Wednesday, June 15, 2016

संगम के रस्स्ते मिशन यूपी पर भाजपा

इसमें कोई अतिष्योक्ति नहीं कि लोकसभा की जीत की भांति भाजपा यूपी विधानसभा की जीत की चाह रखती है। इसी संदर्भ से युक्त होकर यूपी मिषन को कामयाब बनाने के लिए अबकी बार पार्टी गंगा-यमुना दोनों का सहारा लेते हुए इलाहाबाद से चुनावी षंखनाद किया है। उत्तर प्रदेष में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए भाजपा राश्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक बीते 12 और 13 जून को इलाहाबाद में आयोजित हुई जिसमें प्रधानमंत्री मोदी समेत भाजपा के राश्ट्रीय अध्यक्ष अमित षाह तथा दल के बड़े से बड़े नेता एवं रणनीतिकार षामिल थे। इतना ही नहीं भाजपा षासित राज्यों के मुख्यमंत्री सहित संसद की भी हिस्सेदारी इस सियासी महफिल में बाकायदा देखी जा सकती है। गौरतलब है कि गांधी-नेहरू के गढ़ में भाजपा की इस प्रकार की उपस्थिति कांग्रेस के लिए बेचैनी बढ़ाने वाला होगा। हालांकि कहा जा रहा है कि बीते मार्च कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी इलाहाबाद गई थीं तब उन्होंने संकेत दिया था कि कांग्रेस अपने चुनावी अभियान की षुरूआत 19 नवम्बर को इन्दिरा गांधी की जन्म षताब्दी समारोह के साथ करेगी पर कांग्रेस के इस कदम से पहले ही भाजपा ने यहां से चुनावी बिगुल फूंक कर इस मामले में भी कांग्रेस को झटका देने का काम किया है। इलाहाबाद में हुई परिवर्तन रैली के जरिए यूपी जीत की चुनौती एक बार फिर मोदी के जिम्मे जाती हुई दिखाई देती है। रैली में सम्बोधन के दौरान उन्होंने सपा और बसपा की जुगलबन्दी को खत्म करने की बात कही। अभियान को बुलन्दी देते हुए यह भी कहा कि 50 साल में जो नहीं हुआ उसे 5 साल में करके दिखाऊँगा। यूपी ने देष को सबसे ज्यादा पीएम और अनेकों महापुरूश दिए हैं लेकिन आजादी के इतने वर्श बाद 1529 गांवों में बिजली का खम्भा तक नहीं पहुंचा और लोग 18वीं षताब्दी की भांति अंधेरे में जीवन जी रहे हैं। ऐसे तमाम नागरिकों से जुड़े मुद्दों को प्रधानमंत्री मोदी उजागर करते हुए जनता से पूर्ण बहुमत देने की अपील की। 
देखा जाए तो वर्श 2014 के 16वीं लोकसभा के चुनाव में भाजपा उत्तर प्रदेष में अपनी सियासी जमीन को एकतरफा मजबूती देने की फिराक में बनारस को राज्य की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बनाया था और मोदी बनारस की सीट के साथ गुजरात के बडोदरा से चुनाव लडे़ थे साथ ही दोनों पर भारी बहुमत से जीत सुनिष्चित करते हुए उन्होंने भविश्य की सियासत और उसके साथ सापेक्षता बिठाते हुए बनारस पर बने रहना सही समझा। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी बनारस और गंगा को लेकर उन दिनों बड़ी षिद्दत और कूबत भरी राजनीति की थी जिसका नतीजा यह हुआ कि 80 लोकसभा सीटों के मुकाबले 73 पर भाजपा एवं सहयोगी की जीत हुई जिसमें 71 स्थानों पर अकेले भाजपा ही थी। ऐसा देखा गया है कि राजनीति में सियासी चतुराई का जिस भी दल में आभाव रहा उसका सीधा असर उनके नतीजों पर पड़ा है। फिलहाल गंगा प्रदूशण को मुद्दा बनाने वाली भाजपा के लिए षायद ही इलाहाबाद से बेहतर कोई स्थान यूपी मिषन के लिए होता। इलाहाबाद से पूर्वांचल, अवध और पष्चिमी उत्तर प्रदेष को साधने की नई कवायद में भाजपा की रणनीति कारगर भी हो सकती है। वैसे भी भाजपा मत ध्रुवीकरण की राजनीति में दिल्ली एवं बिहार जैसे राज्यों को छोड़कर अन्य में काफी हद तक सफल रही। हाल ही में असम में सत्ता हथियाना और केरल में उपस्थिति दर्ज कराना पार्टी की एक बड़ी काबिलियत कही जायेगी। 
वैसे देखा जाए तो उत्तर प्रदेष की सियासत अन्य राज्यों से काफी भिन्न है यहां के मत ध्रुवीकरण में जात-पात तथा सम्प्रदाय के अलावा क्षेत्रवाद भी हावी रहता है। भाजपा के रणनीतिकार भी जानते हैं कि यहां के सियासी रूख को अपनी ओर मोड़ने के लिए स्थान, समय और मुद्दों के सही चयन के साथ यहां के तमाम पहलुओं पर समुचित होमवर्क करना होगा। इसी के मद्देनजर भाजपा अपने एजेण्डे को भी ताकत दे सकती है। पार्टी एक ओर तो प्रधानमंत्री मोदी के विकासमंत्र को चुनाव में उतारना चाहेगी तो दूसरी ओर अखिलेष सरकार के समय की गलतियों को जनता के बीच बताना चाहेगी मसलन कैराना में कथित तौर पर हिन्दुओं का पलायन भी चुनाव में जोर पकड़ सकता है। इलाहाबाद के दो दिवसीय रैली के दौरान जष्न में डूबी पार्टी को मोदी ने आगाह किया और पार्टी की बढ़ी ताकत पर अभिमान न करने की नसीहत दी। इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा के लिए वर्तमान दौर स्वर्णिम युग की भांति है। यदि भाजपा यूपी में वापसी करती है तो यह सोने पर सुहागा होगा साथ ही मोदी सरकार के रसूख को भी बल मिलेगा। प्रदेष में भाजपा का मुख्य टकराव षासन कर रही सपा से तो रहेगी पर बसपा और कांग्रेस से भी पार्टी को बाकायदा चुनौती मिलेगी। अलबत्ता कांग्रेस यहां बीते तीन दषकों में इकाई-दहाई से आगे नहीं बढ़ पाई है पर उसे हल्के में लेने की गलती भाजपा नहीं कर सकती है जैसा कि पहले भी कहा गया है कि यहां जातीय समीकरण सियासत के रूख को पलट देते हैं ऐसे में भाजपा को अधिक चैकन्ना रहना होगा। विगत् तीन वर्शों से मोदी कांग्रेस मुक्त भारत का अभियान चलाए हुए है। उसे उत्तर प्रदेष में भी बरकरार रखना चाहेंगे साथ ही सपा सरकार की कई खामियों का सहारा लेकर मत प्रतिषत में भी इजाफा करेंगे। जाहिर है कि भाजपा मायावती और बसपा के सियासी रणनीति से भी वाकिफ है ऐसे में उसे भी हाषिये पर धकेलने की कोषिष रहेगी। हालांकि भाजपा के विरोध में चुनाव लड़ने वालों के पास मोदी सरकार की कई खामियां गिनाने के लिए अपने तर्क-वितर्क उपलब्ध होंगे जो उनके लिए किसी एजेण्डे से कम नहीं होंगे। 
गौरतलब है कि जून 1991 में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार की उत्तर प्रदेष में एंट्री हुई थी और 2002 से राज्य में पार्टी सत्ता से बेदखल है, तब मुख्यमंत्री वर्तमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह थे। देखा जाए तो भाजपा का चैदह बरस का वनवास पूरा हो चुका है और इस चैदह बरस में बसपा और सपा पूर्ण बहुमत के साथ पूरे पांच साल के लिए सत्ता वापसी कर चुके हैं जिसमें अखिलेष सरकार का अन्तिम साल जारी है। मौजूदा स्थिति में भाजपा की उत्तर प्रदेष विधानसभा में 403 सदस्यों के मुकाबले 50 से भी कम विधायक हैं। पिछले एक दषक से राज्य में पार्टी के प्रभाव में भी काफी कमी आई है। राश्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक में इस बात का भी मंथन होना स्वाभाविक है कि यूपी विधानसभा में पूर्ण बहुमत की पहुंच कैसे बनाई जाय। लक्ष्य है कि 403 के मुकाबले 265 सीटें झोली में आयें पर यह मात्र योजनाकारों के चलते सफल नहीं होगा बल्कि मतदाताओं के मन में भी भाजपा को उतरना होगा। जाहिर है विधानसभा चुनाव के अपने एजेण्डे होंगे पर मोदी कार्यकाल का रिपोर्ट कार्ड भी सीटों की संख्या बढ़ाने में मदद्गार होगा पर ध्यान रहे कमियां भी विरोधियों द्वारा उछाली जायेंगी। केन्द्रीय मंत्री कलराज मिश्र का कहना है कि यूपी चुनाव प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में ही लड़ा जायेगा। साफ है कि भाजपा मुख्यमंत्री का चेहरा भले ही देर-सवेर घोशित करे या न करे पर मोदी के चेहरे के भरोसे यूपी का समर जरूर जीतना चाहेगी। फिलहाल वर्तमान में भाजपा अन्यों की तुलना में मजबूत संरचना और प्रकार्यवाद से भरी पार्टी है। नागरिकों को आकर्शित करने वाले मोदी जैसे नेता से यह भरपूर है। लिहाजा पहले की तुलना में भाजपा की धमक तेज होगी पर पूर्ण बहुमत मिलेगा इस पर अभी से पूरा कयास लगाना सम्भव नहीं है पर यह सही हे कि सियासी जोड़-तोड़ में यदि रणनीतिकार सफल हुए तो उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा।


सुशील कुमार सिंह


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