Monday, June 13, 2016

छ: दिन, पांच देश और वैश्विक फलक पर भारत

वैष्विक फलक पर भारत की कूटनीति का जो स्वरूप बीते छः दिनों में दिखा, यह पहली बार नहीं है। विगत् दो वर्श के कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी के तीन दर्जन से अधिक देषों की यात्रा में ऐसे अवसर पहले भी कई बार आ चुके हैं। जिस प्रकार मोदी की वैदेषिक नीति एक समुच्य ताकत के साथ विस्तार ले चुकी है उसे देखते हुए भारत के बारे में दुनिया के तमाम देषों ने अपनी सोच में व्यापक संषोधन भी कर लिया होगा। इस छः दिवसीय यात्रा में अफगानिस्तान, कतर, स्विट्जरलैण्ड तथा अमेरिका समेत मैक्सिको षामिल था जिसमें उम्मीद से ज्यादा हासिल होते हुए दिखाई देता है। यात्रा 4 जून को अफगानिस्तान से षुरू होकर छठवें दिन मैक्सिको पहुंची। अफगानिस्तान पहुंचकर मोदी ने कई परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण के साथ अफगानिस्तान-इण्डिया फ्रेन्डषिप डैम का उद्घाटन किया और कारवां कतर की ओर बढ़ा जहां विभिन्न क्षेत्रों में सात समझौतों पर न केवल दोनों देष सहमत हुए बल्कि एक बार फिर भारत ने मोदी के सहारे ऊर्जा सुरक्षा नीति को पुख्ता बनाने का काम किया। मोदी का तीसरा पड़ाव स्विट्जरलैण्ड था जहां से भारत एक नई दिषा को अख्तियार करते हुए दिखाई देता है। दरअसल भारत ने परमाणु आपूर्ति समूह की सदस्यता हेतु 12 मई को आवेदन किया था जिसका पाकिस्तान व चीन ने विरोध किया। गौरतलब है कि स्विट्जरलैण्ड ने एनएसजी यानी न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भारत की एन्ट्री का समर्थन करके इस पड़ाव की यात्रा को सबसे बड़ी कूटनीतिक सफलता में बदल दी। इसके बाद अमेरिका और मैक्सिको का समर्थन मिलना सोने पर सुहागा जैसा था। जाहिर है कि एनएसजी पर मिले समर्थन के चलते चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों को भारत ने न केवल मुंहतोड़ जवाब दिया बल्कि प्रधानमंत्री मोदी की उस चाल को भी कामयाबी मिली जिसमें उन्होंने पड़ोसियों की चाल को कामयाब न होने का बीड़ा उठाया था। 
पांच देषों की यात्रा के इस क्रम में अमेरिकी यात्रा भी काफी प्रमुखता से देखी जा रही है। यहां एक बार फिर मोदी का पुराना अंदाज देखने को मिला। भारत अमेरिका का अपरिहार्य सहयोगी है। आप मान सकते हैं कि मजबूत और समृद्ध भारत अमेरिका के रणनीतिक फायदे में है। भारत के हर क्षेत्र में अमेरिका की भागीदारी बढ़ी है साथ ही परमाणु सहयोग समझौते ने भारत अमेरिका के द्विपक्षीय रिष्तों में नया रंग भर दिया है। जैसी तमाम बातों को अपने अंदाज में व्यक्त करते हुए मोदी ने अमेरिकी संसद में अपनी उपस्थिति इस कदर दिखाई कि मेडिसिन स्कवायर से लेकर आॅस्ट्रेलिया में दिये गये तमाम देषों के भाशणों की याद एक बार फिर ताजा कर दी। अन्तर सिर्फ यह था कि मेडिसिन स्कवायर जनता से खचाखच भरा था जबकि अमेरिकी संसद में उनके 535 जनप्रतिनिधि थे। इसकी मजबूती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 45 मिनट के भाशण में अमेरिकी कांग्रेस के लोगों ने 62 बार न केवल तालियां बजायीं बल्कि 9 बार भाशण के बीच में खड़े होकर भारतीय प्रधानमंत्री के प्रति सम्मान जताने का भी काम किया। आकर्शण से युक्त मोदी के वक्तव्य को जिस प्रकार अमेरिकी सांसदों द्वारा हाथो-हाथ लिया गया उसे देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की याद भी ताजा हो जाती है जिन्होंने 14 सितम्बर 2000 को इसी प्रकार की महफिल में अपनी गहरी छाप छोड़ी थी। देखा जाए तो मोदी समेत अब तक छः प्रधानमंत्रियों को अमेरिकी जनप्रतिनिधियों को सम्बोधित करने का अवसर मिला है जिसमें जवाहरलाल नेहरू, राजीव गांधी, पी.वी. नरसिंहराव और मनमोहीन सिंह भी षामिल हैं। गौरतलब है कि आवेष से भरे अमेरिकी वातावरण में मोदी का विस्तार और आकर्शण किसी से छुपा नहीं है और सितम्बर 2014 से अब तक जितनी बार भी अमेरिका में मोदी का प्रवेष हुआ है जाहिर है कि वहां मोदीमय की छाप पड़ी जरूर है।
अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल का यह अन्तिम साल है। बीते दो वर्शों में ओबामा से मोदी की मुलाकात कुल मिलाकर सात बार हो चुकी है। 2015 के गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि रहे ओबामा और उसके पूर्व 2014 के सितम्बर के अन्तिम सप्ताह में मोदी की पहली अमेरिकी यात्रा दोनों देषों के बीच एक नये मिजाज़ को जन्म दे चुकी थी। दोनों देषों के बीच बढ़ी नजदीकियों से चीन और पाकिस्तान जैसे देष न केवल बौखलाये बल्कि थोड़े देर तक रूस भी असहज महसूस कर चुका है। देखा जाए तो संतुलित कूटनीति के मामले में प्रधानमंत्री मोदी आज भी पीछे नहीं हैं पर जिस भांति चीन और पाकिस्तान राह में रोड़ा बनने की कोषिष करते हैं उसे देखते हुए अमेरिका जैसे देषों से भारत का गहरा सम्बंध मुनाफे की कूटनीति कही जायेगी। संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में आतंकियों के मामले में वीटो को लेकर चीन भारत के खिलाफ और पाक का पक्षधर रहा है। इतना ही नहीं भारत की परेषानी की चिंता किये बिना पाकिस्तान को मदद देता रहा। पाक के पक्ष में हमेषा खड़ा होने वाला चीन आज अमेरिका से बढ़ी नज़दीकियों से भयभीत होकर भारत को दर्षन दे रहा है। चीन जहां अमेरिका पर एषिया-प्रषांत क्षेत्र को अस्थिर करने का आरोप लगा रहा है वहीं भारत को यह नसीहत दे रहा है कि गुटनिरपेक्षता से इसे पीछे नहीं हटना चाहिए यह उसकी विरासत है। चीन भारत के विकास में सहयोगी बनने और यहां तक की चीन के भारत के सपने पूरे नहीं होंगे जैसी बातें बीजिंग के समाचारपत्रों से आ रही हैं। सवाल है कि जो चीन भारत के मामले में दषकों से सीमा विवाद के साथ बार-बार घुसपैठ करता है और जो पाकिस्तान भारत के भीतर और बाहर आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने में पीछे नहीं है उसका समर्थन करके चीन किस सपने की बात कर रहा है। आरोप यह भी है कि अमेरिका भारत को अपने दाहिने हाथ के रूप में प्रयोग करके चीन को संतुलित करने का प्रयास कर रहा है जबकि सच्चाई यह है कि भारत न तो किसी का दाहिना और न किसी का बायां हाथ है बल्कि वह अपने सकारात्मक सोच और विमर्ष के साथ दुनिया के साथ न केवल नाता जोड़ रहा है बल्कि अपनी ताकत से भी अवगत करा रहा है। स्विट्जरलैण्ड, अमेरिका और मैक्सिको का एनएसजी पर मिला ताजा समर्थन भारत की इसी सोच और मजबूती का ही सबूत है। ऐसा भी रहा है कि कूटनीतिक स्थितियां जब किसी के फायदे की ओर झुकती हैं, तो तभी किसी के नुकसान की ओर भी झुकी होती हैं। जाहिर है एनएसजी पर मिले समर्थन से जहां भारत फायदे की ओर है वहीं पड़ोसी त्रासद महसूस कर रहे हैं।
कूटनीति में सापेक्षता के सिद्धान्त इस बात की महत्ता लिए होते हैं कि वक्त के साथ संतुलन की आवष्यकता सभी को पड़ती है। इन दिनों भारत जिस वैष्विक फलक पर है उसे देखते हुए साफ है कि बढ़ती ताकत से कई देष असहज होंगे। सबके बावजूद चीन भी यह मानता है कि भारत और अमेरिका के सम्बंध अभूतपूर्व मुकाम पर हैं ऐसे में इसका असर दक्षिण चीन सागर की स्थितियों पर पड़ना तय है। गौरतलब है कि 2012 से लेकर अब तक दक्षिण चीन सागर के मामले में स्थितियां बदलाव की ओर झुकी प्रतीत होती हैं। फिलहाल छः दिवसीय और पांच देषों की यात्रा पर निकले प्रधानमंत्री मोदी मैक्सिको से इसको विराम लगाते हुए एक बार फिर बढ़ी हुई हैसियत के साथ वापसी कर रहे हैं। यात्रा के आखिरी दिन एक रोचक प्रसंग देखने को मिला कि जब मैक्सिको के राश्ट्रपति स्वयं गाड़ी चलाकर मोदी के साथ रेस्तरां गये। देखना तो यह भी है कि अमेरिका की धरती से बिना नाम लिए आतंक को लेकर पाक पर मोदी का हमला उसके सुधार में कितने काम आती है साथ ही देषों से हुए समझौते का कितना असर होता है। 

सुशील कुमार सिंह


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