यदि सुशासन को नाम बड़े और दर्षन छोटे की हकीकत से आगे बढ़ना है तो जरूरी है कि यह नागरिकों की समस्याओं को सुलझाए। भारतीय राजनीति के सामने सुषासन की दिषा में अभी विविध प्रकार की चुनौतियों की भरमार है। आर्थिक चुनौतियां मौजूदा समय में सबसे अधिक विकराल रूप लिए हुए है और कई को पटरी पर लाने की कवायद जारी है मगर इन सबके बीच सुखद पक्ष यह है कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में उगाही दर बढ़त बनाये हुए है। जिससे यह तो पता चलता है कि आर्थिक गतिविधियां तुलनात्मक बेहतर हो रही हैं मगर रिज़र्व बैंक के हालिया समीक्षा रिपोर्ट को ध्यान में रखें तो महंगाई के भार से अभी एक साल पीछा नहीं छूटेगा मगर विकास प्राथमिकता में रहेगा। वित्त बगैर ऊर्जा नहीं और ऊर्जा बगैर कुछ नहीं यह ष्लोगन दषकों पहले कहीं पढ़ने को मिला था जो आज के दौर में कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है। सुषासन तभी सम्भव कहा जायेगा जब जनहित की समस्याएं निर्मूल हों। समावेषी विकास की राह हो और षान्ति और खुषहाली का बड़ा वातावरण हो और यह तब हो सकता है जब सुषासन हो और सुषासन तभी होगा जब समुचित वित्त होगा। इसी धारा में एक व्यवस्था अप्रत्यक्ष कर जीएसटी है जो आर्थिक इंजन के तौर पर देष में 1 जुलाई, 2017 को परोसी गयी जिसकी चार साल की यात्रा हो चुकी है। सुषासन की दृश्टि से जीएसटी को देखा जाये तो यह बल इकट्ठा करने का एक आर्थिक परिवर्तन था मगर सफलता कितनी मिली यह पड़ताल से जरूर पता चलेगा। हालांकि 24 जुलाई 1991 को जब उदारीकरण एक बड़ा आर्थिक नीति और परिवर्तन का स्वरूप लेकर प्रकट हुआ था तब उम्मीदें भी बहुत थी और कहना गलत न होगा कि 3 दषक पुरानी इस व्यवस्था ने निराष नहीं किया बल्कि इसी दौर के बीच में सुषासन को 1992 में सांस लेने का अवसर मिला जिसकी धड़कन की आवाज कमोबेष आज सुनी और समझी जा सकती है।
देष में कई सारे अप्रत्यक्ष करों को समाहित कर आज से ठीक 4 साल पहले 1 जुलाई 2017 को एक नया आर्थिक कानून वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू हुआ था। इस एकल कर व्यवस्था से राज्यों को होने वाले राजस्व कर की भरपाई हेतु पांच साल तक मुआवजा देने का प्रावधान भी इसमें षामिल था जिसके लिए एक कोश बनाया गया जिसका संग्रह 15 फीसद तक के सेस से होता है। नियमसंगतता की दृश्टि से जीएसटी के उक्त संदर्भ सुषासन के समग्रता को परिभाशित करते हैं मगर वक्त के साथ व्याप्त कठिनाईयों ने इस पर सवाल भी खड़ा किये। गौरतलब है कि जीएसटी लागू होने से पहले ही केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच आपस में इस बात पर सहमति का प्रयास किया गया था कि इसके माध्यम से प्राप्त राजस्व में केन्द्र और राज्यों के बीच राजस्व का बंटवारा किस तरह किया जायेगा। ध्यानतव्य हो कि पहले इस तरह के राजस्व का वितरण वित्त आयोग की सिफारिषों के आधार पर किया जाता था। जीएसटी का एक महत्वपूर्ण संदर्भ यह रहा है कि इस प्रणाली के लागू होने से कई राज्य इस आषंका में षामिल रहे हैं कि इनकी आमदनी इससे कम हो सकती है और यह आषंका सही भी है। हालांकि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए केन्द्र ने राज्यों को यह भरोसा दिलाया था कि साल 2022 तक उनके नुकसान की भरपाई की जायेगी। मगर पड़ताल यह बताती है कि बकाया निपटाने के मामले में केन्द्र सरकार पूरी तरह खरी नहीं उतर पा रही है और यह सुषासन की दृश्टि से उतना समुचित नहीं है। समझने वाली बात यह भी है कि पिछले साल दो लाख 35 हजार करोड़ रूपए की राजस्व कमी पर केन्द्र सरकार ने राज्यों को सुझाव दिया था कि वे इस कमी को पूरा करने के लिए उधार लें जिससे राज्यों में सहमति का अभाव देखा जा सकता है। इसी दौरान सरकार ने दो विकल्प सुझाये थे पहला यह कि राज्य सरकारें राजस्व की भरपाई हेतु कुल राजस्व का आधा उधार उठायेंगी और उसके मूल और ब्याज दोनों की अदायगी भविश्य में विलासिता वाली वस्तुओं और अवगुण वाली वस्तुओं पर लगाये जाने वाली क्षतिपूर्ति सेस से की जायेगी। दूसरा विकल्प यह था कि राज्य सरकारें पूरे नुकसान की राषि को उधार लेंगी लेकिन उस परिस्थिति में मूल की अदायगी को क्षतिपूर्ति सेस से की जायेगी मगर ब्याज के बड़े हिस्से की अदायगी उन्हें स्वयं करनी होगी। पहले विकल्प को बीजेपी षासित और उनके गठबंधन वाली सरकारों ने तो स्वीकार किया लेकिन षेश 10 राज्यों ने इसे खारिज किया। केन्द्र-राज्य सम्बंध की दृश्टि से यदि सुषासन को तराजू के दोनों पलड़ों पर रखा जाये तो यहां संघीय ढांचे पर बराबर उतरता दिखाई नहीं देता।
पड़ताल यह बताती है कि वित्तीय सम्बंध के मामले में संघ और राज्य के बीच समय-समय पर कठिनाईयां आती रही हैं। सहकारी संघवाद के अनुकूल ढंाचा की जब भी बात होती है तो यह भरोसा बढ़ाने का प्रयास होता है कि समरसता का विकास हो। आरबीआई के पूर्व गर्वनर डी0 सुब्बाराव ने कहा था कि जिस प्रकार देष का आर्थिक केन्द्र राज्यों की ओर स्थानांतरित हो रहा है उसे देखते हुए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में भारत का आर्थिक विकास सहकारी संघवाद पर टिका देखा जा सकता है। गौरतलब है कि संघवाद अंग्रेजी षब्द फेडरेलिज़्म का हिन्दी अनुवाद है और इस षब्द की उत्पत्ति लैटिन भाशा से हुई है जिसका अर्थ समझौता या अनुबंध है। जीएसटी संघ और राज्य के बीच एक ऐसा अनुबंध है जिसे आर्थिक रूप से सहकारी संघवाद कहा जा सकता है मगर जब अनुबंध पूरे न पड़े तो विवाद का होना लाज़मी है और सुषासन को यहीं पर ठेस पहुंचना भी तय है। वित्तीय लेन-देन के मामले में अभी भी समस्या समाधान पूरी तरह नहीं हुआ। जुलाई 2017 में पहली बार जब जीएसटी आया तब इस माह का राजस्व संग्रह 95 हजार करोड़ के आसपास था। धीरे-धीरे गिरावट के साथ यह 80 हजार करोड़ पर भी पहुंचा था और यह उतार-चढ़ाव चलता रहा। जीएसटी को पूरे 4 साल हो गये मगर इन 48 महीनों में बहुत कम अवसर रहे जब यह 1 लाख करोड़ रूपए के आंकड़े को पार किया। कोविड-19 महामारी के चलते अप्रैल 2020 में इसका संग्रह 32 हजार करोड़ तक आकर सिमट गया जबकि दूसरी लहर के बीच अप्रैल 2021 में यह आंकड़ा एक लाख 41 हजार करोड़ का है जो पूरे 4 साल में सर्वाधिक है। हालांकि बीते 8 महीने से जीएसटी का संग्रह एक लाख करोड़ से अधिक का बना हुआ है। मगर जून 2021 में यह 93 हजार पर सिमट गया जबकि जुलाई में यह एक बार फिर एक लाख करोड़ रूपए से कहीं अधिक उछाल के साथ यह बता दिया कि यह घटाव से परे है। एक दौर ऐसा भी था कि दिसम्बर 2019 तक पूरे 30 महीने के दरमियान सिर्फ 9 बार ही अवसर ऐसा था जब जीएसटी का संग्रह एक लाख करोड़ से अधिक हुआ था। जब जीएसटी षुरू हुआ था तब करदाता 66 लाख से थोड़े अधिक थे और आज यह संख्या सवा करोड़ से अधिक हो गया है। जाहिर है अप्रत्यक्ष कर के साथ कई तकनीकी समस्या हो सकती है पर जीएसटी संग्रह का लगातार बढ़ना और करदाताओं की संख्या में लगातार वृद्धि इसके सुषासनिक पक्ष को मजबूती की ओर ही इंगित करता है।
जीएसटी के इस चार साल के कालखण्ड में जीएसटी काउंसिल की 44 बैठकें और हजार से अधिक संषोधन हो चुके हैं। कुछ पुराने संदर्भ को पीछे छोड़ा जाता है तो कुछ नये को आगे जोड़ने की परम्परा अभी भी जारी है। गौरतलब है कि संविधान स्वयं में एक सुषासन की कुंजी है जहां सभी के अधिकार और स्वायत्ता को पहचान मिलती है और यहीं से सभी का कद-काठी भी बड़ा होता है। संघ और राज्य के वित्तीय मामलों में संवैधानिक प्रावधान को भी संविधान में देखा जा सकता है। समझना यहां ठीक रहेगा। अनुच्छेद 275 संसद को इस बात का अधिकार प्रदान करता है कि वह ऐसे राज्यों को उपयुक्त अनुदान देने का अनुबंध कर सकती है जिन्हें संसद की दृश्टि में सहायता की आवष्यकता है। अनुच्छेद 286, 287, 288 और 289 में केन्द्र तथा राज्य सरकारों को एक दूसरे द्वारा कुछ वस्तुओं पर कर लगाने से मना किया गया है। अनुच्छेद 292 व 293 क्रमषः संघ और राज्य सरकारों से ऋण लेने का प्रावधान भी करते हैं। गौरतलब है कि संघ और राज्य के बीच षक्तियों का बंटवारा है संविधान की 7वीं अनुसूची में संघ, राज्य और समवर्ती सूची के अंतर्गत इसे बाकायदा देखा जा सकता है। जीएसटी वन नेषन, वन टैक्स की थ्योरी पर आधारित है जो एकल अप्रत्यक्ष कर संग्रह व्यवस्था है। जिसमें संघ और राज्य आधी-आधी हिस्सेदारी रखते हैं। 80वें संविधान संषोधन अधिनियम 2000 और 88वें संविधान संषोधन अधिनियम 2003 द्वारा केन्द्र-राज्य के बीच कर राजस्व बंटवारे की योजना पर व्यापक परिवर्तन दषकों पहले किया गया था जिसमें अनुच्छेद 268डी जोड़ा गया जो सेवा कर से सम्बंधित था। बाद में 101वें संविधान संषोधन द्वारा नये अनुच्छेद 246ए, 269ए और 279ए को षामिल किया गया तथा अनुच्छेद 268 को समाप्त कर दिया गया। गौरतलब है राज्य व्यापार के मामले में कर की वसूली अनुच्छेद 269ए के तहत केन्द्र सरकार द्वारा की जाती है जबकि बाद में इसे राज्यों को बांट दिया जाता है। जीएसटी केन्द्र और राज्य के बीच झगड़े की एक बड़ी वजह उसका एकाधिकार होना भी है। क्षतिपूर्ति न होने के मामले में तो राज्य केन्द्र के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक जाने की बात कह चुके हैं। काफी हद तक इसे जीएसटी को महंगाई का कारण भी राज्य मानते हैं। सवाल यह भी है कि वन नेषन, वन टैक्स वाला जीएसटी जब अभी वायदे राज्यों से किये गये वायदे पर पूरी तरह खरा नहीं उतर रहा है तो 2022 के बाद क्या होगा जब क्षतिपूर्ति देने की जिम्मेदारी से केन्द्र मुक्त हो जायेगा। दो टूक यह भी है कि सुषासन, षान्ति का पर्याय है तो जीएसटी वित्त का। यदि वित्त का संदर्भ उचित होगा तो षान्ति समुचित होगी साथ ही संघ और राज्य संतुलित भी रहेंगे तथा सुषासन का कद तुलनात्मक बढ़ा रहेगा।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
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