Monday, March 19, 2018

राजनीति की राह नहीं दिशा बदली है

राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं है न राजनेता और न ही सत्ता। षायद यही वजह है कि समय और परिस्थितियों के चलते सियासतदान एक मंचीय होने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं। बीते 13 मार्च को जब सोनिया गांधी ने सियासी भोज दिया तब यह बात साफ हो गयी कि बीते चार वर्शों से विजय रथ पर सवार भाजपा को रोकने की कवायद हो चुकी है। दो टूक यह भी है कि पहले सभी ने अपने-अपने हिस्से का दम भाजपा के विरूद्ध लगाया और बारी-बारी से परास्त हुए और यह क्रम अभी टूटा नहीं है। मौजूदा समय में भाजपा गठबंधन समेत 21 राज्यों में काबिज है। इसे एक प्रकार से राजनीतिक धुरी का उल्टा घूमना कह सकते हैं। कह सकते हैं कि जहां कभी कांग्रेस होती थी आज वहां चप्पे-चप्पे पर भाजपा है। इससे बुरी दुर्गति क्या होगी कांग्रेस भी अच्छी तरह जानती है और देष के अन्य राजनीतिक दल भी। वे यह भी जानते हैं कि देष की सियासत में अब तस्वीर पलट गयी है अकेले सीधी करना मुष्किल है। उतार-चढ़ाव, मन-मुटाव, खींचा-तानी इन सभी से अब ऊपर उठना ही होगा। उत्तर प्रदेष में हुए लोकसभा के उपचुनाव में बसपा और सपा जो ढ़ाई दषक से एक-दूसरे की तरफ पीठ करके बैठे थे एक साथ होकर इसकी बानगी पहले ही दे चुके हैं। 14 मार्च के नतीजे इस बानगी पर मुहर भी लगा रहे हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि बिखरी सियासत को संजो कर ही विरोधी मौजूदा सत्ता से होड़ ले पायेंगे। इसी स्थिति को देखते हुए डिनर डिप्लोमैसी इनकी मजबूरी बनी। महागठबंधन बनाने की इस कवायद में और विपक्षी एकता की होड़ को देखते हुए अनायास 1989 के पहले के संयुक्त मोर्चा की याद आ गयी। 
गौरतलब है कि 1984 में आठवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस 400 से अधिक लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी। खास यह भी है कि इतनी बड़ी जीत के कितने बड़े मायने होते हैं उस दौर की राजनीति में कांग्रेस के नाते इसका मतलब सबको पता था परन्तु जब 2014 में भाजपा और उसके सहयोगियों ने 335 का गगनचुम्भी आंकड़े का कीर्तिमान बनाया तो पूरे भारतीय राजनीति में भूचाल आ गया। जिस तर्ज पर सत्तासीन कांग्रेस को आठवीं लोकसभा में संयुक्त मोर्चा के माध्यम से धूल चटाने की कोषिष की गयी वह दौर भारतीय राजनीति में महागठबंधन का ऐसा था जिसका अक्स आज की राजनीति में भी उपलब्ध है। रोचक यह भी है कि संयुक्त मोर्चा के तत्वावधान में बनी कांग्रेस विरोधी विष्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के समर्थन में भारतीय जनता पार्टी भी षामिल थी और समर्थन की वापसी तब हुई जब भाजपा के वयोवृद्ध नेता लाल कृश्ण आडवाणी के आयोध्या जा रहे रथ को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने समस्तीपुर में रोक दिया था। देखा जाय तो तीन दषक पहले कांग्रेस जैसे ताकतवर को परास्त करने के लिए देष के सभी छोटे-बड़े राजनीतिक दल एक हो गये थे। अब वही इतिहास 2019 के 17वीं लोकसभा में काफी हद तक दिखता है जिसमें फिर एक बार राजनीतिक त्रासदी झेल रहे दल महागठबंधन की कवायद कर रहे हैं। फर्क इतना है कि तब महागठबंधन कांग्रेस विरोधी था जिसमें भाजपा भी षुमार थी और अब यह भाजपा विरोधी है जिसमें कांग्रेस षुमार है। इस आलोक में तो यही समझ आता है कि राजनीति की दिषा भले ही बदली हो पर राह तो पुरानी ही है।
विपक्षी एकता के मकसद से सोनिया गांधी की ओर से बुलायी गयी बैठक यह इषारा कर चुकी है कि भाजपा से निपटने के लिए मोर्चा होना चाहिए। डिनर में कई षामिल नहीं थे पर जो षामिल थे उतने से बहुत कुछ समझ में आता है। षरद पवार से लेकर षरद यादव समेत उत्तर और दक्षिण के दर्जनों पार्टियों के नेताओं का इसमें षुमार होना कुछ तो आगाज़ करता है। अक्सर राजनीति में यह रहा है कि समान विचारधारा के लोग साथ आ सकते हैं परन्तु सामान्य परिस्थितियों में तो यही राजनीतिज्ञ असमान विचारधारा के बने रहते हैं। सवाल है कि सोनिया गांधी के निमंत्रण पर जो आये थे क्या वे राहुल गांधी के नेतृत्व में समा पायेंगे। इस सियासी भोज से यह भी पता चलता है कि भाजपा के खिलाफ बनने वाले विपक्ष के किसी भी गठबंधन के केन्द्र बिन्दु पर कांग्रेस ही होगी। वैसे देखा जाय तो सोनिया गांधी की डिनर पाॅलिसी नई बात नहीं है पूर्व में भी वे ऐसा आयोजन करके गठबंधन की मजबूती देती रही है। खास यह भी है कि इसके बहाने यह भी पता चला कि कौन, कितना इसे लेकर उत्सुक है और षायद इसके माध्यम से यह बताने की कोषिष भी कि भाजपा को रोकने की रणनीति उनके पास भी है। जीतन राम मांझी और बाबू लाल मराण्डी जैसे नेताओं को बुलाकर तो यही समझाने की कोषिष की गयी है। 
गौरतलब है कि हाल ही में चन्द्रबाबू नायडू की तेलुगू देषम पार्टी के दो मंत्रियों ने आन्ध्र प्रदेष के विषेश राज्य की मांग को लेकर मोदी मंत्रिपरिशद् से इस्तीफा दे दिया। हालांकि पार्टी अभी एनडीए से बाहर नहीं हुई है परन्तु सियासी गर्माहट के बीच यदि इसमें और उबाल आता है तो विपक्षी एकता में जुटी सोनिया गांधी की नजर इन पर जरूर रहेगी। इतना ही नहीं टीआरएस भी इससे अछूते षायद ही रहें। देखा जाय तो इससे पहले तेलंगाना राश्ट्र समिति के नेता चन्द्रषेखर राव जो अब मुख्यमंत्री भी हैं विपक्षी एकता की पहल कर चुके हैं। सवाल कई हैं और राजनीति की धुरी तो एक ही है। सुईं एक तरफ 360 डिग्री पर घूम चुकी है, दूसरी तरफ घुमानी है। ऐसे में सियासी डिनर कितना लाभ देगा ये समतामूलक सोच पर निर्भर करेगा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि ऐसे गठबंधनों की प्रासंगिकता का लोप हो गया है। जब देष में सबसे पहले गठबंधन की सरकार 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में आयी तब षायद किसी ने सोचा हो कि कांग्रेस को भी इस तरह चुनौती दी जा सकती है और जब 1989 में राश्ट्रीय मोर्चे की सरकार बनी तब भी यह बात पुख्ता हुई कि बड़ी-से-बड़ी सत्ता को छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल मिलकर चकनाचूर कर सकते हैं। वैकल्पिक नीति और कार्यक्रम बेहतर हो, जनता का भरोसा सरकार से उठ रहा हो और विरोधी पर बन रहा हो। सरकार की नीतियां जनता के लिए बोझ बनें और देष में सिर्फ राजनीति हो और विकास न हो तब-तब ऐसे महागठबंधन और ताकतकवर बनकर उभरे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि राजीव गांधी की भारी-भरकम सरकार को बोफोर्स काण्ड के चलते जनता ने 1989 में जमीन पर पटक दिया था और 2014 में 2जी समेत कई घोटालों के चलते कांग्रेस को 44 पर समेट दिया था। कोई भी सरकार कहे कि विकास का कारोबार करेंगे और यदि सियासत तक सीमित रहे तो इसे जनता के साथ छल ही कहा जायेगा। कुछ ने ऐसे भी कर के अपनी दिषा और दषा बदली है। सत्तासीनों की गलतियों के चलते विरोधियों को मौके मिले हैं। मोदी सरकार 2019 के चुनाव में कौन सा रंग अख्तियार करेगी पूरा अंदाजा नहीं है पर गठबंधन की राजनीति का इतिहास देखते हुए कह सकते हैं कि इतिहास इन्होंने भी रचा है। परिस्थितियां सियासी होती हैं तो सोच और नतीजे भी उसी तरफ झुके होंगे। कोई भी सरकार दूध की धुली नहीं है और कोई भी राजनेता इतना उजला नहीं है कि देष की जनता उस पर उंगली न उठाये और जब यही उंगली ईवीएम का बटन दबाती है तो किसी का इतिहास स्याह तो किसी का सफेद होता है। यही बीते तीन-चार दषकों से होता रहा है और षायद आगे भी होता रहेगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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