Monday, July 23, 2018

.. तो क्या 2019 राहुल बनाम मोदी होगा !

जैसा प्रतीत हो रहा था हूबहू वैसा ही हुआ। कांग्रेस 2019 के लोकसभा का चुनाव राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाकर और समान विचार वाले दलों से समझौता करके लड़ने का इरादा जता दिया है। साथ ही यह भी तय कर दिया है कि सहयोगियों के बूते वह 300 सीट जीतना चाहेगी जबकि अकेले के बूते आंकड़ा इससे आधा बता रही है। बीते 20 जुलाई को अविष्वास प्रस्ताव की रस्म अदायगी पूरी हुई जो दिन में राहुल बनाम मोदी और रात में मोदी बनाम राहुल हो गया था। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण कहता है कि 2014 के चुनाव के बाद कांग्रेस एक अस्वस्थ राजनीति की ओर चली गयी है। लगातार विधानसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस पार्टी के लिये निराषा के अलावा कुछ नहीं दिये। हालांकि पंजाब में कांग्रेस ने सत्ता हासिल की और मणिपुर तथा गोवा में सत्ता के समीप रही पर सरकार भाजपा के हिस्से आयी। गुजरात और हिमाचल में भी मोदी मैजिक जारी रहा जबकि उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में तो मोदी मैजिक सर चढ़कर बोला। हालांकि बीते मई में कर्नाटक मंे गठबंधन के साथ सत्ता में आकर कांग्रेस ने अपनी सियासत को थोड़ा धारदार किया है मगर पड़ताल बताती है कि भारत के कुल 29 राज्यों में जमा 5 में यह सिकुड़ कर रह गयी है जो उसके सियासत में सबसे खराब दौर है। लोकसभा का चुनाव अगले वर्श होना है इन चार सालों में मोदी सरकार ने कुछ अच्छे तो कुछ कठघरे में खड़े होने वाले काम भी किये हैं। अविष्वास प्रस्ताव के समय राहुल गांधी बदले तेवर में सरकार की कमजोरियां बता रहे थे जिसमें किसानों के मुद्दे, बेरोजगारी, भागीदारी, देष में बिगड़ी कानून-व्यवस्था समेत राफेल डील को लेकर कई सवाल खड़े किये। 11 घण्टे से अधिक उस दिन सदन की कार्यवाही चली और विभिन्न दलों के दर्जनों लोकसभा सदस्य व मंत्री अपना-अपना भाशण दिये। सत्ता के विरोध में जो भाशण था कमोबेष राहुल गांधी के मुद्दों के इर्द-गिर्द था जिससे लगा कि सरकार के सामने कांग्रेस ही विरोधी के तौर पर है और केन्द्र में राहुल गांधी है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि अविष्वास प्रस्ताव से जुड़ी पूरी कार्यवाही मोदी बनाम राहुल था। तो क्या यह मान लिया जाय कि जिस मुद्दों पर राहुल गांधी ने सदन में दमखम दिखाया वही 2019 की लोकसभा में भी रहेगा और सरकार जिस तरह सफाई देकर अपना बचाव किया और आंकड़ों के साथ विपक्ष को चित्त करने की कोषिष की उससे यही लगता है कि सदन में राहुल ने मोदी को और बाद में मोदी ने राहुल को जवाब दिया। यदि ऐसा है तो बीते 22 जुलाई को राहुल गांधी को कांग्रेस कार्यसमिति ने प्रधानमंत्री के रूप में जो पेषगी की वह काफी हद तक मुनासिब प्रतीत होता है। 
कांग्रेस कार्यसमिति का फैसला जल्दबाजी का तो नहीं लगता पर मोदी के मुकाबले राहुल को लेकर देष कितना सहज होगा यह समझने वाली बात है। अविष्वास के दिन राहुल गांधी का आत्मविष्वास बढ़ा हुआ तो दिखाई दिया। यदि समय रहते यह संदेष लोगों में चला गया कि 2019 राहुल बनाम मोदी है तो यह राहुल के लिये बड़ी बात होगी परन्तु रास्ता सहज होगा कहना कठिन है हालांकि इसका फायदा भाजपा उठाना चाहेगी। सवाल उठता है कि क्या 2019 के लोकसभा में एनडीए अपने स्वरूप में रह पायेगा और कांग्रेस को वे समान विचारधारा वाले लोग मिल पायेंगे जिसकी वे उम्मीद लगाये बैठे हैं। ठीक-ठीक कहना दोनों तरफ से सम्भव नहीं है। विष्वास मत के दिन दो पहलू दिखे, पहला यह कि एनडीए के घटक षिवसेना ने इससे दूरी बनायी जबकि स्वर्गीय जय ललिता का दल एआईडीएमके के 37 सांसदों ने मोदी का समर्थन किया। उड़ीसा का जनता दल और तेलंगाना का तेलंगाना राश्ट्र समिति ने अविष्वास प्रस्ताव के समय सदन से अनुपस्थित रह कर यह संदेष दे दिया है कि सरकार को फायदा तो पहुंचायेंगे परन्तु प्रत्यक्ष नहीं होंगे। साथ ही यह भी बता दिया कि केन्द्र में किसी की भी सरकार हो बिगाड़ नहीं करेंगे। बाकी दलों ने अपने-अपने ढंग से काम किया है। राहुल गांधी को पीएम के तौर पर परोसना कांग्रेस के लिये भी कोई सरल काज नहीं है। 44 से 48 सीट हो चुकी कांग्रेस अकेले 150 कैसे पहुंचेगी यह गुणा-भाग कांग्रेस ही जाने और गठबंधन के बूते 300 का आंकड़ा भी पूरी तरह पच नहीं रहा है। यदि ऐसा होता भी है तो प्रधानमंत्री के दावेदार और भी उभर सकते हैं हालांकि कांग्रेस ने राहुल गांधी का नाम आगे बढ़ा कर यह जता दिया है कि महागठबंधन में जो आयेगा साफ है कि राहुल के नेतृत्व को स्वीकार कर रहा है। वैसे ठीक बात तो यह है कि मोदी के मुकाबले राहुल बड़े नेता नहीं है पर खानदानी नेता होने के नाते धाक जमा सकते हैं। बसपा की मायावती, सपा के अखिलेष यादव, टीएमसी की ममता बनर्जी समेत वामपंथ से लेकर नरम-गरम बहुत सारे पंथ मोदी को हराने की फिराक में हैं पर दाल कैसे गलेगी इसकी रणनीति षायद ही किसी के पास हो। रोचक यह भी है कि महागठबंधन के नेता राहुल गांधी घोशित कर दिये गये जिसमें कांग्रेस के अलावा कोई दल नहीं है। समझ से परे है कि कांग्रेस के प्रधानमंत्री उम्मीदवार राहुल गांधी महागठबंधन के प्रधानमंत्री उम्मीदवार कैसे हो गये।
खास यह भी है कि जिन्होंने अविष्वास प्रस्ताव के दिन सरकार का साथ दिया है जरूरी नहीं है कि 2019 में भी साथ होंगे। एआईडीएमके ने अभी पत्ते नहीं खोले हैं जबकि रजनीकांत तमिलनाडु में ताल ठोंक रहे हैं। हो सकता है भाजपा सेंधमारी करते हुए एआईडीएमके को पटकनी देने के लिये रजनीकांत से हाथ मिला ले। हालांकि फायदे में भाजपा तब रहेगी जब एआईडीएमके का साथ मिले। उड़ीसा में बीजू जनता दल भाजपा के सीधे विरोध में है पर सदन में अनुपस्थित रहकर नरम रूख दिखाया है। मगर ऐसा लगता है कि असल राजनीति में तो आमने-सामने ही रहेगी। बिहार में नीतीष कुमार बहुत छटपटा रहे हैं। पूरी तरह तो नहीं कहा जा सकता पर तेजस्वी यादव के राजद की बढ़त से उन्हें चिंता हो रही है। जाहिर है राजद, जदयू और कांग्रेस का 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन था जो अब छिन्न-भिन्न हो चुका है। राहुल गांधी को राजद का साथ मिल सकता है परन्तु उत्तर प्रदेष में मायावती और अखिलेष यादव का जो उपचुनाव में गठबंधन दिखा वह आगे जारी रह सकता है जैसा कि संकेत दिया जा चुका है मगर राहुल गांधी प्रधानमंत्री के रूप में भी इन्हें स्वीकार होंगे यह मामला खटाई में ही दिखता है। पष्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और वामपंथियों के बीच छत्तीस का आंकड़ा है और तीसरे दल के रूप में भाजपा भी वहां उलट-फेर की फिराक में रहती है। इसके आसार कम ही हैं कि टीएमसी और वामपंथ साथ आयेंगे। आन्ध्र प्रदेष और तेलंगाना में सियासत अलग किस्म की है। जहां चन्द्र बाबू नायडू की तेलुगू देषम पार्टी एनडीए से हटकर अविष्वास प्रस्ताव ला चुकी है वहीं टीआरएस सदन से अनुपस्थित रह कर न तो सरकार के पक्ष में और न ही विपक्ष में होने का संकेत दे दिया है। ये दोनों दल भविश्य में किस करवट बैठेंगे आगे पता चलेगा हालांकि चन्द्र बाबू नायडू आन्ध्र प्रदेष के विषेश दर्जे को लेकर मोदी के विरोधी में हैं पर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करेंगे इसकी सम्भावना कम ही दिखती है। समान विचारधारा का क्या मतलब है इसका उत्तर किसी भी दल के पास स्पश्टता के साथ नहीं है जो सियासत के काम आ जाये चाहे मजबूरी में ही सही वही समान विचारधारा हो जाती है। महाराश्ट्र में षिवसेना और भाजपा के विचार दो रास्ते पर चल पड़े हैं। सम्भव है कि मंजिल भी अलग-अलग हो जाये। यहीं से राजनीति करने वाले षरद पंवार भी काफी नरम रवैये वाले नेता रहे हैं हो सकता है राहुल गांधी को महत्व दे दें। फिलहाल देष की सियासत का मजनून यह है कि मोदी के मुकाबले राहुल को खड़ा किया जा चुका है। अब देखना यह है कि इन दोनों के साथ कौन खड़ा होता है।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

No comments:

Post a Comment