Friday, June 24, 2016

ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट के चक्रव्यूह में दिल्ली सरकार

एक दषक बाद एक बार फिर आॅफिस आॅफ प्राॅफिट का मामला सुर्खियों में है। ऐसा दिल्ली की केजरीवाल सरकार द्वारा 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाये जाने के चलते हुआ। दोबारा सत्ता में वापसी के साथ 2015 में की गयी इनकी नियुक्ति के चलते मामले को तूल पकड़ते देख केजरीवाल ने अपने इन्हें बचाने के लिए संसदीय सचिव को लाभ के पद से दूर रखते हुए एक विधेयक विधानसभा में पास कराया जो उपराज्यपाल नजीब जंग के माध्यम से राश्ट्रपति की चैखट पर पहुंचा जिसे बीते 13 जून को राश्ट्रपति द्वारा मंजूरी देने से इन्कार कर दिया गया। इस कदम से केजरीवाल सरकार को तो झटका लगा ही है साथ ही उनके 21 सदस्यों की विधायकी भी खतरे में जाते दिखाई देती है। यदि यह बात सिद्ध हो जाती है कि केजरीवाल सरकार द्वारा नियुक्त संसदीय सचिव का पद लाभ के दायरे में था तो इनकी सदस्यता जाना तय है और इतने ही सीटों पर दिल्ली एक बार फिर विधानसभा चुनाव से गुजर सकती है। विधेयक के अनुमति न मिलने से इन दिनों सियासत भी जोर पकड़े हुए है और पहले की भांति दिल्ली सरकार केन्द्र की मोदी सरकार पर खुलकर आरोप-प्रत्यारोप कर रही है। आप का यह भी आरोप है कि 17 विधेयकों को केन्द्र सरकार ने पास नहीं होने दिया है।  
बिल की मंजूरी न मिलने से तमतमाये आप के नेता का कहना है कि देष भर में संसदीय सचिव बनाना वैध है तो दिल्ली में क्यों नहीं? मामले को विस्तारपूर्वक समझा जाए तो इसमें कई संवैधानिक पेंच भी हैं। पहली बात तो यह कि लाभ का पद की अभी तक कोई संवैधानिक परिभाशा ही नहीं बन पायी है। संविधान के अनुच्छेद 102(1)क और 191(1)क में क्रमषः संसद और विधानसभा सदस्य यदि भारत या राज्य सरकार के अधीन ऐसे पद को छोड़कर जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना विधि द्वारा घोशित किया गया है के अलावा कोई लाभ का पद धारण करता है तो वह आॅफिस आॅफ प्राॅफिट के रडार पर आ सकता है। संसदीय सचिव के मामले में केजरीवाल सरकार इसी चक्रव्यूह में फंसते हुए दिखाई देती है। राश्ट्रपति के फैसले को अदालत में ले जाने की बात भी दिल्ली सरकार कर रही है जबकि बड़ा सच यह है कि अदालतों ने संसदीय सचिवों की नियुक्ति के विरोध में कई निर्णय दिये हैं। जून 2015 में कोलकाता उच्च न्यायालय ने 13 संसदीय सचिवों की नियुक्ति को अमान्य करार दिया था। मुम्बई उच्च न्यायालय की गोवा खण्डपीठ ने 2009 में ऐसी ही नियुक्तियों को रद्द कर दिया था। इसी प्रकार के नियुक्तियों को लेकर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, तेलंगाना समेत कई राज्यों के उच्च न्यायालय द्वारा या तो इसे रद्द किया गया है या उन पर सख्त नोटिस जारी किया गया। कुछ राज्यों में तो मामले आज भी विचाराधीन है। साफ है कि न्यायालय संविधान की मर्यादाओं और सीमाओं का ख्याल रखते हुए ही कोई कदम उठाता है। यदि केजरीवाल सरकार के संसदीय सचिव के मामले में लिए गये निर्णय संवैधानिक मर्यादाओं का तनिक मात्र भी उल्लंघन नहीं करते हैं तो हो सकता है कि राहत मिल जाए पर उपरोक्त घटनाक्रम को देखते हुए इसकी गुंजाइष कम ही है। संविधान के 91वें संषोधन 2003 के तहत अनुच्छेद 75(1) और अनुच्छेद 164(1) में परिवर्तन करके यह प्रावधान किया गया कि केन्द्र या राज्यों में मंत्रियों की कुल संख्या सदन की कुल सदस्य संख्या के 15 फीसदी से अधिक नहीं होगी। संसदीय सचिवों की नियुक्ति के मामले में उक्त संवैधानिक मर्यादा का भी निहित परिप्रेक्ष्य देखा जा सकता है। 
नियम के मुताबिक दिल्ली जैसे अधिराज्य में सात विधायक मंत्री बन सकते हैं। विरोधियों का आरोप है कि 21 विधायकों को संसदीय सचिव के रूप में स्थापित करके केजरीवाल सरकार इन्हें मंत्रियों जैसा रूतबा और लाभ देना चाहती है जो कानून के मुताबिक सही नहीं है। वैसे देखा जाए तो संसदीय सचिव का चलन नेहरू काल में भी रहा है तब इसके मायने लाभ या अन्यथा सुविधा से न लगाकर मंत्रालयी कार्यों को सीखने तथा दक्षता से चहेते युवाओं और नेताओं को जोड़ना था। हालांकि बाद के दिनों में केन्द्रीय सरकार के स्तर पर इसकी प्रासंगिकता का लोप होता दिखाई देता है पर राज्यों में यह किसी न किसी रूप में बरकरार रहा। वर्श 2006 में लाभ के पद को लेकर एक भीशण चर्चा एवं विमर्ष देष में प्रकट हुआ जिसकी चपेट में कई आये। रायबरेली से लोकसभा सदस्य और यूपीए की चेयरमैन रहीं सोनिया गांधी को इसके चलते पद से इस्तीफा देना पड़ा था और जया बच्चन को उत्तर प्रदेष फिल्म विकास परिशद् के अध्यक्ष के रूप में लाभ के पद पर होने के आधार पर सदस्यता रद्द कर दी गयी। इसके अलावा अनिल अंबानी सहित कईयों को राज्यसभा से हटना पड़ा था। इतना ही नहीं आॅफिस आॅफ प्राॅफिट के बिल को जब मनमोहन सिंह की मंत्रिपरिशद् ने तत्कालीन राश्ट्रपति डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के पास भेजा तो उन्होंने इस बिल को पुर्नविचार के लिए वापस कर दिया और उसकी वजह एकरूपता का आभाव होना था। वर्श 2007 के बाद जब कलाम साहब राश्ट्रपति के पद पर नहीं थे तब उन्होंने एक वाकये में कहा था कि उनके पांच साल के राश्ट्रपति के कार्यकाल में सर्वाधिक कठिन दौर आॅफिस आॅफ प्राॅफिट बिल पर निर्णय लेना था। साफ है कि लाभ का पद एक ऐसी समस्या है जिसे लेकर अच्छे से अच्छे दिमागदार पदस्थ व्यक्ति को भी चिंतनयुक्त बना देता है। परिप्रेक्ष्य और संदर्भ को देखते हुए यह समझा जा सकता है कि राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा केजरीवाल सरकार के बिल लौटाने के पीछे विधेयक में खामियां ही वजह होंगी जबकि दिल्ली सरकार इसे सियासी चष्में से देख रही है।
वैसे देखा जाए तो दिल्ली में पहली विधानसभा के गठन से ही संसदीय सचिवों की नियुक्ति की परम्परा रही है। 1993 में जब दिल्ली में बीजेपी सरकार बनी और मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बने तो इस दौरान संसदीय सचिव नियुक्त नहीं किये गये थे लेकिन साहिब सिंह वर्मा ने नन्द किषोर गर्ग को पहला संसदीय सचिव नियुक्त किया। कहा जाता है कि इस पर बवाल न हो इसके लिए कुछ कांग्रेसी नेताओं को भी विष्वास में लिया गया था लेकिन जब गर्ग को आधिकारिक तौर पर यह पता चला कि उनका पद गैरसंवैधानिक है तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। वर्श 1998 में षीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनी तो अजय माकन को संसदीय सचिव बनाने का निर्णय लिया गया। इस दौरान विपक्ष के जगदीष मुखी से बात की गई थी और रजामंदी के बाद ऐसा सम्भव हुआ। गौरतलब है कि अजय माकन को मंत्री स्तरीय सुविधाएं मिली थीं। हालांकि केजरीवाल का मामला उठने पर अजय माकन अपने को मुख्यमंत्री का संसदीय सचिव बता रहे हैं। उपरोक्त संदर्भ से साफ है कि आपसी समझदारी से गैरसंवैधानिक पद को संवैधानिक बना लिया गया था जिसे न्यायोचित तो नहीं कहा जा सकता। चूंकि पहले के मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में कोई षिकायत नहीं हुई इसलिए इसे वाजिब मान लिया गया पर केजरीवाल के मामले में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने मोर्चा खोल दिया इसलिए मामला तूल पकड़ लिया है। सबके बावजूद केजरीवाल की चूक यह भी है कि संसदीय सचिव पद को वैधानिक बनाने की फिराक में विधेयक पास करके राश्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेज दिया जबकि पहले की सरकारों ने संसदीय सचिव तो बनाये पर इस मामले को वैधानिक बनाने की कोषिष नहीं की। फिलहाल आॅफिस आॅफ प्राॅफिट एक ऐसी समस्या है जिसे हल करने में माथे पर बल तो पड़ता है पर सटीक संवैधानिक और वैधानिक विवेचना के तहत इसमें व्याप्त सकारात्मक गुंजाइषों को एक बार उभार कर इस पर उठने वाले विवादों को समाप्त किया जाना कहीं अधिक जरूरी है।


सुशील कुमार सिंह

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