कश्टकारी है और इस बात का द्योतक भी कि षासन-सुषासन व प्रषासन सभ्यता की ऊँचाई को कितना भी प्राप्त कर ले पर समावेषी और सतत विकास की अवधारणा के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहलू के साथ कानून और व्यवस्था के बिना सुषासन को दुरूस्त नहीं कर सकती। बड़ी सरकार बड़े मतों से नहीं बल्कि षांति और खुषहाली से सम्भव है। 

 दिनांक : 01/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
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भारत-अमेरिका सम्बंध: खुलकर खेलने का समय

भारत और अमेरिका के सम्बंधों की एक ऐसी पिच बीते कई वर्शों में तैयार हुई है जिस पर खुल कर खेलने को लेकर भारत को कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। मोदी षासनकाल की प्रथम अमेरिकी यात्रा जब सितम्बर 2014 में षुरू हुई तब तत्कालीन अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा से गहरी दोस्ती हुई। ओबामा के बाद डोनाल्ड ट्रंप के साथ भी मोदी असरदार बने रहे और अब एक बार फिर जो बाइडन और मोदी की केमिस्ट्री पूरी दुनिया को एक नई चेतना और नये पथ का अनुगमन करा रही है। देखा जाये तो एक ओर जहां रूस और यूक्रेन एक दूसरे पर हमलावर हैं तो वहीं अमेरिका सहित नाटो के सभी देष रूस के खिलाफ बाकायदा खड़े हैं। जबकि भारत इन सभी के साथ समन्वय और सहृदयता को ध्यान में रखते हुए सम्बंधों की पिच को कहीं अधिक पुख्ता किये हुए है। अमेरिका जानता है कि भारत महज दक्षिण एषिया का ही नहीं बल्कि दुनिया में एक अलग रसूक रखने वाला देष बन चुका है। ऐसे में जो बाइडन ये जरूर सोचते होंगे कि एषिया समेत वैष्विक फलक पर उभरे मुद्दों के मामले में मोदी एक अच्छा समाधान हो सकते हैं। गौरतलब है कि भारत धार्मिक बहुलवाद और सबसे बड़े लोकतंत्र का हिमायती है जो इस बात को मजबूत करता है कि वैष्विक पटल पर वह सषक्त है। हालांकि बराक ओबामा का प्रधानमंत्री मोदी और भारत में मुसलमानों पर दिया गया बयान चर्चा में है। ओबामा ने कहा था कि अगर मैं मोदी से मिलता तो हिन्दू बहुल भारत में अल्पसंख्यक मुसलमानों के अधिकार का मुद्दा उठाता। फिलहाल ओबामा के मन में ऐसा क्या है यह कहना मुष्किल है और उन्हें यह आभास कैसे हो रहा है इसकी पड़ताल भी जरूरी है मगर ये वही ओबामा है जिन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान एक साल के भीतर 7 मुस्लिम देषों पर 26 हजार से अधिक बम गिराये और अब भारत को ज्ञान दे रहे हैं। 

भारत और अमेरिका के बीच की बातचीत पहली बार तो नहीं है मगर हर बार की तरह यह दौरा भी मजबूत दिषा लिए हुए है। अमेरिका के तीन दिवसीय राजकीय दौरे पर गये पीएम मोदी जो बाइडन के साथ द्विपक्षीय बातचीत को जिस गति से आगे बढ़ाने में सफल दिखे और जिस प्रकार व्हाइट हाउस में उनकी उपस्थिति को महत्व मिला है उसे देखते हुए एक सफल यात्रा करार दी जानी चाहिए। हर बार की तरह समझौतों की फहरिस्त भी अच्छी-खासी है जिसमें दोनों देषों के षीर्श नेतृत्व में पहले समझौते में भारत निर्मित स्वदेषी विमान तेजस के लिए सेकण्ड जेनरेषन जीई-414 जेट विमान के निर्माण पर हस्ताक्षर देखा जा सकता है। इसके अलावा रक्षा क्षेत्र में बातचीत सहित प्रौद्योगिकी की आपसी साझेदारी आदि कई ऐसे संदर्भ इस दौरे में षामिल हैं। देखा जाये तो पिछले ढ़ाई दषक में भारत और अमेरिका द्विपक्षीय सम्बंधों में मजबूती को लेकर कहीं अधिक सषक्त प्रयास से युक्त रहे हैं। हालांकि इसमें भारत कहीं अधिक षामिल दिखाई देता है। तमाम अड़चनों और मजबूत नकारात्मकता को दूर करते हुए दोनों देषों ने सम्बंधों को जो मुकाम दिया है इसे मील का पत्थर कहना अतार्किक न होगा। आपसी कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिका, बंगलुरू और अहमदाबाद में दो नये वाणिज्य दूतावास खोलने के लिए सहमत हुए जबकि भारत भी सिएटल में अपना मिषन स्थापित करेगा। दोनों देषों के बीच अर्टेमिस संधि पर बनी सहमति भी महत्वपूर्ण है। भारत ने भी इस संधि में षामिल होने की स्वीकृति दी है। गौरतलब है कि इसके अंतर्गत समान विचारधारा वाले देषों को आंतरिक खोज के मुद्दों को एक करना है। भारत का पड़ोसी चीन अमेरिका के लिए लम्बे अरसे से सिरदर्द बना हुआ है और भारत के लिए तो वह एक बीमारी है जिससे निपटने के लिए भारत, अमेरिका, जापान और आॅस्ट्रेलिया मिलकर क्वाॅड का गठन पहले ही कर चुके हैं। वैष्विक फलक पर अन्तर्राश्ट्रीय संगठनों का अलग-अलग स्थितियों में भिन्न-भिन्न स्वरूप है मगर भारत-अमेरिका द्विपक्षीय सम्बंध स्वयं में एक ऐसा फलक लिए हुए है जो चीन जैसे देषों को व्याकुल कर सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत की नीति और रीति में बड़ा बदलाव तो है पर बड़ा फायदा भारत को कितना और कब मिलेगा इस पर भी दृश्टि रहेगी। 

दुनिया के तमाम देषों व संगठनों के साथ भारत का सकारात्मक रूख इस बात का संकेत है कि संसार भारत को हल्के में तो नहीं लेता। भारत की वैदेषिक नीति कहीं अधिक खुली है और मैले-कुचैले भावना से इसका दूर-दूर तक वास्ता नहीं है। वहीं पड़ोसी पाकिस्तान आतंकवाद को संरक्षण देने के चलते कूटनीतिक और वैदेषिक दोनों स्तर पर विफल है और जबकि आर्थिक स्तर पर कहीं अधिक जर्जर। दोनों षीर्श नेताओं ने पाकिस्तान के आतंकी परिवेष और स्वभाव को देखते हुए लताड़ लगायी है। जाहिर है चीन अमेरिका के साथ भारत की इस प्रगाढ़ता से परेषान होगा तो पाकिस्तान अपने लिए बेहतर न कहे जाने को लेकर माथे पर बल जरूर लाया होगा। फिलहाल अमेरिका जानता है कि भारत दुनिया का बड़ा बाजार है और एषियाई देषों में संतुलन की दृश्टि से भी भरोसे से भरा देष है। विदित हो कि रूस और अमेरिका के बीच सम्बंध कहीं अधिक खटास और खटाई से युक्त रहे हैं जबकि भारत दोनों के साथ क्रमषः नैसर्गिक और स्ट्रैटेजिक रिष्तों के साथ बेझिझक आगे बढ़ रहा है। देखा जाये तो मौजूदा समय में कई हिस्सों में बंटी दुनिया का हर हिस्सा भारत से संलग्न है दूसरे षब्दों में कहें तो भारत एक ऐसे मैदान में है जहां किसी भी खिलाड़ी से खुलकर खेलने में कोई दिक्कत नहीं है। बीते कुछ वर्शों से वैष्विक ताना-बाना बिगड़ा है दुनिया के हर देष मुख्यतः यूरोप और अमेरिका और चीन जैसे देष प्रथम के सिद्धांत को अंगीकृत करने की होड़ में है। चीन मानो दुनिया से जंग करने के लिए तैयार बैठा हो जबकि भारत बाजार, व्यापार, आदान-प्रदान और सहिश्णु वैदेषिक नीति के चलते सभी को एक साथ लेकर चलने के बड़े प्रयास में रहा है। यही कारण है चीन और पाकिस्तान को छोड़ दिया जाये तो भारत का कोई बड़ा दुष्मन दुनिया में है ही नहीं। भारत की वैदेषिक नीति कहीं अधिक सकारात्मक और घुलनषील है। ऐसे में भारत को अपने लाभ की चिंता बढ़ा देनी चाहिए। संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में स्थायी सदस्यता को लेकर एड़ी-चोटी का जोर दषकों से लगाया जा रहा है। हालांकि अमेरिका सहित दुनिया के सैकड़ों देष भारत का इस मामले में समर्थन करते हैं। न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भारत को षामिल करने का इरादा भी बरसों पहले अमेरिका जता चुका है मगर चीन की वजह से यह मामला भी खटाई में है। हालांकि इसे लेकर बिना सदस्यता के ही भारत को मिलने वाला लाभ जारी है। हिन्द महासागर में चीन को संतुलित करने के लिए भी भारत-अमेरिकी सम्बंध कहीं अधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं। मोदी का अमेरिकी यात्रा हमेषा एक यादगार परिस्थिति को पैदा करती है। समय के साथ किसी भी रिष्ते में बदलाव स्वाभाविक है मगर भारत और अमेरिका एक बेहतरीन दौर के रिष्ते में हैं। देखना यह है कि दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र और सबसे बड़े लोकतंत्र भारत वैष्विक फलक पर कल्याणकारी दृश्टिकोण के साथ स्वयं को कितना मजबूत कर पाते हैं। 

 दिनांक : 24/06/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
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गर्मी, बाढ़, बारिश और दुनिया की तस्वीर

अगर सभी देष कार्बन उत्सर्जन में कटौती के अपने वायदे को पूरा कर भी लें तब भी भारत की 60 करोड़ से अधिक आबादी समेत दुनिया भर में 2 सौ करोड़ से अधिक लोगों को खतरनाक रूप से भीशण गर्मी का सामना करना ही पड़ेगा जो अस्तित्व का संकट पैदा कर सकती है। जलवायु वैज्ञानिकों की मानें तो वर्तमान जलवायु नीतियों के परिणामस्वरूप सदी के अंत तक तापमान में 2.7 डिग्री सेल्सियस वृद्धि होगी। इस मात्रा के तापमान के चलते विष्व स्तर पर लू की घातक लहरें, चक्रवात और बाढ़ तथा समुद्र के स्तर में वृद्धि की सम्भावना रहेगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि ग्लोबल वार्मिंग दष्कों से दुनिया के लिए सबसे बड़ी चिंता बनी हुई है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते ही धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है और प्राकृतिक आपदायें विकराल रूप ले रही हैं। गौरतलब है कि हर साल 54 अरब टन कार्बन डाई आॅक्साइड का उत्सर्जन हो रहा है जिससे धरती की सतह का तापमान तेजी से बढ़ रहा है। फिलहाल चिंताओं और चर्चाओं के बीच लू के थपेड़े जारी हैं, गर्मी प्रचण्ड रूप लिए हुए है और समुद्र भी अपने तूफान को बेपरवाह छोड़ दिया है। उत्तर भारत के ज्यादातर इलाकों में गर्मी या लू से हाल बुरा है। राजधानी दिल्ली समेत उत्तर प्रदेष, बिहार, झारखण्ड, पष्चिम बंगाल लू की चपेट में है। दक्षिण में आन्ध्र प्रदेष और तेलंगाना के ज्यादातर हिस्सों में भीशण गर्मी पैर पसारे हुए है। ओडिषा और छत्तीसगढ़ भी गर्मी के कहर से कराह रहे हैं जबकि पष्चिमी तट के ज्यादातर इलाकों में समुद्री चक्रवात बिपरजाॅय के चलते एक नई अव्यवस्था विकसित हो गयी है। गौरतलब है अरब सागर में उठे इस चक्रवाती तूफान के चलते लगभग एक लाख लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने का काम किया गया और सरकार समेत पूरा महकमा अलर्ट मोड पर रहा। मध्य भारत और उत्तर भारत में लू का कहर है, पूर्वोत्तर में भारी बारिष की चेतावनी है और पष्चिमी भारत चक्रवात के असर से बेजार है। उक्त तमाम बातें यह तस्तीक कर रही हैं कि पृथ्वी जलवायु परिवर्तन के चलते नित नई समस्याओं से भर रही है। 

विष्व मौसम विज्ञान संगठन ने 2023 में कहा था कि अगले 5 वर्शों में वैष्विक तापमान बढ़ने की सम्भावना है जिसमें 2023-27 अब तक के सबसे गर्म साल रह सकते हैं। अमेरिका में बर्फीले तूफान का कहर बरप रहा है तो कई यूरोपीय देष विंटर हीटवेव की चपेट में हैं। नीदरलैंड और डेनमार्क समेत चेक गणराज्य जैसे कुल 7 देषों में साल की षुरूआत बीते कई दषकों में सबसे गर्म रही। जलवायु परिवर्तन हो या मौसम का आम चलन गर्मी का प्रकोप वहां भी पड़ा है जहां पहले ऐसा नहीं था। दक्षिण यूरोप भी बरसों पहले गर्मी की लहर में था साल 2017 में तो तापमान यहां 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला गया था जो कि कभी ऐसा हुआ ही नहीं था और इस गर्मी ने जंगल में आग, फसल का नुकसान सब कुछ बढ़ा दिया था। अब तक के इतिहास को देखा जाये तो अगस्त 2016 सबसे ज्यादा गर्म रहा है और यह सम्भावना विष्व मौसम विज्ञान संगठन ने एक महीने पहले ही जता दिया था कि 2016 में स्थापित तापमान रिकाॅर्ड भी टूट सकता है। अप्रैल 2023 से रिकाॅर्ड तोड़ गर्मी की लहर ने भारत, बांग्लादेष, चीन, थाईलैण्ड, वियतनाम सहित तमाम एषियाई देषों को प्रभावित किया है। हीट वेव के चलते, हीट स्ट्रोक के कारण कई मौतें भी हुई हैं और इस मामले में दो दर्जन देष देखे जा सकते हैं। इस साल बनने वाले अलनीनो की घटना भी एक नई मुसीबत को लेकर खड़ी है। गौरतलब है अल नीनो गर्म समुद्री जलधारा है जिसके प्रभाव से दक्षिण-पष्चिम मानसून कमजोर हो जाता है। फलस्वरूप भारत में अकाल और सूखे की सम्भावना बढ़ जाती है और बारिष कम होती है। अलनीनो की घटना न केवल इस साल नुकसान पहुंचायेगी बल्कि साथ ही साथ इसका प्रभाव 2029 तक दर्ज किये जाने की बात की जा रही है। वैष्विक अर्थव्यवस्था को इससे 2029 तक 3 लाख करोड़ डाॅलर का नुकसान हो सकता है। हालांकि अलनीनो पेरू के तट से उठने वाली एक जलधारा है जो कुछ वर्शों के अंतराल पर प्रकट होती रहती है।

ग्लोबल वार्मिंग रोकने का फिलहाल कोई इलाज नहीं है। इसे लेकर केवल जागरूकता ही एक उपाय है। पृथ्वी को सही मायनो में बदलना होगा और ऐसा इसके हरियाली से ही सम्भव है। कार्बन डाई आॅक्साइड के उत्सर्जन को भी प्रति व्यक्ति कम करना ही होगा। पेड़-पौधे लगातार बदलते पर्यावरण के हिसाब से खुद को ढ़ालने में जुट गये हैं। जल्द ही इसकी कोषिष मानव को भी षुरू कर देनी चाहिए। हम प्रदूशण से जितना मुक्त रहेंगे पृथ्वी को बचाने के मामले में उतनी ही बड़ी भूमिका निभायेंगे पर यह कागजी बातें हैं हकीकत में ऐसा होगा संदेह अभी भी गहरा बना हुआ है। ऐसा माना जा रहा है कि ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन के वजह से रेगिस्तानों में नमी बढ़ेगी जबकि मैदानी इलाकों में इतनी प्रचण्ड गर्मी होगी जितना कि इतिहास में नहीं रहा होगा जाहिर है यह जानलेवा होगी। अब दो काम करने बड़े जरूरी हैं पहला कि प्रकृति को इतना नाराज़ न करें कि हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाय। दूसरा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के मामले में अब उदार रवैये से काम नहीं चलेगा बल्कि सख्त नियमों को और कठोर दण्डों को प्रचलन में लाना ही होगा। वर्शों पहले अमेरिकी कृशि विभाग के एक वैज्ञानिक ने चावल पर किये गये षोध में यह पाया था कि वातावरण में बढ़ती कार्बन डाई आॅक्साइड की वजह से इसकी रासायनिक संरचना बदलने लगी है। यह एक बानगी मात्र है सच्चाई यह है कि ऐसे कई बिन्दुओं पर षोध किया जाये तो यह बोध जरूर हो जायेगा कि कमोबेष रासायनिक संरचना में परिवर्तन तो हर जगह आ रहा है तो क्या यह माना जाय कि गर्मी बेकाबू रहेगी और दुनिया झंझवात में फंस जायेगी। पृथ्वी बचाने की मुहिम दषकों पुरानी है। 1948 से इस क्रम को देखें और 1972 की स्टाॅकहोम की बैठक को देखें साथ ही 1992 और 2002 के पृथ्वी सम्मेलन को भी देखें इसके अलावा जलवायु परिवर्तन को लेकर तमाम बैठकों का निचोड़ निकालें तो भी तस्वीरें सुधार वाली कम वक्त के साथ बिगाड़ वाली अधिक दिखाई देती हैं। गर्मी के लिये कौन जिम्मेदार है 55 फीसदी कार्बन उत्सर्जन दुनिया के चंद विकसित देष करते हैं और जब कार्बन कटौती की बात आती है तो उसमें भी वह पीछे हट जाते हैं। पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका का हटना कुछ ऐसी ही असंवेदनषीलता बरसों पहले देखी जा चुकी है। 

दुनिया के कई हिस्सों में बिछी बर्फ की चादरें पिघल जायेंगी, समुद्र का जलस्तर कई फीट तक बढ़ जायेगा। कई क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे और भारी तबाही मचेगी। ऐसा नहीं है कि इसका प्रभाव नहीं दिख रहा है। दिख भी रहा है और दुनिया भर की राजनीतिक षक्तियां इस बहस में उलझी हैं कि गरमाती धरती के लिये किसे जिम्मेदार ठहराया जाये। जिम्मेदार कोई भी हो भुगतना सभी को पड़ेगा। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन ने तो दुनिया की तस्वीर ही बदल दी है। कृशि, वन, पर्यावरण, बारिष समेत जाड़ा और गर्मी सब इसके चलते उथल-पुथल की अवस्था में जा रहे हैं। इसलिए बेहतर यही होगा कि इस बड़े खतरे से अनभिज्ञ रहने के बजाय मानव सभ्यता और पृथ्वी को बचाने की चुनौती में सभी आगे आयें। 

 दिनांक : 16/06/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
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पढ़ाई-लिखाई में शैक्षिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल

आज के युग में मानव जीवन का प्रत्येक पक्ष वैज्ञानिक खोज तथा अविश्कारों से प्रभावित है और षिक्षा का क्षेत्र भी इस प्रभाव से मुक्त नहीं है। पढ़ाई-लिखाई में षैक्षिक तकनीक का बोलबाला है। जब षिक्षक अपने षिक्षण को प्रभावषाली बनाने के लिए विभिन्न साधनों की मदद लेता है जिसके चलते षिक्षण और उपागम दोनों प्रभावित होते हैं तो उसे षिक्षण प्रौद्योगिकी कहते हैं जो वर्तमान में एजुटेक के रूप में लोकप्रिय है। इस तकनीक में मुख्यतः दो बिन्दु निहित है जिसमें एक षिक्षण उद्देष्यों की प्राप्ति करना जबकि दूसरा षिक्षण की क्रियाओं का यंत्रिकरण करना है। बीते एक दषक में यह देखने को मिला है कि षैक्षिक प्रौद्योगिकी तीव्रता के साथ बड़े बाजार और ग्राहक दोनों को निर्मित करने में सफल रही है। हाल के दिनों में एजुटेक स्टार्टअप्स अरबों के कारोबारी हो गये हैं और निरंतर कई सम्भावनाओं से यह युक्त होते जा रहे हैं। देखा जाये तो एजुटेक एप्स से भरे स्मार्ट फोन अब षिक्षा का पर्याय बन गये हैं। जब चाहें, जहां चाहें और जितना चाहें मानो षिक्षा अब जेब में हो बस उसमें इंटरनेट का डेटा भरा होना चाहिए। पड़ताल बताती है कि भारत का एजुटेक अपने विभिन्न क्षेत्रों व उपक्षेत्रों में लगभग चार सौ स्टार्टअप्स के साथ दुनिया में कहीं अधिक बड़े आकार का है। गौरतलब है कि भारत की जनसंख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है और पढ़ाई-लिखाई का सरोकार और सम्भावनाएं भी यहां तुलनात्मक बढ़त में हैं। जनसांख्यिकीय लाभांष, प्रौद्योगिकी का बुनियादी ढांचा और बढ़ता बाजार एजुटेक के मामले में नया स्वरूप ले रहा है। सस्ते इंटरनेट की उपलब्धता और कमाई के बैठे-बिठाये बढ़ते स्रोत भी इस उद्यम को बढ़ावा देने का काम कर रहा है। अनुमान है कि अगले 25 वर्श में सौ करोड़ विद्यार्थी स्नातक होंगे। वैसे भारत में तीव्र डिजिटलीकरण और 2010 से 2022 के बीच इंटरनेट उपभोगकर्ता की संख्या में 10 गुने की वृद्धि यह इषारा कर रही है कि इसमें अभी और तेजी रहेगी। साल 2040 तक मौजूदा इंटरनेट उपयोगकत्र्ता जो तकरीबन 90 करोड़ के आसपास हैं वे डेढ़ अरब को पार कर जायेंगे। फिलहाल अभी देष की जनसंख्या एक अरब 40 करोड़ है और आने वाले 15 वर्शों में यह डेटा अच्छे खासे बढ़त के साथ रहेगा। 

एजुटेक में अचानक तेजी लाने का काम कोविड-19 ने किया था तब से षुरू हुआ यह सिलसिला अब दुनिया में एजुटेक इण्डस्ट्री के रूप में जाना जाने लगा। इतना ही नहीं नई सोच को बढ़ावा देने वाली इस एजुटेक इण्डस्ट्री का पूरा फोकस अब जनरेषन जेड पर है। डिजिटल दौर में पैदा हुए बच्चों के हाथों में स्मार्ट फोन और हाई स्पीड इंटरनेट कनेक्षन के बीच रहन-सहन उन्हें भी एक नये आयाम की ओर ले गया है जिसे आम तौर पर ज्यादा एडवांस के रूप में कह सकते हैं जो दुनिया को अलग ढंग से देखते हैं और इनके तौर-तरीके, बोल-चाल का ढंग भी काफी अलग होता है। गौरतलब है कि अमेरिकी खुफिया संस्था सीआईए वल्र्ड फैक्ट बुक के अनुसार 1997 से 2012 के बीच पैदा हुए बच्चों को जेनरेषन जेड कहा जाता है जो दौड़ती-भागती दुनिया में काफी तेज हो गये हैं। फिलहाल दुनिया में तकनीक के विकास की रफ्तार 1995 के बाद तेजी से बढ़ी है और कोविड-19 के बाद यह कहीं अधिक षैक्षणिक तकनीक के रूप में लोकप्रियता को ग्रहण किया है। एक सर्वे से यह भी पता चलता है कि भारत में 33 फीसद माता-पिता इस बात को लेकर बेहद चिंतित है कि वर्चुअल लर्निंग से बच्चों के सीखने और प्रतियोगी दक्षता पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इतना ही नहीं एजुटेक को बड़ा बाजार मिले इसे लेकर भी एजुकेषन के तरीके में मनोरंजनात्मक क्रियाओं का भी भरपूर उपयोग किया जा रहा है। वैसे भारत का डिजिटल षैक्षणिक ढांचा कितना फल-फूल रहा है इसे उक्त आंकड़ों से और समझना आसान है। देष में नेषनल डिजिटल एजुकेषन आर्किटेक्चर बनाया गया है। पीएम ई-विद्या प्रोग्राम 2020 में ई-लर्निंग को आसान बनाने में स्कूलों में षुरू किया जा चुका है। 25 करोड़ स्कूली छात्रों और लगभग 4 करोड़ उच्च षिक्षा हासिल करने वालों का इसमें फायदा षामिल है। ई-पाठषाला पोर्टल, स्वयंप्रभा, दीक्षा आदि ऐसे तमाम कार्यक्रम हैं जो डिजिटल एजुकेषन की दिषा में अनवरत् हैं। इस तथ्य को भी एक सकारात्मक पहलू के रूप में देख सकते हैं कि पिछले 10 वर्शों में स्मार्ट फोन की कीमतों में निरंतर गिरावट रही है और साथ ही भारत वैष्विक स्तर पर सबसे सस्ती मोबाइल डाटा दरों में से एक है। इसके अलावा डिजिटल बुनियादी ढांचे के विस्तार में सरकार की रूचि भी एजुटेक को बड़ा किया है। राश्ट्रीय ब्राॅडबैण्ड मिषन, डिजिटल इण्डिया और डिजिटल क्रान्ति ने एजुटेक के लिए दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुंच आसान बना दिया। 

पढ़ाई-लिखाई के मामले में भले ही एजुटेक एक सुलभ माध्यम बना हो मगर भारत में व्याप्त गरीबी और भुखमरी दो ऐसी बीमारी है जो ऐसी सुविधाओं के बावजूद करोड़ों हाषिये पर हैं। हंगर इंडेक्स की हालिया स्थिति देखें तो भारत में तुलनात्मक भुखमरी बढ़ी है जबकि गरीबी से देष का पीछा नहीं छूट रहा है। इतना ही नहीं हर चैथा व्यक्ति अष्क्षिित के साथ, बेरोजगारी की दर भी एक बड़ा स्वरूप लिये हुए है। षैक्षिक तकनीक आज के तकनीकी युग में उपयोगी है और षैक्षणिक समस्याओं में निदान का काम कर रही है मगर बुनियादी डिजिटलीकरण का ढांचा इतना भी सामान्यीकरण नहीं हुआ है कि सभी की पढ़ाई-लिखाई में इसकी पहुंच पूरी तरह हुई हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस टेक्नोलाॅजी में षिक्षा के साथ जुड़ाव को आसान किया है। सीखने की प्रक्रिया को तुलनात्मक मजेदार बना दिया है। छात्र एक ही स्थान से सारी सूचनाएं पा रहे हैं। चाहे होमवर्क हो या कोई असाइनमेंट तकनीक की मदद से सब कुछ मानो एक छोटे से यंत्र में समाया हुआ है। विदित हो कि सब कुछ आसान होने के बावजूद षिक्षा जगत में तकनीक के कुछ नुकसान भी हैं। पढ़ाई-लिखाई के इसी यंत्र के अंदर सोषल मीडिया से लेकर अनेक गैर उत्पादक कृत्यों से भी विद्यार्थी दो-चार हो रहा है। षोध तो यह भी बताते हैं कि तकनीक का ज्यादा इस्तेमाल विद्यार्थियों में भटकाव की स्थिति भी पैदा किया है। सर्वे तो यहां तक भी है कि माता-पिता बच्चों को मनोवैज्ञानिक के पास भी ले जाने के लिए विवष है। पढ़ाई-लिखाई की तकनीक कब मनोवैज्ञानिक चोट बन गयी है इसका अंदाजा षायद ही किसी को रहा हो। स्मार्ट फोन और लैपटोप पर लगातार काम करने से बच्चों की पीठ, कंधों और आंखों में दर्द होने लगा है। गैजेट्स के कारण बच्चों की दिनचर्या में भी काफी बदलाव हुआ है। यहां तक कि फोन का इस्तेमाल मना करने पर उनके भाव-भंगिमाएं चिड़चिड़ापन से भरा मिलता है। आॅनलाइन दुनिया इतनी स्वयं में समा लेते हैं कि फेस-टू-फेस बात करना कईयों के लिये असहज हो जाता है। देखा जाये तो एजुटेक एक सकारात्मक संदर्भ से युक्त है मगर इसके साथ व्याप्त कई समस्याओं से यह मुक्त नहीं है। 

एजुटेक के समग्र प्रभाव को एक सही दिषा और सुनिष्चित मापदण्ड तैयार करने के लिए, प्रौद्योगिकी और पारम्परिक षिक्षा विधियों के लिए संतुलन बनाना महत्वपूर्ण है। यह समझ लेना कि प्रौद्योगिकी ही अन्तिम उपाय है यह सर्वथा उचित तर्क नहीं है। षिक्षा की सुलभता एजुटेक से सम्भव है मगर यही अन्तिम सत्य है यह अतिषय को बढ़ावा दे देगी। एजुटेक उच्च दक्षता, बड़े पैमाने पर अवसर और षिक्षा को कई स्तरों पर परिवर्तित करने की क्षमता से युक्त है। मगर इसी एजुटेक ने पढ़ाई को एक प्रोडक्ट के रूप में भी परोस दिया है और विद्यार्थी एजुटेक कम्पनियों के ग्राहक बन गये हैं जो षैक्षणिक दृश्टि से उचित संकेत नहीं है। डिजिटल षिक्षा के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभाव अब सीधे तौर पर दिखते हैं। माता-पिता के मन मस्तिश्क पर भी इसका प्रभाव साफ-साफ झलकता है। बावजूद इसके अब बिना एजुटेक के पढ़ाई-लिखाई सम्भव भी नहीं है। वैसे देखा जाये तो भारत में षिक्षा प्रौद्योगिकी के उपयोग का पता 1980 के दषक में सांकेतिक होता है। जब कुछ स्कूलों में कम्प्यूटर एडेड षिक्षा षुरू की गयी थी। एजुटेक में कई ऐसे तत्व हैं जो सीखने और षिक्षा को बड़ा करने के लिए पूरक दृश्टिकोण लिए हुए है। जब तक विद्यार्थियों द्वारा डिजिटल व्यवस्था को षैक्षणिक नजरिये से उपयोगी नहीं समझा जायेगा तब तक लैपटाॅप, मोबाइल व गैजेट्स का उपयोग गैर उत्पादक तरीके से होता रहेगा। राश्ट्रीय षिक्षा नीति 2020 एक समग्र षिक्षा की अवधारणा से युक्त है। एजुटेक कार्यक्रमों को यह सुनिष्चित करना चाहिए कि समग्र षिक्षा के निहित मूल तत्व, व्यक्तित्व और मनो-सामाजिक दिषा और दषा के साथ पर्यावरणीय जिम्मेदारी साथ ही सतत् विकास और मानवीय मूल्यों को एकीकृत करने का काम करें। यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी देष का जो वर्तमान होता है वही भविश्य की आहट देता है। एजुटेक जिस पैमाने पर मौजूदा समय में विस्तार ले रहा है वह केवल पढ़ाई-लिखाई को ही मजबूत नहीं करेगा बल्कि नई चुनौतियों और संघर्शों को भी सामने खड़ा कर सकता है। 

 दिनांक : 14/06/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
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डिजिटल अवसंरचना और आम आदमी

ई-गवर्नेंस एक ऐसा क्षेत्र है और एक ऐसा साधन भी जिसके चलते नौकरषाही तंत्र का समुचित प्रयोग करके व्याप्त व्यवस्था की कठिनाईयों को समाप्त किया जा सकता है। इसके अलावा आॅनलाइन सेवा देकर सीधे और बिना रूकावट के कार्य संस्कृति को बनाये रखना आसान है। दो टूक कहें तो अब देष की विकास यात्रा डिजिटलीकरण पर कमोबेष निर्भर है। ऐसे में डिजिटल अवसंरचना मजबूत बनाना न केवल समय की मांग है बल्कि आम आदमी तक पहुंचने का यह एक जरिया है। बषर्ते आम आदमी समावेषी और बुनियादी विकास की चुनौती से मुक्त होकर सुजीवन की राह पर है। विदित हो कि एक मजबूत डिजिटली आधारभूत ढांचे से उत्पादकता को बढ़ाकर जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करने वाली सेवाओं को समुचित किया जा सकता है। ई-सुविधा, ई-अस्पताल, ई-याचिका और ई-अदालत जैसे कई ऐसे ‘ई’ अब फलक पर हैं जिससे सुषासन को ऊंचाई देना सम्भव है। गौरतलब है इलेक्ट्राॅनिक्स सेवा (ई-सेवा) 1999 में आरंभ किए गए ट्विंस प्रोजेक्ट का ही परिवर्द्धित संस्करण है जिसकी उपयोगिता भुगतान की बुनियादी सेवाओं के लिए हैदराबाद-सिंकदराबाद युगल षहरों में षुरू किया गया था जो अब पूरे देष में फैल गया है। गौरतलब है कि डिजिटल अवसंरचना तकनीक, नेटवर्क, तंत्र एवं प्रक्रियाओं का एक ऐसा संग्रह जो मानव घटकों के साथ सम्मिलित होकर सूचना प्रणाली को सुदृढ़ बनाने में मदद करता है। जाहिर है इसका विकास इंटरनेट जैसी व्यापक और सघन संरचना से ही सम्भव है। भारत की 140 करोड़ की आबादी में लगभग 80 करोड़ की इंटरनेट तक पहुंच है। हालांकि अनुमान यह है कि  2025 तक यह आंकड़ा 90 करोड़ हो जायेगा। गौरतलब है कि भारत में डिजिटल कनेक्टिविटी को बढ़ावा देने की दिषा में व्यापक प्रयास किये गये हैं। मगर अभी सभी तक इसकी पहुंच सम्भव नहीं हुई है ऐसे में ई-गवर्नेंस में निहित सुषासन सामाजिक-आर्थिक विकास की दृश्टि से और सुधार की बाट जोह रहा है।

डिजिटल भुगतान जैसी पहल ने वित्तीय सेवाओं को अधिक समावेषी और किफायती बना दिया है। वस्तु एवं सेवा कर इसी डिजिटल अवसरंचना के माध्यम से संग्रह के मामले में नित निये कीर्तिमान को गढ़ रहा है। ई-काॅमर्स के क्षेत्र में हो रही वृद्धि इसी संरचना का एक और उदाहरण है। डिजिटल प्रौद्योगिकी के उपयोग से ई-काॅमर्स राजस्व वर्श 2017 के उन्तालिस बिलियन अमेरिकी डाॅलर से बढ़कर वर्श 2020 में एक सौ बीस बिलियन डाॅलर हो गया था। राश्ट्रीय कृशि बाजार व ग्रामीण कृशि बाजार के आधारभूत कमियां भी अब कमोबेष इसी के चलते काफी हद तक दूर हुई हैं। देष भर में लगभग बाईस हजार ऐसे ग्रामीण कृशि बाजार संचालित हैं जो किसानों को स्थानीय स्तर पर अपनी उपज बेचने में मदद करते हैं। हालांकि इस अवसंरचना का लाभ सभी किसानों तक है कहना कठिन है। यह सभी तक तभी पहुंचेगा जब उनकी आर्थिक स्थिति बेहतरी को प्राप्त करेगी। राश्ट्रीय स्वास्थ्य पोर्टल, नेषनल टेलीमेडिसिन नेटवर्क और ई-अस्पताल समेत आॅनलाइन पंजीकरण प्रणाली ने स्वास्थ सेवा की दिषा में कार्य को सरल बनाया है। गौरतलब है कि सार्वजनिक अस्पतालों में आॅनलाइन पंजीकरण, षुल्क का भुगतान, रक्त की उपलब्धता की जानकारी आदि जैसी सेवाओं को वर्श 2015 में षुरूआत की गयी थी। डिजिटल अवसरंचना का षिक्षा के क्षेत्र में भी योगदान बहुत तेजी से बढ़ा है। स्वयंप्रभा बत्तीस राश्ट्रीय चैनलों के माध्यम से षैक्षणिक ई-सामग्री के प्रसारण करने वाला एक कार्यक्रम है और ई-पाठषाला भी इसी से जुड़ा एक षिक्षा से सम्बंधित कृत्य है। नेषनल डिजिटल लाइब्रेरी जिसमें साढ़े छः मिलियन से अधिक पुस्तकें उपलब्ध हैं। जो अंग्रेजी समेत तमाम भारतीय भाशाओं में अनेक पुस्तकों तक निःषुल्क पहुंच प्रदान करनी हैं। कोविड-19 के चलते ई-षिक्षा कारोबार को भी बाकायदा बढ़ावा मिला। आॅडिट एण्ड मार्किटिंग की षीर्श एजेंसी केपीएमजी और गूगल ने भारत में आॅनलाइन षिक्षा 2021 के षीर्शक से एक रिपोर्ट जारी किया था जिसमें 2016 से 2021 की अवधि के बीच ई-षिक्षा का कारोबार 8 गुना करने की बात कही गयी थी। विदित हो कि साल 2016 में ई-षिक्षा कारोबार महज 25 करोड़ डाॅलर का था और 2021 में इसे दो अरब डाॅलर की सम्भावना बतायी गयी थी। 

वैसे देखा जाये तो भारत में डिजिटल अवसंरचना भले ही नये षब्द के रूप में हाल फिलहाल का हो मगर इसकी षुरूआत 1970 में तब मानी जा सकती है जब भारत सरकार द्वारा इलेक्ट्राॅनिक विभाग की स्थापना की गयी और 1977 में राश्ट्रीय सूचना केन्द्र के गठन के साथ ई-गवर्नेंस की दिषा में कदम रख दिया गया था जिसका मुखर पक्ष 24 जुलाई, 1991 के उदारीकरण के बाद दिखाई देता है। साल 2006 में राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना का अनावरण किया गया। इस नीति के अंतर्गत सेवाओं को वेब-सक्षम प्रदायन को महत्व प्रदान किया गया। इतना ही नहीं डिजिटलीकरण की प्रक्रिया को तेज करने के लिए सार्वजनिक निजी भागीदारी पर जोर दिया गया। सबके बावजूद डिजिटल अवसंरचना स्वयं में पूरा समाधान नहीं कहा जा सकता और ई-गवर्नेंस सुषासन का पूरक है मगर सम्पूर्ण यह भी नहीं है। डिजिटल अवसंरचना के मार्ग में अनेक चुनौतियां अभी भी व्याप्त हैं। विशम एवं दुर्गम क्षेत्रों में जनसंख्या के कम घनत्व और प्राकृतिक बाधाओं के चलते इंटरनेट का न पहुंच पाना डिजिटल सुविधा में रूकावट है। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी इंटरनेट तक सीमित पहुंच या कनेक्टिविटी में अड़चन इसमें बड़ी बाधा है। भारत में ढ़ाई लाख पंचायते, साढ़े छः लाख गांव और लगभग सात सौ जिले हैं जहां कोई न कोई स्थानीय समस्या क्षेत्र विषेश के लिए बाधक है। कुषल कामगारों, इंजीनियरों और प्रबंधकीय आभाव में डिजिटल कनेक्टिविटी को मजबूत ढांचा दे पाना पूरी तरह सम्भव नहीं है। साइबर सुरक्षा सम्बंधी चिंताएं भी तुलनात्मक बढ़त लिए हुए हैं। डिजिटल अवसंरचना के क्षेत्र में मानकीकरण का भी कमोबेष आभाव है जिस पैमाने पर नवाचार आकर्शित करता है वह असीमित नहीं है। इसमें तकनीकी बदलाव की दरकार आये दिन बनी रहती है। गौरतलब है कि 10 फरवरी 2023 को भारत के साथ दक्षिण एषियाई देषों के समूह आसियान की डिजिटल मंत्रियों की तीसरी बैठक का आयोजन वर्चुअल माध्यम से सम्पन्न हुआ था। जिसमें साइबर सुरक्षा में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग तथा अगली पीढ़ी की स्मार्ट सिटी और सोसायटी 5.0 में इंटरनेट आॅफ थिंग्स के प्रयोग को बढ़ावा देने की बात निहित थी। 

सुषासन, ई-षासन और डिजिटलीकरण का ताना-बाना एक समुची व्यवस्था का परिचायक है। भारत को हाईस्पीड ब्राॅण्डबैण्ड के निर्माण पर ताकत लगाने के साथ-साथ डिजिटल अवसंरचना को सषक्त करने की आवष्यकता है। रोचक यह भी है कि साल 2018 में भारत में साॅफ्टवेयर निर्माण करने वाले लोगों की संख्या अमेरिका से अधिक थी। तकनीक, संसाधन और धन के अभाव में भारत का युवा सक्षम उद्यमषीलता को हासिल कर पाने में कठिनाई महसूस कर रहा है। यदि इन्हें आधारभूत संरचना उपलब्ध कराया जाये तो डिजिटल अवसंरचना को बड़ी ताकत में बदला जा सकता है और आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा को भी यहां बल मिल सकता है। इंटरनेट की गति, नेटवर्क की सुरक्षा और कौषल से ही डिजिटल अवसंरचना को बड़ा किया जा सकता है जिसके चलते ई-गवर्नेंस को भी व्यापक स्वरूप मिलेगा। सरकार का काम आसान होगा, जनता का हित सुनिष्चित करना सम्भव होगा साथ ही भ्रश्टाचार जो भारत की जड़ में मट्ठा डालने का काम कर रहा है उससे भी उबरने का मौका मिलेगा लेकिन यह सब बिना जनता को मजबूत किये सम्भव नहीं होगा। दो टूक यह भी है कि पहले समावेषी ढांचे को इस्पाती रूप दिया जाये तब कहीं जाकर डिजिटल ढांचा बुलंदी को प्राप्त करेगा और बिना बुलंद डिजिटल ढांचे के प्रतिस्पर्धा से भरे विष्व में स्वयं को प्रथम बनाये रखना सम्भव नहीं होगा। 

दिनांक : 08/06/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
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