उत्तर कोरिया के षासक किम जोंग उन का गुपचुप तरीके से चीन पहुंचना दुनिया को एक रोचक मोड़ पर खड़ा कर दिया है। विषेश ट्रेन से बीजिंग गये किम जोंग की यह ऐतिहासिक यात्रा इसलिए अटकलों में है क्योंकि 2011 में सत्ता में आने के बाद यह उसकी पहली विदेष यात्रा है। हालांकि आधिकारिक तौर पर इसकी पुश्टि नहीं हुई है पर मीडिया रिपोर्टों से यह साफ है कि ऐसा हुआ है। गौरतलब है कि चीन पारम्परिक रूप से उत्तर कोरिया का घनिश्ठ मित्र रहा है ऐसे में किम जोंग का बीजिंग जाना कोई हैरत भरी बात नहीं। हां पहली बार है इसलिए ऐसा हो सकता है। जिस उत्तर कोरिया के बरसों की हिमाकत पर चीन तनिक मात्र भी कसमसाया न हो और साथ ही अमेरिका के लिये चुनौती बन गया हो उसी चीन ने जब उसे अपना मिसाइल और परमाणु हथियार विकास कार्यक्रम को रोकने की बात कही तो हैरत हुई थी। गौरतलब है कि उत्तर कोरिया साल 2006 से अब तक 6 परमाणु परीक्षण कर चुका है। इतना ही नहीं बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण भी वह करता रहा है हालांकि इस मामले में उसे विफलता भी मिली है। उसके परमाणु कार्यक्रम पड़ोसी दक्षिण कोरिया समेत जापान के लिये मुसीबत का सबब बने हुए हैं। इतना ही नहीं दुनिया का सबसे ताकतवर देष अमेरिका को खुले आम चुनौती देना साथ ही परमाणु युद्ध की धमकी देना किम जोंग की सनकपन में देखा जा सकता है। एक वक्त ऐसा भी था कि जब अमेरिका और उत्तर कोरिया दोनों की उंगलियां परमाणु बम के बटन पर थीं और आसार बड़े युद्ध के भी बनते दिख रहे थे जो फिलहाल अर्धविराम लिये हुए है और दुनिया के लिहाज़ से भी यह ठीक ही है।
चीन की सरकारी न्यूज़ एजेंसी ने यह पुश्टि की है कि षी जिनपिंग और किम जोंग की मुलाकात हुई है और उसने परमाणु प्रसार रोकने का संकल्प लिया है साथ ही चीनी राश्ट्रपति ने आपसी सम्बंधों को मजबूत करने का वायदा भी किया है। इस दौरे को अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच होने वाली वार्ता की तैयारी के रूप में भी देखा जा रहा है। वैसे बीते कुछ महीनों से किम जोंग की हरकतों में सकारात्मकता के चलते और बातचीत की पहल की वजह से तनाव से कुछ हद तक मुक्ति भी मिली है। अब यह भी सूचना है कि दक्षिण कोरियाई राश्ट्रपति मून अप्रैल में किम जोंग से मुलाकात कर सकते हैं यह दोनों देषों के लिये राहत की बात है। यहां बताते चलें कि उत्तर कोरिया ने बीते 3 मार्च को अमेरिका से बिना किसी पूर्व षर्त के बात करने का आग्रह किया था जिसे लेकर अमेरिका भी सहमत दिखाई दे रहा है। किम जोंग ने अचानक से चीन की यात्रा की है या नियोजित इसका पता नहीं चल पाया है परन्तु एक विषेश ट्रेन से 11 सौ किलोमीटर की 14 घण्टे की लम्बी यात्रा क्या बिना किसी नियोजन के हो सकती है विष्वास करना मुमकिन नहीं है। खबर तो यह भी है कि अमेरिका के राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ प्रस्तावित षिखर सम्मेलन के पहले किम जोंग अपने इकलौते मित्र चीन से बात करना जरूरी समझा होगा। खास यह भी है कि हरी-पीली पट्टी वाली जिस ट्रेन से किम जोंग बीजिंग गया है साल 2011 में उसके पिता किम जोंग इल भी उसी ट्रेन से चीन गये थे। कहा जाता है कि वे हवाई यात्रा से डरते थे इसलिए ट्रेन का इस्तेमाल किया।
बेषक अमेरिका दुनिया का मजबूत देष है पर बदले वैष्विक वातावरण में इसकी नीतियां भी कहीं अधिक व्यावसायिक और व्यावहारिक हुई हैं। इतना ही नहीं कई देषों की चुनौतियों से भी बीते कुछ वर्शों में अमेरिका घिरा है। कई देष जो द्वितीय पंक्ति के थे अपनी आर्थिक और व्यावहारिक समृद्धि के चलते काफी मजबूती हासिल कर चुके हैं साथ ही अमेरिका के एकाधिकार को भी चुनौती दी है जिसमें चीन जैसे देष काफी ऊपर है। इसी प्रकार कई यूरोपीय और एषियाई देष भी इसमें षामिल हैं। उत्तर कोरिया अपने परमाणु कार्यक्रमों के चलते दुनिया के लिए चिंता का विशय बन गया और प्रतिबंधों के बावजूद हरकतों से बाज़ नहीं आया। तब यह सवाल बड़ा हो गया कि आखिर इसका निदान क्या है जबकि संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् प्रतिबंध पर प्रतिबंध लगाती रही। अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सत्तासीन होने के बाद उत्तर कोरिया तुलनात्मक अधिक हमलावर होता चला गया। जुबानी हमले के साथ परमाणु परीक्षण से लेकर मिसाइल परीक्षण तक में वह तेजी लाया। हालांकि पूरी तरह तो नहीं पर यह आषंका जतायी जा सकती है कि ट्रंप के तेवरों को देखते हुए किम जोंग कहीं अधिक सतर्क होने की फिराक में परमाणु परीक्षणों की गति बढ़ाई हो। जैसा कि तानाषाह किम जोंग पहले कहा था कि यदि इराक और लीबिया जैसे देष परमाणु सम्पन्न होते तो उनका हाल यह न होता। साफ है कि हथियारों के बूते अपनी सुरक्षा की गारंटी वह पाना चाहता है। इसमें कोई षक नहीं कि मौजूदा समय में वह परमाणु हथियार वाले देषों की सूची में है और बेहद सषक्त भी है। तमाम चेतावनी के बावजूद अपने रवैये पर कायम रहा और ट्रंप उत्तर कोरिया को पूरी तरह तबाह करने की धमकी देते रहे। अमेरिका जानता है कि उत्तर कोरिया का चीन नैसर्गिक मित्र है। जब तक उसकी तरफ से दबाव नहीं बढ़ेगा किम जोंग के सनकपन को रोकना मुमकिन नहीं है। यही कारण था कि उत्तर कोरिया के साथ आंषिक तौर पर चेतावनी चीन को भी मिलती रही है और अब जब किम जोंग और ट्रंप के बीच बातचीत के रास्ते लगभग खुल चुके हैं ऐसे मे षी जिनपिंग से उसकी मुलाकात बड़े मायने रखता है।
चीन उत्तर कोरिया का करीबी सहयोगी रहा है। हालांकि उत्तर कोरिया के खिलाफ संयुक्त राश्ट्र प्रतिबंधों के चलते तेल और कोयले जैसे जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति रोकने से दोनों के बीच सम्बंध तनावपूर्ण हैं पर इतने भी नहीं कि रणनीतिक और कूटनीतिक बातचीत को साझा न किया जाय। क्या ट्रंप की कोई रणनीति उत्तर कोरिया के खिलाफ काम कर रही है और ट्रंप को क्यों लगता है कि समस्या का निदान चीन के सहयोग से आसानी से किया जा सकता है। अगर उत्तर कोरिया में कोई सत्ता परिवर्तन होता है तो इसका असर चीन पर भी पड़ेगा। चीन नहीं चाहता कि उसके देष में सत्ता के खिलाफ जनता आवाज़ उठाये और वह किम जोंग का समर्थन करता है। पड़ताल बताती है कि चीन और उत्तर कोरिया में 1961 में पारम्परिक सहयोग सन्धि पर हस्ताक्षर किये थे जिसमें यह था कि यदि दोनों देषों में से किसी पर हमला होता है तो वे एक-दूसरे की षीघ्र मदद करेंगे। इस मदद में सैन्य सहयोग भी षामिल है। जाहिर है ट्रंप की यह सोच कहीं से गैरवाजिब नहीं है कि उत्तर कोरिया के मामले में चीन की बड़ी भूमिका होगी। गौरतलब है कि उत्तर कोरिया में चीनी कम्पनियां आम्र्स प्रोग्राम की आपूर्ति करती हैं चीन चाहे तो लगाम कस सकता है। चीन चाहे तो उसका तेल निर्यात रोक सकता है और विदेषी मुद्रा समझौते को भी रद्द कर सकता है। इसके अलावा उसके कई और आर्थिक पहलुओं पर दबाव बना सकता है। उपरोक्त संदर्भों को देखते हुए अमेरिकी राश्ट्रपति को यदि लगता है कि किम जोंग को चीन पटरी पर ला सकता है तो इस बात में दम तो है पर सच्चाई यह है कि चीन ऐसा क्यों करेगा। फिलहाल वैष्विक षान्ति और उत्तर कोरिया और चीन की दोस्ती के मद्देनजर यह लगता है कि किम जोंग और ट्रंप उबाल ले रही कूटनीति को षान्त करने में सफल होंगे परन्तु इस मामले में अधिक जिम्मेदारी उत्तर कोरिया की और उससे भी कहीं अधिक चीन की प्रतीत होती है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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