Thursday, June 2, 2016

चेहरा बदलने की कवायद में कांग्रेस

यह कोई नई बात नहीं है जब कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर कमान संभालने की बात कही जा रही हो। अक्सर राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाये जाने की अकुलाहट तभी देखी गयी है जब चुनाव के बाद कांग्रेस की सियासी जमीन खिसकती है। बीते 19 मई को पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव ने कांग्रेस को एक बार फिर झटका देने का काम किया। हांलाकि केन्द्र षासित पुदुचेरी में डीएमके के साथ सत्ता तक पहुंचने में पार्टी मामूली तौर पर सफल रही है पर असम और केरल की सत्ता हाथ से निकलने से कांग्रेस एक बार फिर बैकफुट पर जाते हुए भी दिखाई देती है। गौरतलब है कि वर्श 2014 के 16वीं लोकसभा चुनाव से लेकर दर्जन भर विधानसभा चुनाव में केवल बिहार को छोड़कर कांग्रेस लगातार हार की ओर ही बढ़ी है और यह क्रम बादस्तूर अभी भी जारी है। ऐसा भी देखा गया है कि जब-जब परिणाम कांग्रेस के अनुकूल नहीं रहे हैं तब-तब इनमें न केवल चिंतन का दौर चला है बल्कि कमान बदलने की कवायद भी तेज हुई है। जैसा कि इन दिनों पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह का राहुल गांधी के लिए अध्यक्ष पद संभालने के मामले में ताजा बयान आया है। दरअसल देष के कोने-कोने में व्याप्त होने वाली कांग्रेस विगत् दो वर्शों से भाजपा के राजनीतिक प्रभाव के चलते व्यापक पैमाने पर सिमटती जा रही है। 2014 में 14 राज्यों में षासन करने वाली कांग्रेस वर्तमान में महज 7 पर ही रह गयी है जबकि इसके उलट 14 राज्यों पर भाजपा का कब्जा हो गया है। ऐसे में कांग्रेस के कार्यकत्र्ता समेत राज्य इकाई इस चिंता में घुले हैं कि यदि भाजपा के राजनीतिक प्रसार के रोकने को लेकर समयानुकूल कोई रणनीति नहीं बन पाई तो वापसी बहुत मुष्किल हो जायेगी। इसी सोच के चलते कांग्रेस में राहुल का चेहरा एक बार फिर उछाला गया है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि राहुल गांधी के नाम पर कांग्रेस को एक युवा नेता देने की बात भी कही जाती है साथ ही एक मकसद यह भी रहता है कि विरोधियों से टक्कर लेने के मामले में नये किस्म की जमात की जरूरत भी है जो सोनिया गांधी के अध्यक्ष रहते सम्भव नहीं है। रोचक तो यह भी है कि अध्यक्ष के मामले में राहुल गांधी ने कभी भी मन से मना नहीं किया और सोनिया गांधी ने कभी इस पर खुल कर बात नहीं किया।
वर्श 2017 के षुरू में ही उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड एवं पंजाब समेत कई राज्यों के विधानसभा चुनाव सम्पन्न होने हैं। विगत् दो वर्शों से लगातार करारी हार का सामना कर रही कांग्रेस आगे के चुनाव में अपनी रणनीति बदलने की फिराक में भी होगी। जिसे लेकर इन दिनों पार्टी की मरम्मत करने की सख्त आवष्यकता महसूस की जा रही है। बीते दिनों कांग्रेस के वरिश्ठ नेताओं में षुमार दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने अपनी ही पार्टी के लिए बड़ी सर्जरी की जरूरत बताई है। देखा जाए तो जिस कदर कांग्रेस का सियासी धरातल खिसक चुका है और सारे तीर तरकष से निकलने के बावजूद निषाने पर नहीं बैठे हैं उसे देखते हुए राहुल गांधी की ताजपोषी की सम्भावना प्रबल होते दिखाई देती है। जिसका औपचारिक एलान कुछ दिनों में षायद हो जाये। यदि राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बनते हैं तो देखने वाली बात होगी कि संगठनात्मक स्तर पर उनकी ‘विजनरी अप्रोच‘ क्या होती है साथ ही आगामी चुनाव को लेकर मोदी के मुकाबले वे कौन-सी चाले चलते हैं। इसके अलावा कांग्रेस के कई पुराने राजनीतिज्ञ और जड़ हो चुके नेताओं से अपना पीछा कैसे छुड़ाते हैं। सबके बावजूद यह भी तय है कि राहुल गांधी की स्थिति में संगठनात्मक स्तर पर युवा नेताओं के चेहरे फलक पर आयेंगे। फिलहाल जिस तरह कांग्रेस डैमेज हो चुकी है उसे मैनेज करने के लिए राहुल गांधी को भी एड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा पर विगत् कुछ वर्शों से उनकी चुनावी रैलियों से लेकर भाशण और वक्तव्य के साथ क्रियाकलापों को देखते हुए अध्यक्ष के तौर पर उनमें कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन आयेगा कहना कठिन है। जो भी हो पर कांग्रेस को एक नये बदलाव की दरकार तो है। फिलहाल अभी कोई चुनाव होने वाला नहीं है। ऐसे में संगठन में बदलाव का होना लाज़मी प्रतीत होता है ताकि कांग्रेस के ताजा-तरीन चेहरे को सियासत में पैठ बनाने के लिए रणनीतिक तौर पर समय मिल सके। ध्यान्तव्य हो कि आज से चार साल पहले 2012 में जब जयपुर में कांग्रेस का चिंतन षिविर हुआ था तब राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाया गया था। इसी दौरान राहुल गांधी की वो भावुकता भी देखने को मिली थी जिसमें न केवल सियासी जमात को बल्कि आमजन को भी चैंका दिया था जब उन्होंने कहा था कि उनकी मां सोनिया गांधी ने उनसे कहा था कि राजनीति एक चिता के समान है। अब सम्भवतः इसी माह कर्नाटक में चिंतन षिविर लगने वाला है जहां उपाध्यक्ष से अध्यक्ष पद पर पदोन्नति के साथ उनकी ताजपोषी हो सकती है।
ऐसा नहीं है कि सोनिया गांधी के अध्यक्ष रहते हुए राहुल गांधी के लिए तमाम बन्दिषें थीं। सभी प्रकार के चुनावी और सियासी निर्णयों में उनकी भूमिका तो रही ही है साथ ही इनके कद को भी किसी कांग्रेसी ने कम नहीं आंका। हांलाकि राहुल गांधी की प्रतिभा पर उनके दल के कुछ नेता समय-समय पर सवाल उठाते रहे हैं। देखा जाए तो राहुल गांधी भी अपनी टीम बनाने में लम्बे समय से काम कर रहे हैं और इसके चलते देष भर के 300 से अधिक पार्टी नेताओं से वन-टू-वन भी कर चुके हैं। कांग्रेस के खेमे में कई नये चेहरे हैं जो बैकफुट से फ्रंटफुट पर आयेंगे। इनका वर्क कल्चर भी आवेष से भरा होगा। ऐसा भी हो सकता है कि राहुल के अध्यक्ष बनने से सोनिया गांधी के समय के पदाधिकारी स्वयं पीछे हट जाय और नये अध्यक्ष को नये चेहरे चुनने का अवसर दें पर यह तो दिलचस्प रहेगा कि राहुल गांधी किस प्रकार अपनी टीम बनाते हैं और कैसे यूपीए के लोकप्रिय चेहरे नरेन्द्र मोदी से आगे निकलते हैं। कई नेता प्रियंका गांधी को भी सियासत की बागडोर देने की बात करते रहे हैं। कईयों ने तो प्रियंका को राहुल गांधी से बेहतर नेता तक करार दे दिया है पर दायित्व को बेहतरी से समझते हुए प्रियंका गांधी ने भी इस पर कभी खुलकर नहीं बोला। हांलाकि अमेठी और रायबरेली क्रमषः भाई राहुल और मां सोनिया गांधी के लोकसभा क्षेत्र में मतदाताओं से उनके लिए वोट मांगती रही हैं। गौरतलब तो यह भी है कि जिस प्रकार प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान कांग्रेस मुक्त भारत का आह्वान किया था उसमें यह आहट छुपी थी कि कांग्रेस को जमींदोज होने में अधिक वक्त नहीं लगेगा जो बीते दो वर्शों में काफी हद तक सही साबित हो रहा है। कांग्रेस ने भले ही मोदी के इस आह्वान को हल्के में लिया हो पर सत्ता की चाहत रखने वाली भाजपा ने कांग्रेस के साथ काफी षिद्दत से लड़ाई लड़ी है। इसी का नतीजा है कि कांग्रेस लोकसभा में जमा 44 पर सिमट कर रह गयी है। दो टूक यह भी है कि कांग्रेस को जो भी बदलना है षीघ्र बदल ले, जो भी रणनीति विकसित करनी हो उसमें भी षीघ्रता दिखाये पर इस बात का भी उसे ख्याल रखना होगा कि 21वीं सदी के दूसरे दषक में भारत का लोकतंत्र और उसमें घुली सियासत नामचीन परिवार व्यवस्था से अब आगे नहीं बढ़ाई जा सकती है। इसके लिए जमीन पर जनता के लिए बहुत कुछ करते हुए दिखना होगा।


सुशील कुमार सिंह

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