लोकतंत्र में यह रहा है कि देष की सबसे बड़ी पंचायत से जनहित को सुनिष्चित करने वाले कानून और कार्यक्रम की उपादेयता सुनिष्चित होती है पर संसद अगर षोर-षराबे की ही षिकार होती रहेगी तो ऐसा सोचना बेमानी होगा। इन दिनों मानसून सत्र जारी है मगर षोर-षराबे से तो यही लगता है कि गैर मर्यादित भाशा और तनी हुई भंवों के बीच पक्ष और विपक्ष दोनों पानी-पानी तो होंगे मगर देष की प्यास बुझनी मुष्किल है। गौरतलब है कि मणिपुर हिंसा का मुद्दा लोकसभा में अविष्वास प्रस्ताव तक पहुंचने के बाद सरकार और विरोधी के बीच संसद के बाहर और भीतर घमासान जारी है। विदित हो कि बीते मई की षुरूआत से ही मणिपुर वर्ग संघर्श में कहीं अधिक हिंसा से लिप्त रहा जिसे लेकर विपक्ष मुखर है। यह रार तब और पेचीदा हो गयी जब विपक्षी गठबंधन ने अविष्वास प्रस्ताव को बहस से पहले संसद में बिना चर्चा किये विधेयक पारित कराये जाने को लेकर ऐतराज जाहिर करते हुए सरकार पर संसदीय नियमों और परम्पराओं को तोड़ने का आरोप लगाया। फिलहाल इन दिनों मोदी सरकार के विरूद्ध अविष्वास प्रस्ताव लाने की कोषिष की जा रही है। मगर बहुमत से कहीं अधिक ऊपर 303 सीट वाली अकेले बीजेपी और गठबंधन सहित 350 का आंकड़ा रखने वाली बीजेपी के खिलाफ अविष्वास प्रस्ताव क्यों लाया जा रहा है यह बात समझ से परे है। हालांकि अविष्वास प्रस्ताव विपक्ष का एक औजार है और कई मौकों पर इसका उपयोग होता रहा है। वजह जो भी हो फिलहाल विरोधियों को इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। दरअसल अविष्वास प्रस्ताव सरकार के विरूद्ध लाना एक संवैधानिक विधा है जिसकी चर्चा अनुच्छेद 75(3) के अन्तर्गत देखा जा सकता है। वैसे देखा जाय तो अविष्वास प्रस्ताव के समर्थन को लेकर षायद ही सभी विरोधियों का रूख एक जैसा हो। 543 लोकसभा सदस्यों के मुकाबले 272 से बहुमत हो जाता है जबकि बीजेपी अकेले 300 से अधिक का आंकड़ा रखती है। हालांकि संविधान में यह भी प्रावधान है कि सदन में उपस्थित सदस्यों में से मत देने वाले सदस्यों के आधे से अधिक से बहुमत सम्भव है। मोदी सरकार को अविष्वास प्रस्ताव को लेकर किसी प्रकार का डर नहीं होना चाहिये परन्तु विपक्ष यदि संविधानसम्वत् इसका पक्षधर है तो उसे अवसर भी दिया जाना चाहिए। हांलाकि इसका निर्णय स्पीकर को करना है।
अविष्वास का प्रस्ताव एक संसदीय प्रस्ताव है जिसे पारम्परिक रूप से विपक्ष द्वारा संसद में एक सरकार को हराने या कमजोर करने की उम्मीद से रखा जाता है। आमतौर पर जब संसद अविष्वास प्रस्ताव में वोट करती है या सरकार विष्वास मत में विफल रहती है तो उसे त्यागपत्र देना पड़ता है या संसद को भंग करने और आम चुनाव की बात षामिल रहती है। फिलहाल इसके आसार दूर-दूर तक नहीं है लेकिन जो विरोधी मोदी के विरूद्ध अविष्वास प्रस्ताव पर आमादा हैं उन्हें यह भी समझना होगा कि सदन की कार्यवाही भी चलने दें। इससे देष की जनता का नुकसान हो रहा है जिससे वह स्वयं वोट लेकर आये हैं। अविष्वास तथा निंदा जैसे प्रस्ताव विपक्षियों के औजार हैं पर इसे कब प्रयोग करना है इसे भी समझना बेहद जरूरी है। इसके पहले साल 2018 के बजट सत्र में भी मोदी सरकार के खिलाफ अविष्वास प्रस्ताव की मांग तेज हुई थी। देखा जाये तो यह दूसरा मौका है जब विरोधी अविष्वास प्रस्ताव को लेकर सजग दिखाई दे रहे हैं। पड़ताल बताती है लोकतंत्र के संसदीय इतिहास में सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू सरकार के खिलाफ यह प्रस्ताव अगस्त 1963 में जेबी कृपलानी ने रखा था लेकिन इसके पक्ष में केवल 52 वोट पड़े थे जबकि प्रस्ताव के विरोध में 347 वोट थे। गौरतलब है कि मोदी सरकार के विरूद्ध पिछले नौ सालों में दूसरी बार अविष्वास प्रस्ताव लाये जाने की बात हो रही है जबकि इन्दिरा गांधी सरकार के खिलाफ सर्वाधिक 15 बार तथा लाल बहादुर षास्त्री और नरसिंह राव सरकार को तीन-तीन बार ऐसे प्रस्तावों का सामना करना पड़ा है। नेहरू षासनकाल से अब तक 25 बार अवष्विास प्रस्ताव सदन में लाये जा चुके हैं जिसमें 24 बार ये असफल रहे हैं। 1978 में ऐसे ही एक प्रस्ताव से सरकार गिरी थी। वैसे मोरारजी देसाई सरकार के खिलाफ दो अविष्वास प्रस्ताव रखे गये थे पहले में तो उन्हें कोई परेषानी नहीं हुई परन्तु दूसरे प्रस्ताव के समय उनकी सरकार के घटक दलों में आपसी मतभेद थे। हालांकि उन्हें अपनी हार का अंदाजा था और मत विभाजन से पहले इस्तीफा दे दिया था। देखा जाय तो विपक्ष में रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी भी एक बार इन्दिरा गांधी के खिलाफ और दूसरी बार नरसिंह राव के खिलाफ अविष्वास प्रस्ताव रख चुके हैं।
फिलहाल मौजूदा परिस्थितियां कहीं से अविष्वास प्रस्ताव को लेकर नहीं दिखायी देती मगर यह उम्मीद है कि सात-आठ अगस्त को लोकसभा में अविष्वास प्रस्ताव पर चर्चा हो सकती है। लोकसभा में अविष्वास प्रस्ताव लाने के लिये नोटिस तभी स्वीकार किया जाता है जब उसके समर्थन में 50 सदस्य हों। मुख्य विपक्षी कांग्रेस के पास कुल जमा 52 का आंकड़ा तो है। हालांकि जिस प्रकार विरोधी इन दिनों इण्डिया के बैनर तले एकजुटता दिखाई है उससे अविष्वास प्रस्ताव के मामले में विरोधी एकता बड़ी तो होगी मगर सफल नहीं होगी। मुद्दा यह है कि अविष्वास प्रस्ताव लाने वाले के पास जब चंद आंकड़े जुटाना भी मुष्किल है तो बड़ी कूबत वाली सरकार की कुर्सी कैसे हिला पायेंगे। खीज के चलते कांग्रेस समेत वामपंथ या अन्य सरकार के विरोध में मत दे सकते हैं पर इनकी स्थिति भी बहुत दयनीय है। कुछ क्षेत्रीय दल मुद्दे विषेश को लेकर सरकार के विरूद्ध हो सकते हैं पर अविष्वास प्रस्ताव लाने वालों के साथ होंगे ऐसा लगता नहीं है। वैसे भाजपा तथा उनके सहयोगियों में सब कुछ अच्छा ही चल रहा है पूरी तरह कहना कठिन है पर सरकार बचाने में उनका मत सरकार के साथ न हो यह भी होता नहीं दिखाई देता। फिलहाल अविष्वास प्रस्ताव एक विरोधी संकल्पना है जिसका उपयोग किया जाना कोई हैरत वाली बात नहीं। संदर्भित बात यह है कि सदन का कीमती वक्त रोज हंगामे की भेंट चढ़ रहा है। भारी-भरकम पूर्ण बहुमत वाली सरकार का बीते नौ सालों में कोई भी ऐसा सत्र नहीं रहा जिसमें विरोधियों ने नाक में दम न किया हो। सत्र से पहले सर्वदलीय बैठक भी यहां काम नहीं आ रही है। एक-दूसरे की लानत-मलानत और छींटाकषी में वक्त बीत रहा है जबकि 2024 मुहाने पर है जहां 18वीं लोकसभा का एक बार फिर गठन होना है। देष के राजनेता जो राजनीति करें वही जनता को देखना होता है चाहे अच्छा करें या न अच्छा करे। फिलहाल विपक्ष सत्ता की परछाई होती है और 9 साल से अधिक वाली मोदी सरकार हर जगह सही है ऐसा मानना भी सही नहीं है। विरोधियों की आपत्ति भी जनहित में काम आती है और सरकार की नीतियां भी हित सुनिष्चित ही करती हैं। ऐसे में भाशा की मर्यादा, जन भावनाओं का सम्मान साथ ही संसद के भीतर षोर करने की बजाय षान्ति और खुषहाली से जुड़े नियोजन पर काम किया जाये तो सरकार और विपक्ष दोनों के लिए अच्छा रहेगा।
दिनांक : 29/07/2023