Sunday, February 9, 2020

लोकतंत्र के लिए आवाज़ बुलंद करता हांगकांग

जब दुनिया आधी रात को नये साल के आगमन को लेकर महोत्सव में थी तब उसी आधी रात को हांगकांग में लोकतंत्र समर्थकों ने रैली निकालकर अपनी षक्ति का प्रदर्षन किया। लोकतंत्र की चाह के चलते हांगकांग इन दिनों रैली और आंदोलन के कारण सुर्खियों में है और दुनिया में इस बात के लिए आकर्शण का विशय है कि लोकतंत्र कितना भी पुराना क्यों न हो कुछ देषों के लिए यह अभी भी नई आवाज है। गौरतलब है कि 1997 में जब हांगकांग को चीन के अधीन किया गया था तब वादा हुआ था कि अगले 50 साल यानी 2047 तक हांगकांग को न्यायिक स्वायत्ता मिलती रहेगी। मगर लोकतंत्र समर्थकों की इस बात से निराषा हुई कि चीन सरकार ने धीरे-धीरे इसे निरंकुष व्यवस्था में तब्दील कर दिया। चीन को नाराज़ करने वाले हांगकांग के लोगों का मानना है कि साल 2012 में चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग की सत्ता में आने के बाद से ही उन पर दबाव बढ़ा है। साल 2015 में हांगकांग के कई पुस्तक विक्रेताओं को नजरबंद किये जाने के चलते चिंताएं बढ़ गयी जबकि 2014 में लोकतंत्र को समर्थन देने वाले अम्ब्रेला मूवमेंट से जुड़े 9 नेताओं को दोशी पाया गया। ब्रिटेन का उपनिवेष हांगकांग इस आधार पर चीन को सौंपा गया था कि एक देष दो व्यवस्था की अवधारणा के साथ हांगकांग को अगले 50 सालों के लिए स्वतंत्रता, सामाजिक, कानूनी और राजनीतिक व्यवस्थाएं बनाये की गारण्टी दी गयी थी। इसी के कारण हांगकांग के रहने वाले लोग स्वयं को चीन का हिस्सा नहीं मानते और उसकी आलोचना करते हैं। बावजूद इसके चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी ने हांगकांग सरकार पर प्रभाव डालती रही फलस्वरूप यहां के लोग सीधे तौर पर अपना नेता नहीं चुनते। देखा जाय तो लोकतंत्र की आवाज हांगकांग में बुलंद है और प्रदर्षनकारी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है। हालांकि चीन के सामने आजादी की चुनौती को बेहतर परिणाम में बदल पाना बहुत कठिन है मगर नामुमकिन नहीं है। 
दुनिया का बड़ा कारोबारी हब और अल्फा प्लस षहरों में षुमार हांगकांग को लेकर क्या कोई ऐसी त्रुटि रही जिसके चलते वह आंदोलन की राह पर है। गौरतलब है कि ब्रिटेन ने स्वायत्ता की षर्त पर चीन को सौंपा था लंकिन प्रत्यर्पण बिल ने लोगों की चिंताओं को बढ़ा दिया है। विरोध करने वाले चीन और हांगकांग को दो अलग देष मानते हैं। उनका कहना है कि प्रत्यर्पण बिल में जो संषोधन हुआ है वह हांगकांग की स्वायत्ता को प्रभावित करेंगे। यहां प्रत्यर्पण कानून क्या है की चर्चा लाज़मी है। हांगकांग के मौजूदा प्रत्यर्पण कानून में कई देषों के साथ इसके समझौते नहीं हैं मसलन कानून कहता है कि अगर कोई व्यक्ति अपराध कर हांगकांग वापस आ जाता है तो उसे मामले की सुनवाई के लिए ऐसे देषों में प्रत्यर्पित नहीं किया जा सकता जिसके साथ इसकी संधि नहीं है। रोचक यह है कि चीन के अधीन रहने वाला हांगकांग का प्रत्यर्पण संधि के मामले में चीन भी अब तक बाहर था। लेकिन अब जो नया कानून इसे लेकर आया है उसमें ताइवान, मकाऊ और मेनलैंड चीन के साथ भी संदिग्धों की प्रत्यर्पण करने की अनुमति देगा। यह बात उचित है कि यदि प्रत्यर्पण कानून में समय के साथ समुचित परिवर्तन नहीं किये जायेंगे तो हांगकांग भगोड़ों का स्वर्ग बन जायेगा जो सभ्य दुनिया के लिए सही नहीं है। आलोचक मानते हैं कि ऐसे कानून हांगकांग के लोगों को भी चीन की दलदली न्यायिक व्यवस्था में धकेल देगा। वैसे देखा जाय पिछले पांच वर्श से चल रहे आंदोलन का कोई खास नतीजा नहीं निकला है। 2007 में यह निर्णय किया गया था कि 2017 में होने वाले चुनाव में हांगकांग के लोगों को मताधिकार का अधिकार मिलेगा। उम्मीद थी कि चीनी व्यवस्था धीरे-धीरे लोकतांत्रिक बनेगी पर 2017 के चुनाव के तीन साल पहले हांगकांग को लोकतांत्रिक विचार देने की जो पेषकष की गयी वह वहां के लोगों को अपर्याप्त लगा। इसी के कारण सविनय अवज्ञा आंदोलन षुरू हुआ जिसे अम्ब्रेला आंदोलन या आॅक्युपाई सेन्ट्रल नाम दिया गया। दरअसल आंदोलनकारी पीले रंग के बैंड और छाते अपने साथ लेकर आये थे जिसके चलते येलो अम्ब्रेला प्रोटेस्ट इसे नाम दिया गया। 
वैसे देखा जाय तो हांगकांग और चीन के बीच जमीन-आसमान का अंतर है। चीनी न्याय व्यवस्था और हांगकांग की व्यवस्था में कोई मेल नहीं है। चीन के भीतर तमाम गोपनीय बाते हैं जिसका विवरण जनता को नहीं दिया जाता है जबकि हांगकांग की व्यवस्था ब्रिटिष माॅडल पर देखी जा सकती है। यहां के लोगों में चीन एक भ्रम यह भी नहीं निकाल पायी कि वे उसके अधीन बिल्कुल सुरक्षित हैं। यहां के वासियों में इस बात का भी डर है कि फेसबुक पोस्ट के लिए भी उसे गिरफ्तार करके चीन भेजा जा सकता है। जो माहौल इन दिनों बना है ऐसा ही मिलता-जुलता माहौल 2003 में बना था जब हांगकांग को एक नया कानून लाया जा रहा था। एक स्थिति यह भी है कि चीन कहीं अधिक कट्टर है। ऐसा लगता है कि यदि वह उदारवादी लोकतांत्रिक देष होता तो हांगकांग का विलय सहज होता। चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी में महान होने का भ्रम हमेषा रहता है तो ब्रिटिष माॅडल पर बने हांगकांग को कभी समझ में नहीं आयेगा। वैसे ऐसी स्थिति कुछ ताइवान की भी है। हजारों की तादाद पर लोकतंत्र की आवाज को बुलंद करते हांगकांग के नागरिक कई तरह की समस्याओं को भी झेल रहे हैं। प्रदर्षनकारी तो यह भी मांग कर रहे हैं कि चीन के व्यवसायी यहां से चले जायें। उनके लिए हांगकांग छोड़ो का नारा भी लगाया जा रहा है। समस्या यह है कि चीन का उपनिवेषवाद बना हांगकांग पर दुनिया भी खामोष है। तमाम प्रदर्षनों के बावजूद कुछ खास सफलता नहीं मिल पा रही है। मई 2019 में जर्मनी ने हांगकांग से भागे दो कार्यकत्र्ताओं को षरण देने से जुड़ी पुश्टि की थी। तब लगा था कि दुनिया के कुछ देष हांगकांग के मनोबल बढ़ाने में कदम बढ़ रहे हैं। चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग चेता चुके हैं कि हांगकांग के लोग आंदोलन के बदले भुगतान करने के लिए तैयार रहें। इसमें कोई दो राय नहीं कि आर्थिक षक्ति के रूप में पहचान बना चुके चीन के आगे ये आंदोलनकारी ढ़ेर हो जायेंगे। उल्लेखनीय है कि चीन अपने करीब 10 लाख उइगर और ज्यादातर मुस्लिम जातीय अल्पसंख्यकों को उत्तर पष्चिमी प्रांत षिंजियांग में हिरासत में रखने को लेकर अन्तर्राश्ट्रीय आलोचना का सामना कर रहा है। बावजूद इसके उसके माथे पर कोई बल नहीं दिखता। 
बीते दिसम्बर में हांगकांग में स्थानीय चुनाव के पष्चात् एक हफ्ते तक षान्ति रहने के पष्चात् हजारों की तादाद में अमेरिका को समर्थन के लिए षुक्रिया अदा किया गया और अमेरिका दूतावास तक मार्च किया गया। कहा तो यह भी जा रहा है कि विष्व की सबसे बड़ी सेना पीपुल्स लिब्रेषन आर्मी के सैनिकों को हांगकांग में तैनात किया गया है जो पहली बार ऐसा हुआ है। चाइना माॅर्निंग पोस्ट की खबर यह पुख्ता करती है कि वाकई में वहां आर्मी लगायी गयी है। सवाल कई हैं मसलन क्या हांगकांग की मांग प्रत्यर्पण कानून के मामले में उतनी समुचित है मसलन जब एक हांगकांग के नागरिक ने ताइवान में एक महिला की हत्या की और हांगकांग वापस आ गया मगर प्रत्यर्पण कानून ताइवान के साथ न होने से उसे प्रत्यर्पित नहीं किया जा सकता। जहां तक लगता है एक सुलभ और सभ्य दुनिया में प्रत्यर्पण कानून सही है मगर लोकतंत्र गला घोंटना सर्वथा गलत है। जिस ब्रिटिष माॅडल पर हांगकांग की रोपाई हुई है यदि उसी आधार पर चीन उन्हें सहूलियत प्रदान करे तो वहां के नागरिकों का भ्रम दूर किया जा सकता है मगर अपने 14 पड़ोसी देषों से दुष्मनी लेने वाला चीन स्वयं को सुप्रीम समझने की जो गलती करता रहा है उसी का खामियाजा यह विरोध है। दुनिया अभी खामोष है पर समझ में सभी को आ रहा है कि चीन के अधीन हांगकांग लोकतंत्र की नई आहट में है जिसके लिए आवाज लगा रहा है। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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