Wednesday, July 4, 2018

लोकपाल पर अब कोई बहाना नहीं

ये कितना वाजिब है कि जिस लोकपाल के लिये 1968 से कानून बनाने का प्रयास जारी था जब उसे लेकर साल 2013 में विधेयक पारित हुआ और वर्श 2014 में प्रभावी भी कर दिया गया बावजूद इसके अब तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो सकी है। भ्रश्टाचार को जड़ से खत्म करने की बात करने वाली मोदी सरकार का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया कि आखिर तमाम वैधानिक और संस्थागत ढांचे में इस व्यवस्था को षामिल कर दिया जाय तो उनके मिषन को ही और बल मिलेगा। विधेयक को पारित हुए पांच साल हो गये और लोकपाल के मामले में सरकार की उपलब्धि षून्य ही कही जायेगी। लोकपाल की नियुक्ति में देरी पर देष की षीर्श अदालत ने बीते 2 जुलाई को केन्द्र सरकार से तल्ख भरे लहजे में कहा है कि 10 दिन के भीतर देष में लोकपाल की नियुक्ति की समय सीमा तय कर उसे सूचित करें। न्यायपालिका की यह चिंता लाज़मी है और सरकार को जगाने के लिये यह करना जरूरी भी है। हालांकि सरकार की ओर से पेष महाधिवक्ता के.के. वेणुगोपाल ने अदालत को बताया कि लोकपाल चयन समिति की षीघ्र ही बैठक होगी। जाहिर है यह सरकार का रटा-रटाया जवाब भी हो सकता है और ऐसा लगता है कि इस जवाब से उच्चत्तम न्यायालय कतई संतुश्ट नहीं हुआ होगा। समय सीमा मे जवाब देने की बात इसे पुख्ता करती है। लोकपाल और लोकायुक्त को लेकर बीते पांच दषक से कोषिष चल रही है। यह हैरत भरी बात है कि भारत में भ्रश्टाचार पर नियंत्रण तथा नागरिकों के षिकायतों के निवारण के लिये एक वैधानिक संस्था बनाने में पांच दषक से अधिक वक्त खर्च हो गया फिर भी तमाम दावे और इरादे जताने वाली तत्कालीन सरकार लोकपाल देने में फिसड्डी रही। पड़ताल बताती है कि लोकपाल और लोकायुक्त जैसी संस्था को लेकर वर्शों से केन्द्र और राज्य सरकारों ने कसरत किया है। हालांकि कुछ राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति हुई है। पहली बार महाराश्ट्र ने 1973 में लोकायुक्त की नियुक्ति कर इस प्रथा की षुरूआत की जबकि इससे जुड़े विधेयक (1970) को पास करने का श्रेय ओड़िसा को जाता है। भारत के कई राज्य आज भी लोकायुक्त से वंचित हैं। साफ है कि बीते चार वर्शों में केन्द्र ने लोकपाल और कई राज्यों में लोकायुक्त की कमी सरकार के इरादे को सषक्त होने का संकेत तो नहीं देते।
प्रथम प्रषासनिक सुधार आयोग (1966-1970) की सिफारिष पर नागरिकों की समस्याओं के समाधान हेतु दो विषेश प्राधिकारियों लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति प्रकाष में आयी जो स्कैण्डनेवियन देषों के इंस्टीट्यूट आॅफ ओम्बुड्समैन और न्यूजीलैण्ड के पार्लियामेन्टरी कमीषन आॅफ इन्वेस्टिगेषन की तर्ज पर की गयी। आयोग ने न्यूजीलैण्ड की तर्ज पर न्यायालयों को इस दायरे से बाहर रखा। हालांकि स्वीडन में न्यायालय भी लोकपाल और लोकायुक्त के दायरे में आते हैं। तत्कालीन सरकार ने इसकी गम्भीरता को देखते हुए 1968 में पहली बार इसे अधिनियमित करने हेतु संसद की चैखट पर रखा पर बात आगे नहीं बढ़ी। सिलसिलेवार तरीके से यह विधेयक दस अलग-अलग समय और सरकारों में उलझता हुआ 2013 में आखिरकार अधिनियमित हो गया। हालांकि इसे अधिनियम रूप देने के लिये देष में व्यापक पैमाने पर आंदोलन हुए। गौरतलब है कि केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त को लेकर गांधीवादी अन्ना हजारे ने धरना प्रदर्षन, उपवास कर तत्कालीन कांगेस की सरकार को कानून बनाने के लिये उन दिनों विवष किया था पर यह अधिनियम उतना मजबूत नहीं माना गया परन्तु इस आधार पर संतुश्टि जतायी गयी थी कि भविश्य में इसकी खामियों को दूर कर लिया जायेगा। वक्त निकलता गया न तो किसी ने अधिनियम पर गौर किया और न ही आज तक लोकपाल की नियुक्ति हुई और लोकायुक्त को लेकर भी कई राज्य मामले लटकाये हुए है। सामाजिक कार्यकत्र्ता अन्ना हजारे ने इसी साल 23 मार्च को एक बार फिर अनषन पर बैठे थे और कहा था कि इस बार वे आर-पास की लड़ाई लड़ेंगे। गौरतलब है कि लोकपाल अधिनियम बनने से पहले अन्ना आंदोलन से दिल्ली का रामलीला मैदान ही नहीं देष के हर षहर और नुक्कड़ भी आंदोलित था पर जब मार्च में मोदी सरकार के खिलाफ अन्ना एक बार फिर आंदोलन का रूख लिया तो इस बार न तो मीडिया ने कोई रूचि दिखाई और न ही जनता की भीड़ थी। सप्ताह भर के भीतर तीन मांगों वाला आंदोलन जिसमें एक लोकपाल, लोकायुक्त और चुनावी सुधार भी था समाप्त हो गया।
यह बात भी सही है कि सरकारें चाहे मजबूत हो या कमजोर समय-समय पर कभी जनता को तो कभी न्यायपालिका को इन्हें जगाना ही पड़ता है जैसा कि न्यायपालिका ने लोकपाल के मामले में सो रही मोदी सरकार से पूछ लिया है कि लोकपाल क्यों नहीं?दरअसल गैर सरकारी संगठन काॅमन काॅज़ इसके लिये लम्बे समय से लड़ाई लड़ रहा है इसी संगठन की एक याचिका पर 27 अप्रैल, 2017 को षीर्श अदालत ने एक आदेष पारित किया था कि मौजूदा कानून किसी सदस्य की अनुपस्थिति से लोकपाल की नियुक्ति को नहीं रोक सकता। दरअसल वर्तमान कानून के अनुसार चयन समिति में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में लोकसभा अध्यक्ष, मुख्य न्यायाधीष या उनके द्वारा नामित उच्चत्तम न्यायालय का कोई भी न्यायाधीष अथवा विख्यात न्यायविद सदस्य होंगे। इस संदर्भ के अंतर्गत निहित परिप्रेक्ष्य यह है कि लोकसभा में विपक्ष का नेता नहीं है तो समिति के अन्य सदस्य जाने माने न्यायविद को चुन सकती है। असल में इस कानून में नियुक्ति पैनल में लोकसभा में विपक्ष के नेता का प्रावधान है। मुष्किल यह है कि मौजूदा 16वीं लोकसभा के गठन में विपक्ष का नेता नहीं है। दरअसल मुख्य विपक्षी की भूमिका वाली कांग्रेस 44 लोकसभा सदस्यों के साथ मान्यता प्राप्त विपक्ष से बाहर है। हालांकि उपचुनाव में तीन सीटें बढ़ने से अब यह संख्या 47 हो गयी है। गौरतलब है कि 543 लोकसभा सीट की तुलना में 10 फीसदी सीट पर चुनाव जीतने वाले दल ही इस मान्यता को प्राप्त कर सकते हैं। रोचक यह है कि सरकार इसी खामी का फायदा उठाते हुए लोकपाल नियुक्ति को टालती रही। जिस तर्ज पर यह वाकया है उसे लेकर कुछ वैधानिक रूकावटें दिखती हैं पर सरकार की उदासीनता से ऐसा लगता है कि लोकपाल नियुक्ति के मामले में उसने भी आतुरता नहीं दिखाई है। काॅमन काॅज़ ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार के विरूद्ध अवमानना याचिका दायर कर दी। दलील यह दी जा रही है कि सरकार ने षीर्श अदालत के आदेष को दरकिनार किया है। अब जब एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट इस मामले में तल्खी दिखाई है तो जाहिर है सरकार भी सुस्त नहीं बैठेगी। बावजूद इसके चिंता की बात तो यह है कि जनवरी 2014 से लोकपाल एवं लोकायुक्त कानून बन चुका है और नियुक्ति के बगैर यह सब चल रहा है। वोट की राजनीति करने वाले सियासी दल जिस कदर लोकपाल को लेकर उदासीनता दिखाई है उससे यह भी साफ होता है कि भ्रश्टाचार से निपटने या नागरिकों के षिकायतों के निवारण के प्रति उनकी कथनी और करनी में अंतर है। वैधानिक और संस्थागत ढांचे के अंतर्गत देष में दो दर्जन से अधिक भ्रश्टाचार पर नियंत्रण की एजेंसियां हैं। बावजूद इसके भ्रश्टाचार के दंष से भारत मुक्त नहीं है। स्कैण्डिनेवियन देषों की जिस तर्ज पर लोकपाल व लोकायुक्त लाने का प्रयास था उन देषों के हालात यह हैं कि वहां भ्रश्टाचार ख्यालों में भी नहीं है और मानव विकास सूचकांक अव्वल है। यहां इस व्यवस्था को आये दो सौ से अधिक वर्श बीत चुके हैं। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट का यह आदेष कि बिना नेता विपक्ष के ही लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया पूरी करें यह अपने आप में संतोश से भरा निर्णय है। जाहिर है अब सरकार कोई बहाना नहीं कर सकती।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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