Wednesday, February 12, 2020

इतिहास बने भी और दोहराये भी गए

लोकतंत्र का अर्थ देष काल और परिस्थितियों के अनुपात में स्वयं परिश्कृत होता रहा है। दिल्ली राज्य की राजनीति का क्षितिज पक्ष यह रहा है कि यहां नये मिजाज और नये लोकतंत्र की ऐसी परिभाशा गढ़ी गई जो रोचक होने के साथ सियासी जगत में भी हलचल का काम किया। 11 फरवरी को आये दिल्ली विधानसभा के ताजा नतीजों ने एक बार फिर राजनीतिक पण्डितों के लिए विमर्ष का विशय प्रदान कर दिया। 70 के मुकाबले 62 पर जीत दर्ज करके केजरीवाल ने यह संदेष दे दिया कि काम करोगे तो वोट मिलेगा। इसके पहले फरवरी, 2015 के नतीजे तो एक चर्चित लोकतंत्र का स्वरूप ही अख्तियार कर लिया था जब 67 सीटें जीत कर भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दलों को धूल चटा दी थी जिसमें भाजपा तीन और कांग्रेस षून्य पर रही। इस बार के आंकड़े भी बहुत अलग नहीं है। आम आदमी पार्टी 5 सीट कम पायी है और भाजपा 3 से 8 पर हो गयी है जबकि कांग्रेस पहले की स्थिति में ही है। वैसे राजनीति विडम्बनाओं और विरोधाभासों का पुंज है बावजूद इसके बगैर देष का काम चलता नहीं है। किसी सरकार या राजनेता का मूल्यांकन करने के लिए कभी-कभी दषकों लग जाते हैं मगर केजरीवाल ने अपने पांच साल की सरकार में यह बता दिया कि नीयत में साफ और दिल्ली के विकास को लेकर वे एक समर्पित नेता है। जब सरकारें रिपोर्ट कार्ड की बात करती हैं तब ऐसा लगता है कि विकास कागजों पर उकेरा जायेगा जबकि हकीकत यह है कि विकास जनता को महसूस करना चाहिए। इसमें कोई दुविधा नहीं कि मुख्य विरोधी भाजपा ने दिल्ली की गद्दी हथियाने के लिए संगठन और मानव संसाधन का अतिषय उपयोग किया और राश्ट्रवाद के अलावा तत्कालीन घटना षाहीन बाग और सीएए आदि को चुनावी मुद्दा बना दिया। केजरीवाल पर कई आपत्तिजनक आरोप भी लगाये गये। भाजपा के छुटभइया नेताओं के बड़े बोल और बड़े नेताओं के ओछे बोल भी इस चुनाव के हिस्सा थे फिर भी परिणाम डाक के तीन पात ही रहे। सत्ता की मजबूत हूंकार भरने वाले दिल्ली की पांच साल से सरकार चला रहे केजरीवाल का स्पश्ट संदेष था कि विकास पर वोट मांग रहे हैं। यही बात भारतीय लोकतंत्र और राजनीति में एक नई करवट का इषारा कर रही है मुख्यतः उनके लिए जो जाति, धर्म और क्षेत्र के बीच गुजर कर अपनी सत्ता की कुर्सी पाना चाहते हैं।
दरअसल लोकतंत्र ऐसी विधा है जहां सभी का समावेषन बड़ी आसानी से तो हो जाता है पर जब निभाने की बारी आती है तब वादे और इरादे की पोल-पट्टी खुलती है। लोकतंत्र में आलोचनाओं की कोई कमी नहीं होती। केजरीवाल भी इससे परे नहीं है मगर सत्ता प्राप्ति के लिए जो जनता के लिए करना चाहिए उसे करना उन्हें आता है। बिजली, पानी मुफ्त, महिलाओं का यातायात मुफ्त, सुरक्षा-संरक्षा, षिक्षा और चिकित्सा पर दिल्ली सरकार ने जो कदम उठाये और चुनावी मुद्दा बनाया वही बड़ी जीत का मुख्य कारण बना। केन्द्र में भाजपा सरकार दूसरी पारी खेल रही है। देष मन्दी के दौर से गुजर रहा है, बेरोजगारी चरम पर है और आर्थिक तौर पर जनता कमजोर महसूस कर रही है। हालांकि सरकार जम्मू-कष्मीर से अनुच्छेद 370 का खात्मा समेत कुछ वाजिब मुद्दों पर सही कदम भी उठाये मगर बुनियादी विकास के बगैर लोकतंत्र चलता नहीं है। पहली बार 2013 में कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने वाले अरविन्द केजरीवाल केवल 49 दिन मुख्यमंत्री रहे और इस्तीफा दे दिया। जबकि 2015 में भारी-भरकम जीत के साथ वापसी की। क्रान्तिकारी विचारधारा से राजनीति कितनी चलती है इस पर सबके अपने-अपने आंकलन थे पर केजरीवाल ने यह सिद्ध किया है कि लोकतंत्र के साथ-साथ कामकाज में भी क्रान्तिकारी स्थिति पैदा की जा सकती है। सार्वजनिक मुद्दों पर बड़ी सहजता से बोलते हैं लगता है सीखने की आदत से अभी गुरेज नहीं किये। समय के साथ केजरीवाल को लोग समझने लगे और विष्वास भी काफी हद तक करने लगे थे। केजरीवाल ने एक काम और किया है कि लोगों के मन में यह बिठा दिया है कि यदि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलता है तो उनकी सरकार दिल्ली वालों के लिए कायाकल्प वाली सिद्ध होगी। हालांकि यह सपना अभी अधूरा है। 
भारत राज्यों का संघ है और इसी संघ में 28 राज्य और दिल्ली समेत 9 केन्द्रषासित प्रदेष हैं। केजरीवाल इस मामले में भी सफल कहे जायेंगे कि एक छोटे से अधिराज्य दिल्ली के मुख्यमंत्री होते हुए उन्होंने दिल्ली को उतना ही बड़ा बना दिया जितना बड़ा देष है। लोकतंत्र की विधाओं को जब खरोंच लगती है तब जनता हुंकार भरती है। 1993 से दिल्ली में सरकारों का चलन षुरू हुआ सुशमा स्वराज, मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा सहित षीला दीक्षित यहां की सत्ता पर आदि काबिज हुए ये पहले से सियासत के धनी और राजनीति के अनुभवी रहे थे जबकि केजरीवाल सियासत का पूरा ककहरा रटने से पहले ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गये थे। दो टूक यह है कि राजनीति का एक गैर अनुभवी व्यक्ति लोकतंत्र के मामले में षिखर पर और सत्ता के मामले में बहुधर्मी प्रयोग के लिए वो मान्यता हासिल किया जिसके लिए बरसों खपाने पड़ते हैं। जनता परिपक्व है सियासत के साथ सत्ता को भी समझती है। मीडिया से लेकर भाजपा और कांग्रेस के सभी कद्दावर नेताओं ने केजरीवाल को उतना भारयुक्त नहीं माना था जितना उन्होंने स्वयं को सिद्ध किया है।
सरकार के कार्यों की क्या षैली हो इसका अनुकरण भी केजरीवाल के लिए बड़ी चुनौती थी। भ्रश्टाचार को लेकर उनकी बेदाग छवि लोकतंत्र को भुनाने में बड़ी काम आई। अन्ना आंदोलन में उनकी पैठ और उससे मिली षोहरत राजनीतिक धु्रवीकरण में एक पूंजी की तरह पहले से थी। सबके बावजूद एक ऐसे मुख्यमंत्री के तौर पर उभरे कि देष की सियासत में बड़ा वजूद विकसित किया। षायद ही किसी प्रदेष के मुख्यमंत्री को इतनी ताकत और षिद्दत से पहले कभी लोकप्रियता मिली हो। दिल्ली की बागडोर इतनी आसान भी नहीं है यह षहरी मिजाज का है, यहां की परिवहन व्यवस्था को सुचारू बनाना, प्रदूशण से निपटना, बिजली, पानी, सुरक्षा के साथ विषेशतः महिला सुरक्षा के लिए मजबूत इंतजाम करना तो चुनौती है ही साथ ही स्कूल, काॅलेजों की व्यवस्था, स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाना आदि आज भी केजरीवाल के लिए किसी जंग से कम नहीं है। बीते 5 वर्श में जितना बोया गया है और जितना काटने की उम्मीद की जा रही है उसके बीच संतुलन देखा जा सकता है। कई बार परिस्थितयों के भंवर में भी फंसे हैं। इनके मंत्रिपरिशद् के सदस्यों पर फर्जी डिग्री के आरोप लगना, इनके भ्रश्टाचार मुक्त अवधारणा को झटका देते हैं। कुछ अन्य मंत्रियों और पूर्व मंत्रियों पर आरोप लगना भी इन्हें खास से आम बनाने के काम करते रहे हैं। जनवरी 2016 में प्रदूशण से निपटने के लिए पहले बार आॅड-ईवन फाॅर्मूला का सफलता दर जिस तरह से बयान किया गया है वह बहुत समुचित और कारगर रहा। दिल्ली की जनता ने भी इसे हाथोंहाथ लिया है और बिना किसी जोर जबरदस्ती के इसका साथ दिया। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीष से लेकर कई आला अफसरों ने केजरीवाल के इस फाॅर्मूले को प्रोत्साहित किया। फिलहाल इसका प्रयोग समय-समय पर कई बार हुआ है। 
जब दिल्ली में विधानसभा के नतीजे केजरीवाल के पक्ष में एकतरफा हुए तब लोकतंत्र की दुनिया में एक नई बहस फिर छिड़ गयी कि ऐसे जनाधार का क्या आधार था। जाहिर है दिल्ली विधानसभा का चुनाव केजरीवाल ने दिल्ली की पिच पर लड़ा जबकि भाजपा राश्ट्रवाद के पिच पर खड़ी थी। एक ओर बिजली, पानी और रोटी थी तो दूसरी ओर राश्ट्रवाद, सीएए और एनआरसी था। भाजपा के थिंक टैंक को भी यह सोचना होगा कि यदि परिवहन को सुधारने चले हैं तो रेलगाड़ी के मुनाफे को वायुयान में लागू करने से काम नहीं चलेगा। फिलहाल चुनावी नतीजे देखकर तो कह सकते हैं कि दिल्ली की जनता केजरीवाल की जनता है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल 
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

No comments:

Post a Comment