Monday, February 10, 2020

द्विपक्षीय सम्बन्ध मज़बूत करेगा यह दौरा

श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिन्द्रा राजपक्षे जो कुछ साल पहले श्रीलंका के राश्ट्रपति हुआ करते थे इन दिनों वे भारत के दौरे पर हैं। जिन्हें चीन के प्रति झुकाव रखने के लिए जाना जाता है जबकि इनके छोटे भाई गोटबाया राजपक्षे पिछले साल नवम्बर में राश्ट्रपति बने। मगर राश्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों भाई भारत की यात्रा करके विष्वास बहाली के साथ द्विपक्षीय रिष्तों को मजबूत करने का प्रयास करते दिखाई दे रहे हैं। रही बात भारत की तो वह दक्षिण एषिया में षान्ति बहाली का न केवल दूत है बल्कि सार्क देषों में वह सभी के लिए बड़े भाई की भूमिका में भी रहता है। श्रीलंका और मालदीव को लेकर भारत की चिंता अन्य दक्षिण एषियाई देषों से अलग है। इसका मूल कारण हिन्द महासागर में चीन का बढ़ता दबदबा रहा है। गौरतलब है कि अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी दक्षिण एषिया में षान्ति हेतु भारत को एक बेहतरीन देष मानते हैं। भारत पड़ोसी प्रथम की नीति पर 1997 से चलायमान है जबकि मोदी षासनकाल में यह कहीं अधिक परवान चढ़ा है। ध्यानतव्य हो कि श्रीलंका में सत्ता का परिवर्तन महज तीन माह पुराना है पर सम्बंध सदियों से चला आ रहा है। प्रधानमंत्री मोदी 2015, 2017 और 2019 में श्रीलंका की यात्रा कर चुके हैं। जो पड़ोसी धर्म के लिहाज़ से बहुत समुचित रहा है। श्रीलंकाई प्रधानमंत्री महिन्द्रा राजपक्षे की चार दिवसीय यात्रा दोनों देषों के सम्बंधों के विविध आयामों को नया रूप तो देगा ही साथ ही चीन के प्रति बढ़े झुकाव को संतुलित करने के तौर पर भी इस यात्रा को देखा जा रहा है। 
कार्यक्रम का लब्बोलुआब यह है कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ षिश्टमण्डल की बैठक के अलावा पूरी यात्रा में राजघाट से षुरू होकर वाराणसी, सारनाथ, बोधगया और तिरूपति तक रहेगी जिसे सामाजिक और धार्मिक दृश्टि से कहीं अधिक पुख्ता करार दिया जा सकता है। दस वर्श तक श्रीलंका के राश्ट्रपति रहे राजपक्षे के समय में चीन ने अपने निवेष को लगातार श्रीलंका में बढ़ाया और अरबों डाॅलर उधार दिया और श्रीलंका चीनी युद्धपोतों के लिए अपना घर खोल दिया। साल 2017 में चीन के साथ करीब 400 करोड़ डाॅलर के हथियारों का सौदा हुआ हालांकि तब उनकी सत्ता नहीं थी। श्रीलंका चीन को हब्बनटोटा द्वीप सौंपकर भारत के लिए चिंता की नई लकीरें पहले ही खींच चुका है मगर श्रीलंका को भी यह समझ होगी कि चीन से दोस्ती और भारत से बेरूखी पूरी तरह सम्भव नहीं है। फिलहाल यह दौरा दोनों देषों के बीच वार्शिक रक्षा वार्ता और समुद्री सुरक्षा सहयोग को बल देगा साथ ही 45 करोड़ डाॅलर की उस ऋण सुविधा के क्रियान्वयन को भी अन्तिम रूप दिये जाने की भी स्थिति होगी जिसका प्रधानमंत्री मोदी भी नवम्बर में नई दिल्ली में श्रीलंकाई राश्ट्रपति गोटबाया की यात्रा के दौरान वादा किया था। गौरतलब है कि गोटबाया की यात्रा इस बात की तस्तीक थी कि भले ही नई सत्ता चीन से प्रभावी रही हो पर भारत की अहमियत को श्रीलंका कमतर नहीं आंकता है। 
भारत और श्रीलंका के बीच समुद्र के चलते कुछ दूरियां जरूर रहीं मगर फासले कभी नहीं रहे। यह दौरा दोनों देषों के बीच कितना विष्वास भर पायेगा यह तो समय ही बतायेगा। मगर इस मामले में काफी कुछ जिम्मेदारी श्रीलंका की ही होगी क्योंकि श्रीलंका के प्रत्येक परेषानी में साथ ही उसके उत्थान और विकास को लेकर भारत कभी पीछे हटा ही नहीं। तमिल विवाद के हल से लेकर जाफना में रेल की पटरी बिछाने और चिकित्सालय, विद्यालय व संचार तकनीक के अलावा अन्य बुनियादी मामलों में भारत श्रीलंका के लिए बहुत कुछ करता रहा है। भारत के लिए श्रीलंका महत्वपूर्ण है क्योंकि दक्षिण एषिया समेत दक्षिण पूर्व एषिया और हिन्द महासागर में चीन का लगातार दबदबा भारत को सामरिक और व्यापारिक दोनों दृश्टि से कमजोर कर रहा है और चुनौती भी दे रहा है। यही कारण है कि भारत आसियान देषों में अपनी पकड़ मजबूत करने की फिराक में लगातार बना हुआ है साथ ही दक्षिण चीन सागर में दखल के साथ हिन्द महासागर में बढ़े चीन के प्रभाव को संतुलित करना चाहता है। ऐसे में दक्षिण पूर्व एषियाई देष आसियान की भूमिका महत्वपूर्ण है और आसियान भी दक्षिण चीन सागर में चीन के एकाधिकार से नाराजगी जाहिर करता रहा है मगर वहां के बाजार पर चीन का जिस तरह कब्जा है उसे देखते हुए वे खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं। इतना ही नहीं आसियान के रास्ते भारत पैसिफिक देषों मसलन दक्षिण कोरिया, जापान और आॅस्ट्रेलिया के अलावा अन्य द्वीपीय देषों पर अपनी पहुंच और बढ़ाना चाहता है। ऐसे में श्रीलंका के साथ द्विपक्षीय सम्बंध हिन्द महासागर के साथ चीन की संलग्नता को देखते हुए बेहद अहम है। फिलहाल राजपक्षे परिवार श्रीलंका में पांच साल राज रहेगा और आना-जाना लगा रहेगा। दो टूक यह भी है कि भारत को दरकिनार करना श्रीलंका के लिए कभी भी सहज नहीं हो सकता। ऐसे में भारत को रणनीतिक दृश्टि से न केवल चैकन्ना रहना चाहिए बल्कि पड़ोसी प्रथम की नीति को अपने हितों को ध्यान में रखते हुए बेबाकी से आगे बढ़ते रहना चाहिए।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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