Monday, July 9, 2018

किसान की सक्षमता उसके बदलाव का वाहक

यह बात वाजिब ही कही जायेगी कि कृषि प्रधान भारत में कई सैद्धांतिक और व्यावहारिक कठिनाईयों से किसान आज भी बुरी तरह जूझ रहे हैं। हालात यह संकेत करते हैं कि इससे निपटने के लिये सरकारों के पास बहुत उम्दा रणनीति का आभाव भी रहा है। साल 1952 में प्रथम पंचवर्शीय योजना कृशि प्रधान थी तब देष की जनसंख्या 36 करोड़ थी और 90 फीसदी के आस-पास खेती-बाड़ी से जुड़ी थी। बीज, पानी, और पैदावार समेत सिंचाई सुविधा का आभाव और तकनीकी तौर पर नगण्य कृशि व्यवस्था उस दौर की थी पर अब ऐसे हालात नहीं है। बीते सात दषकों में देष बदला, देष की दिषा बदली, आर्थिक और तकनीकी पक्ष भी बदले, साथ ही खेत-खलिहानों की स्थिति भी बदली। किसानों ने दिल खोलकर पैदावार भी बढ़ाई मगर जिन्दगी बदहाल उन्हीं की रही। दो टूक यह है कि अधिक पैदावार देने के बावजूद भी देष का अन्नदाता पाई-पाई के लिये मोहताज रहा और जिन्दगी को बदहाली से उभरने में नाकाम भी रहा है। सवाल दो हैं पहला यह कि किसान जब उत्पादन देने में अव्वल है तो कीमत देने में सरकारें संकुचित क्यों रही हैं। दूसरा जब तकनीकी तौर पर सरकारों का नियोजन कहीं अधिक उम्दा है तो किसानों के जीवन में बड़ा बदलाव क्यों नहीं आया। बड़ा बदलाव तो छोड़िये आंकड़ों में यह अम्बार है कि बीते ढ़ाई दषकों से तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। मोदी षासन के चार साल में भी किसानों को उतना फायदा नहीं मिला है जितना कहा गया है और उनसे उम्मीद की गयी थी। बीते दिनों सरकार ने समर्थन मूल्य में वृद्धि करने की घोशणा की सम्भव है कि यह 2019 के लोकसभा से प्रेरित होकर उठाया गया कदम है। हालांकि सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिये वचनबद्ध है।
गौरतलब है कि मोदी सरकार ने किसानों की आय बढ़ाने की बात पिछले बजट में भी की थी। केवल 23 फसलों के समर्थन मूल्य अदायगी पर ही नहीं बल्कि उन तमाम पैदावार पर भी दृश्टि गड़ानी होगी जहां सरकारों की नजर कम पड़ती है और किसानों की हालत पस्त रहती है। आलू, टमाटर, मौसमी फल, साग-सब्जी आदि के चलते किसानों की मौसमी अर्थव्यवस्था को बल मिलता है जबकि आम तौर पर किसान और जनता गेहूं, चावल और दाल आदि पर ही नजर गड़ाये रहती है। अगला बजट जाहिर है चुनावी आचार संहिता के दायरे में होगा ऐसे में विषेश घोशणा कर पाना सरकार के लिये उतना सम्भव नहीं होगा। षायद उसी को ध्यान में रखते हुए फिलहाल समर्थन मूल्य की बढ़त से किसानों की किस्मत बदलने का एक प्रयास अभी-अभी हुआ। सरकार के खरीफ फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी के फैसले से कुछ आर्थिक समीकरण भी इधर-उधर होंगे। मुद्रा स्फीतिक दबाव बढ़ने के साथ ही सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी पर भी 0.1 से 0.2 तक प्रभाव पड़ सकता है जिसके चलते वित्तीय लक्ष्य पाने में भी मुष्किल आयेगी। जीडीपी के इस प्रभाव से साल 2018-19 के राजकोशीय घाटे के लक्ष्य को पाने के लिये ऊँचे राजस्व खर्च कम करने की जरूरत भी होगी। आम चुनाव से पहले किसानों को राहत देने वाला यह फैसला जो बीते 4 जुलाई धान के एमएसपी में दो सौ रूपए प्रति कुंतल की वृद्धि समेत अन्य फसलों के एमएसपी में 52 प्रतिषत तक की बढ़ोत्तरी की गयी है। एमएसपी में की गयी यह बढ़ोत्तरी सरकार, किसान और जनता तीनों के लिये एक साथ षायद ही मुनाफे का हो। ऊंचे एमएसपी से महंगाई बढ़ेगी और जीडीपी से भी असर पड़ेगा मगर राहत भरी बात यह है कि देष के अन्नदाता की माली हालत पहले से कुछ सुधरेगी। विषेशज्ञों का कहना है कि इस कदम से खाद्य सब्सिडी बिल बढ़कर दो लाख करोड़ रूपए तक पहुंच जायेगा। मुद्रा स्फीति बढ़ने का जोखिम है जाहिर है राजकोशीय घाटा भी बढ़ेगा मगर यदि इन सबसे किसान की स्थिति में बड़ा बदलाव आता है तो यही सुकून की बात होगी। 
देष में खाद्यान्न उत्पादन पिछले साल के रिकाॅर्ड लगभग 28 करोड़ टन के उत्पादन को इस वर्श पार कर सकता है इसके पीछे जो वजह बतायी जा रही है उसमें मानसून बेहतर रहने, ऊंचे न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा फसल उत्पादकता में सम्भावित वृद्धि। इस समय खरीफ की फसल धान की रोपायी तेजी पकड़े हुए है। इसके उत्पादक राज्यों में बारिष की भी गुंजाइष बेहतर बतायी गयी है। मोदी सरकार ने 14 खरीफ फसलों का एमएसपी बढ़ाने की घोशणा करके किसानों के मन में यह बात पैदा कर दिया है कि उनके अच्छे दिन आने वाले हैं। फलस्वरूप किसान इसे लेकर प्रोत्साहित हुआ होगा। मानसून यह भी कह रहा है कि कुछ हिस्सों में बारिष कम रहने की वजह से जाहिर है धान की रोपाई भी कम होगी और पैदावार भी। देष की किसानों ने गेहूं, चावल और मोटे अनाजों को लेकर हर किस्म का पैदावार दिया पर उनकी जिन्दगी सतरंगी नहीं हुई है। पिछले साल धान लगभग 80 लाख हेक्टेयर में रोपा गया था जबकि दलहन करीब 42 लाख हेक्टेयर में था। किसानों की एक समस्या यह रही है कि उत्पादन अधिक होने की स्थिति में उनके अनाज बिकते नहीं है और कम होने की स्थिति में सरकारें विदेष से अनाज मंगाती हैं। यही बात प्याज़ जैसे उत्पादन पर भी लागू होती है। वर्शों पहले जब दलहन का दाम आसमान छू रहा था तब मोजाम्बिक और म्यांमार समेत कुछ अन्य देषों से सरकार ने इसकी खरीदारी की। दाल की कीमतों को देखते हुए किसान दलहन की खेती के लिये प्रोत्साहित हुए और उत्पादन तुलनात्मक बेहतर दिया बावजूद इसके एमएसपी से एक-तिहाई दर से कम पर उन्हें दाल अड़ातियों को बेचना पड़ा। मसलन 5050 रूपये दलहन का समर्थन मूल्य था जबकि किसानों ने इसे 35 रूपये कुंतल में बेचा था। दुःखद यह है कि कम उत्पादन में देष नहीं चल सकता और अधिक उत्पादन में किसान के लिये यह जंजाल बनता है। किसानों की किस्मत केवल उत्पादन की बढ़ोत्तरी पर नहीं उचित मूल्य और हर हाल में उसके पैदावार की गारंटी पर ही कुछ बेहतर हो सकता है अन्यथा समर्थन मूल्य की बढ़त से भी बातें आंकड़़ों तक ही रह जायेंगी।
प्रसिद्ध अर्थषास्त्री ज्यां द्रेज जो बेल्जियम मूल के हैं फिलहाल भारत के नागरिक हैं उन्होंने भी मोदी सरकार को आर्थिक वृद्धि की सनक से बाहर निकलने की जरूरत बतायी। ऐसे नजरिये अपनाने की बात कही जिसमें विकास का व्यापक परिप्रेक्ष्य हो। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सरकार आंकड़ों को लेकर बहुत आष्वस्त रहती है जबकि सच्चाई यह है कि बदलाव दिखना चाहिए। देष का हर चैथा व्यक्ति अभी भी गरीबी रेखा के नीचे है, किसान का आत्महत्या वाला सिलसिला थमा नहीं है, बेरोजगारी 2017 की तुलना में इस वर्श बढ़त में रहेगी इसे भी आंकड़े बता चुके हैं। 2025 तक जीडीपी दोगुनी की बात हो रही है और इसके पहले 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जायेगी। चुभता हुआ सवाल यह है कि मौजूदा अर्थव्यवस्था में यदि इतनी बड़ी-बड़ी खासियत छुपी है तो विकास और बदलाव को लेकर अंधेरा क्यों है। बेरोजगारी, बीमारी और गरीबी समेत कई किस्म की बुनियादी समस्याओं का देष में संजाल है और अषिक्षा अभी भी हर चैथे व्यक्ति में है पर आंकड़े सुकून भरे हैं। फिलहाल किसानों से षुरू कहानी का अंत किसानों से ही होना लाज़मी है। इस सच के साथ कि कृशि उत्पादों के दाम तय करने वाले कृशि लागत एवं मूल्य आयोग अर्थात् एमएसपी द्वारा लागत मूल्य तय करने वाली प्रक्रिया लम्बे समय से सवालों के घेरे में रही है। सवाल है कि क्या किसान को तय मूल्य मिलेंगे यदि मिलेंगे तो उसकी एवज में उनके जीवन की अन्य कठिनाईयां कितनी सुलभ होंगी। बीज, बिजली, सिंचाई और कर्ज की समस्या से किसान आज भी दो-चार होता है। स्पश्ट है कि केवल समर्थन मूल्य की बढ़ोत्तरी से काम नहीं चलेगा बल्कि किसान के स्वयं की सक्षमता उसके जीवन का बदलाव सिद्ध होगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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