Monday, July 2, 2018

समावेशी विकास के कितने समीप जीएसटी !

जब 30 जून और 1 जुलाई, 2017 के रात के ठीक 12 बजे तत्कालीन राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री मोदी ने बटन दबाकर जीएसटी का षुभारम्भ किया था तब यह उम्मीद जगी थी कि आर्थिक विकास का इंजन कहा जाने वाला जीएसटी अप्रत्यक्ष करों में बाढ़ तो लायेगा ही साथ ही समावेषी विकास को भी बल देने के काम आयेगा। जीएसटी को लागू हुए एक बरस हो गया जाहिर है इस दौरान सरकार ने सपने भी दिखाये और उसे परवान भी चढ़ाने की कोषिष की पर नतीजे कितने सफल कहे जायेंगे यह पड़ताल का विशय है। 1 जुलाई को केन्द्र सरकार ने जीएसटी दिवस मनाने का फैसला लिया जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है वहां जीएसटी को लेकर अनगिनत षिकायतें हैं। भाजपा षासित राज्य और उनके नेता जीएसटी का बखान करने में पूरी कूबत खर्च कर रहे हैं पर इसे समग्रता में देखने की आवष्यकता है। पिछले साल जुलाई में जीएसटी के चलते 95 हजार करोड़ अप्रत्यक्ष कर वसूला गया था जो जून 2018 में भी इसी आंकड़े के साथ बना हुआ है। हालांकि इस बीच आंकड़ा 80 हजार करोड़ से लेकर एक लाख करोड़ से ऊपर देखने को मिला है। मौजूदा वित्त वर्श में सरकार का अनुमान है कि जीएसटी से राजस्व 13 लाख करोड़ रूपए होगा। इस हिसाब से प्रति माह यह एक लाख दस हजार करोड़ के आसपास रहेगा। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सरकार ने जीएसटी के माध्यम से अर्थव्यवस्था को नया रूप देने की कोषिष की पर यह सवाल पहले और अब भी सुलग रहा है कि कोई भी अर्थव्यवस्था चाहे वह कितनी भी दुरूस्त क्यों न हो, यह आवष्यक है कि वह समावेषी विकास के कितने समीप है। धन की उगाही से संचित निधि भरा जा सकता है मगर जनहित को सुनिष्चित करने वाली नीतियां यदि आभाव में हो तो इसका अर्थ समुचित नहीं रहता। 
पूरे देष की अप्रत्यक्ष कर की व्यवस्था में एकरूपता लाने के लिये जीएसटी जरूरी थी लेकिन इसमें किये जा रहे निरंतर बदलाव एवं सुधार ने लोगों को बेचैन भी किया और अभी भी यह सिलसिला थमा नहीं है। जीएसटी को नोटबंदी के साथ जोड़कर भी देखा जाना वाजिब है। बामुष्किल 8 महीने के भीतर देष ने दो बड़े बदलाव देखे जिसमंे 8 नवम्बर 2016 को नोटबंदी और 1 जुलाई, 2017 की जीएसटी। हालांकि इसके पीछे देष की भलाई ही देखी गयी पर जैसे-जैसे वक्त बीतता गया इसमें अनेकों खामियां भी सामने आयीं। इसके पहले 24 जुलाई 1991 को देष में तब बड़ा आर्थिक बदलाव आया था जब नई आर्थिक नीति के अंतर्गत उदारीकरण को अपनाया गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि समय के साथ बढ़ी हुई चुनौतियों से निपटने के लिये बड़े और जोखिमपूर्ण फैसले लेने पड़ते हैं। देष की सत्ता को आर्थिक बदलाव के बीच यह चिंता रही है कि गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी पर इसका क्या असर पड़ेगा। उदारीकरण के बाद जब वर्श 1992-97 के लिये आठवीं पंचवर्शीय योजना बनी तो उसमें समावेषी विकास को तवज्जो मिला। गरीबी यदि सामाजिक अभिषाप है तो समावेषी विकास इसकी मुक्ति का उपाय है। गरीबी उन्मूलन के लिये पांचवीं पंचवर्शीय योजना में प्रयास षुरू हुए जबकि बेरोजगारी के लिये उदारीकरण एक अच्छा हथियार था पर समय के साथ काज अधूरा रहा। ढ़ाई दषक बाद मोदी सरकार ने नई आर्थिक नीति को तवज्जो देते हुए बरसों से अटके जीएसटी को पिछले वर्श 1 जुलाई को लागू कर लिया पर सवाल दोबारा फिर वही खड़ा हुआ कि आखिर समावेषी अवधारणा का क्या हुआ। देष में अभी भी हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और इतना ही अषिक्षित भी। प्रति वर्श देष भर से तीन करोड़ ग्रेजुएट बनते हैं और 50 लाख से अधिक पोस्ट ग्रेजुएट और इन्हीं में से कई डाॅक्टरेट की डिग्री लेते हैं। देखा गया है कि बेरोजगारी के चलते उत्तर प्रदेष में चपरासी की नौकरी के लिये पीएचडी धारक भी आवेदन किये थे। भले ही सरकार के तमाम दावे हों और जीएसटी से कर उगाही बेषक बढ़ी हो पर युवाओं की किस्मत बदलने में ये हद तक नाकाम रहे हैं। रोचक यह भी है कि उत्तराखण्ड में वेतन देने के लिये सरकार को ऋण लेना पड़ता है जबकि यहां के वित्त मंत्री कह रहे हैं कि जीएसटी के बाद राज्य की आय दोगुनी हो गयी है। जीएसटी की बड़ाई करते समय वे यह भूल जाते हैं कि यह यदि बढ़त हुई है तो अन्य चीजें आभाव में क्यों हैं। नीतियों को धरातल पर लाकर जनता के जीवन में परिवर्तन भरना लोकतांत्रिक सरकार की ड्यूटी है न कि आंकड़ों की बाजीगरी में उलझाना। क्या यह बात सही नहीं है कि जब उत्तराखण्ड की आय दोगुनी हुई है तो विकास दोगुना क्यों नहीं?
समय के साथ समावेषी विकास की धारा और विचारधारा भी परिमार्जित हुई है। सुगम्य भारत अभियान, अल्पसंख्यकों के हितों की चिंता और महिला सषक्तिकरण समेत उन्नत कौषल एवं प्रषिक्षण विकास से सुसज्जित होने के लिये कई सामाजिक, आर्थिक कृत्य वर्तमान सरकार के एजेण्डे में हैं। पुराने भारत को न्यू इण्डिया में तब्दील करने की चाहत भी मोदी सरकार की है। कैषलेस का दम भरने वाली सरकार ने 19 लाख करोड़ रूपये से अधिक की नकदी को चलन में लाकर इसका भी पलीता लगभग निकाल दिया है। हालांकि सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि ई-वे बिल से पांच हजार करोड़ तक जीएसटी संग्रह बढ़ा है। कहा जाय तो कोई भी परिवर्तन सरकार की सोच के विरूद्ध नहीं है पर जनता के हित में कितना है यह चिंतन का विशय है। नोटबंदी और जीएसटी के चलते कमजोर कारोबारी धारणा और नई परियोजनाओं में गिरावट के कारण बिजनेस स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थियों के लिये भी रोजगार तेजी से घट रहा है। एसोचेम की रिपोर्ट बताती है कि पहले 30 प्रतिषत एमबीए पास करने वाले विद्यार्थियों को रोजगार आसानी से मिल जाता था लेकिन अब यहां भी स्थिति खराब है। आॅल इण्डिया काउंसिल फाॅर टेक्निकल एजुकेषन के आंकड़े भी यह दर्षाते हैं कि जाॅब मार्केट में नौकरी की मौजूदगी कम हुई है। इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों की हालत कहीं अधिक खराब है। अब तो काॅलेजों में आधी भी सीटें नहीं भर रही हैं। कई तो बंद हो चुके हैं और कुछ बंद होने के कगार पर है। इंटरनेषनल लेबर आॅर्गेनाइजेषन की रिपोर्ट के अनुसार 2017 की तुलना में साल 2018 में देष में बेरोजगारी दर बढ़ेगी जबकि सरकार मुद्रा योजना के तहत ऋण लेने वाले और अनेक विधाओं से युक्त युवाओं को रोजगार से जोड़कर एक नई दुविधा पैदा किये हुए है। आमतौर पर सरकार यह मानती है कि उपरोक्त के चलते वह 12 करोड़ से अधिक लोगों को रोज़गार दे चुकी है। यदि यह सही है तो समावेषी विकास का पूरा सामंजस्य समाज में क्यों नहीं दिखता और विकास दर के साथ गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी को लेकर सकारात्मकता देष में क्यों नहीं प्रदर्षित होती।
जीएसटी लागू करने का मकसद एक देष, एक कर प्रणाली है जबकि इस ष्लोगन में भी कुछ खामियां दिखाई देती हैं इसमें एक देष तो है पर कर अनेक हैं। यहां करों का चार स्लैब है जिसमें 5, 12, 18 और 28 फीसदी है। वित्त मंत्री कह रहे हैं कि आय बढ़ी तो टैक्स घटेगा। सभी जानते हैं कि दुनिया में सैकड़ों देष जहां भी जीएसटी लागू है वहां अधिकतम 10 फीसदी ही टैक्स है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी स्पश्ट किया है कि दूध और मर्सिडीज़ पर एक कर सम्भव नहीं है। कथन तो वाजिब है पर जीएसटी में हो रहे प्रयोग को लेकर जल्दी निपटना सही रहेगा। सैद्धान्तिक रूप से जीएसटी एक स्वागत योग्य कदम है पर प्रारूप की गड़बड़ी ने मामला भी उलझा दिया और संघीय ढांचे के अंदर कुछ हद तक आर्थिक उथल-पुथल भी मचाया है। फिलहाल जीएसटी को लेकर खींचातानी से भरी राय अभी भी देष में चल रही है। यह तब तक जारी रहेगी जब तक इसके साइड इफैक्ट से निपटने में सरकार कामयाब नहीं होती। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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