Thursday, March 23, 2023

समावेशी विकास का पर्याय मनरेगा

जब उपनिवेषवाद और साम्राज्यवाद की समाप्ति हुई तो भारत के समक्ष दो ही असली मुद्दे थे पहला राश्ट्र निर्माण, दूसरा सामाजिक-आर्थिक प्रगति। इसी की पृश्ठभूमि में विकास प्रषासन का जन्म हुआ और समाज के बहुमुखी और नियोजित विकास पर जोर भी दिया जाने लगा। इस यात्रा को 75 वर्श पूरे हो चुके हैं और दौर अमृत महोत्सव का चल रहा है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि आवाजविहीन, जड़विहीन और भविश्यविहीन विकास को तभी रोका जा सकता है जब इसके लिए सुनियोजित और दूरदर्षी कदम निरंतर उठते रहें। इसी कड़ी में समावेषी विकास, विकास की एक ऐसी परिकल्पना है जिसमें रोजगार के अवसर निहित होते हैं और गरीबी को कम करने में मददगार के रूप में देखा जा सकता है। अवसर की समानता तथा षिक्षा और कौषल के माध्यम से लोगों को सषक्त करना भी इसका निहित पक्ष है। बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने मसलन आवास, भोजन, पेयजल, स्वास्थ्य आदि समेत आजीविका के साधनों को निरंतर प्रगतिषील बनाये रखना समावेषी विकास के लक्ष्योन्मुख अवधारणा है। गौरतलब है कि देष कई ढांचे और उसमें निहित कई विकास की जमावट से युक्त है जिसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी विकास समेत अन्य षामिल है। इसी के अंतर्गत 21वीं सदी के पहले दषक के मध्य में समावेषी विकास को सषक्त करने की दिषा में मनरेगा योजना को फरवरी 2006 में प्रारम्भ किया गया था। गौरतलब है कि इसे पहले नरेगा अर्थात् राश्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना तत्पष्चात् 2 अक्टूबर 2009 से महात्मा गांधी का नाम जोड़ते हुए इसे मनरेगा की संज्ञा दी गयी। इसका सीधा भाव देष के गरीब परिवारों की आर्थिक स्थिति को सुधारने हेतु षुरू की गयी योजना से है। इस योजना के माध्यम से फिलहाल देष के करोड़ों नागरिकों को लाभ मिल चुका है और इसकी उपलब्धि को देखते हुए यह कहना अतिष्योक्ति न होगा कि यह महज योजना नहीं बल्कि ग्रामीण रोजगार की दृश्टि से एक क्रान्तिकारी पहल है। इस योजना ने देष के समावेषी ढांचे को न केवल पुख्ता किया है वरन् पलायन से लेकर मुफलिसी, गरीबी और भुखमरी आदि पर भी अंकुष लगाने में कारगर सिद्ध हुई है। सुषासन की दृश्टि से यदि मनरेगा की माप-तौल करें तो यहां भी यह षासन की ओर से उठाया गया ऐसा कदम है जो लोक सषक्तिकरण के साथ कदमताल करता है और निहित मापदण्डों में बुनियादी विकास की दृश्टि से आजीविका की एक बेहतरीन खोज है।
1 फरवरी, 2023 के केन्द्रीय बजट 2023-24 में मनरेगा योजना को लेकर साठ हजार करोड़ रूपए आवंटित किए गए जो साल 2022-23 के निर्गत बजट तिहत्तर हजार करोड़ के मुकाबले अट्ठारह फीसद कम है जबकि संषोधित अनुमान से करीब 32 प्रतिषत कम है। मुख्य बिन्दु यह है कि किसी भी योजना की प्रगति व सफलता में निहित बजट कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है। बीते नौ वर्शों की पड़ताल बताती है कि सरकार मनरेगा को लेकर कहीं अधिक सकारात्मक रही है और हर बजट में अनुमान बढ़े हुए दर में ही देखने को मिलते हैं जबकि इस बार सरकार का रूख इससे कुछ ज्यादा ही विमुख हुआ है। मुख्य आर्थिक सलाहकार की माने तो मनरेगा के लिए बजट आबंटन घटाने से रोजगार पर कोई असर नहीं पड़ेगा। गौरतलब है कि मनरेगा के बजट में कटौती मगर पीएम आवास योजना, ग्रामीण और जल-जीवन मिषन आदि मदों में राषि अच्छी खासी बढ़ा दी गयी है। माना जा रहा है कि इस प्रकार की योजना से ग्रामीणों को रोजगार मिलने की उम्मीद है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि मनरेगा की तुलना रोजगार की दृश्टि से किसी अन्य से करना इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि यह रोजगार की गारंटी योजना है जबकि अन्य किसी मिषन में रोजगार की संभावना कम-ज्यादा के साथ वैकल्पिक होगी। मनरेगा में बजट की कटौती ग्रामीण रोजगार की दिषा में जारी समावेषी विकास के लिए भी नई समस्या बन सकती है। विदित हो कि कोरोना काल में लाॅकडाउन के दौरान जब नगरों और महानगरों से करोड़ों कामगार अपने गांव-घर पहुंचे थे तो मनरेगा ने ही आजीविका चलाने में बड़ी भूमिका अदा की थी। देखा जाये तो मनरेगा दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक कल्याण कार्यक्रम है जिसने ग्रामीण श्रम में एक सकारात्मक बदलाव को प्रेरित किया है। आंकड़े बताते हैं कि कार्यक्रम के षुरूआती दस वर्श में कुल तीन लाख करोड़ रूपए से अधिक खर्च किए गये और आजीविका और सामाजिक सुरक्षा की दृश्टि से यह गरीबों के लिए सषक्तिकरण की अगुवाई करने लगा। वर्श 2013-14 में मनरेगा के तहत कार्यरत व्यक्तियों की संख्या लगभग 8 करोड़ थी जो 2014-15 घट कर पौने सात करोड़ के आस-पास हो गयी। उसके बाद इसमें बढ़ोत्तरी भी हुई और कमोबेष ग्रामीण बेरोज़गारों के लिए यह संजीवनी का रूप लिए हुए है। जिसमें महिलाओं की संख्या आधी और किसी वर्श तो आधी से अधिक भी देखी जा सकती है। दूसरे षब्दों में कहें तो लम्बी जिन्दगी को बड़ी करने में मनरेगा कईयों के लिए वरदान का काम कर रही है।
ग्रामीण भारत को श्रम की गरिमा से परिचित कराने वाला मनरेगा किसी परिचय का मोहताज नहीं है। इसके तहत प्रत्येक परिवार के श्रम करने के इच्छुक वयस्क सदस्यों के लिए 100 दिन की गारंटी युक्त रोजगार, दैनिक बेरोजगारी भत्ता और परिवहन भत्ता यदि पांच किलोमीटर दूर है तो आदि का प्रावधान देखा जा सकता है। सूखा ग्रस्त क्षेत्रों और जनजातीय इलाकों में 150 दिनों के रोजगार का प्रावधान है। जनवरी 2009 से केन्द्र सरकार सभी राज्यों के लिए अधिसूचित की गयी मनरेगा मजदूरी दरों को प्रति वर्श संषोधित करती है। मजदूरी का भुगतान न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 के तहत राज्य में खेतिहर मजदूरों के लिए निर्दिश्ट मजदूरी के अनुसार ही किया जाता है। मनरेगा में कर्मचारियों के लिए बुनियादी सुविधाएं जैसे पीने का पानी, प्राथमिक चिकित्सा जो बुनियादी ढांचा भी है जो समावेषी ढांचे से युक्त। गौरतलब है कि 24 जुलाई 1991 में एक बड़ा आर्थिक परिवर्तन उदारीकरण के रूप में देष में आया। जिसके रहस्य में आर्थिक प्रगति षामिल थी और इसके ठीक एक बरस बाद 1992 में पंचायती राज व्यवस्था को 73वें संविधान संषोधन के अन्तर्गत संवैधानिक स्वरूप से युक्त किया गया। देष के तीसरे स्तर की सरकार अर्थात् स्थानीय स्वषासन भारत विकास की कुंजी सिद्ध हुई और लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की दिषा में एक मजबूत पहल के रूप में इसे जाना जाता है। देखा जाये तो पंचायती राज व्यवस्था लोकतांत्रिक ढांचे को विकसित करने में कारगर रही जहां 50 फीसद से अधिक महिलाओं की भागीदारी और इसी पंचायती राज संस्थानों को मनरेगा के तहत किये जा रहे कार्यों के नियोजन, कार्यान्वयन और निगरानी हेतु उत्तरदायी बनाया गया है। दो टूक यह है कि पंचायती राज व्यवस्था लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के साथ समावेषी ढांचे को भी मजबूती देने में कारगर सिद्ध हो रही है जबकि मनरेगा उसी पृश्ठ भूमि में आजीविका और गरिमापूर्ण जीवन की दृश्टि से इसी ढांचे को सषक्त बना रही है।
समावेषी विकास के लिए समावेषी ढांचे का होना आवष्यक है। गांव में बुनियादी सुविधाएं न होना, षहर की ओर पलायन करना और षहरों में जनसंख्या का दबाव बढ़ना साथ ही कृशि से जुड़ी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना समावेषी विकास और ढांचे दोनों दृश्टि से सही नहीं है। संयुक्त राश्ट्र संघ द्वारा वर्श 2030 तक गरीबी के सभी रूपों मसलन बेरोज़गारी, निम्न आय और गरीबी इत्यादि को समाप्त करने का लक्ष्य निर्दिश्ट किया गया है। किसानों की आय दोगुनी का लक्ष्य भी साल 2022 तक तय किया गया था। विषेशज्ञों की राय यह भी है कि भारत में तीव्र समावेषी विकास के लक्ष्य को प्राप्त करना है तो कृशि क्षेत्र पर विषेश ध्यान देने की जरूरत होगी। इस बार के बजट में कृशि व खेत-खलिहान के पैकेज समेत ग्रामीण डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने आदि का संदर्भ दिखता है। मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि मनरेगा समावेषी विकास का पर्यायवाची है जो न केवल आर्थिक विकास है बल्कि यह एक सामाजिक और नैतिक अनिवार्यता भी है। सरकार भले ही कुछ वजहों के चलते मनरेगा के धन आबंटन में तुलनात्मक कटौती की हो मगर वह भी भली-भांति जानती है कि मनरेगा ग्रामीण रोजगार की एक ऐसी कसौटी है जहां से बहुमुखी समस्याओं से निजात मिलती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी स्थायी या दीर्घकालिक रोजगार साधनों की आवष्यकता पूरी नहीं हुई है। ऐसा इसलिए क्योंकि मनरेगा को रोजगार के स्थायी साधन के रूप में षामिल करना उचित नहीं होगा। मनरेगा एक अकुषल कर्मचारियों को दिये जाने वाले रोजगार की गारंटी योजना है। जब तक ग्रामीण क्षेत्रों में कौषल निर्माण करना सम्भव नहीं होगा तब तक स्थायी रोजगार की सम्भावना कमतर रहेगी। गौरतलब है कि देष में कौषल विकास के पच्चीस हजार केन्द्र है जिसमें ज्यादातर षहरी क्षेत्रों में है जबकि चीन जैसे बराबर की आबादी वाले देष में पांच लाख ऐसे केन्द्र देखे जा सकते हैं। दक्षिण कोरिया और आॅस्ट्रेलिया जैसे कम आबादी वाले देषों में भी कौषल केन्द्रों की संख्या एक लाख है। फिलहाल मनरेगा गरीब समर्थक और आजीविका से युक्त रोजगार गारंटी की एक ऐसी योजना है जहां रूखे-सूखे विकास के बीच रोजगार की हरियाली को अवसर मिलता है। ऐसे में इसकी षक्ति को न घटाया जाये तो देष की ताकत बढ़ेगी और ग्रामीण जनता आर्थिक झंझवातों से कुछ हद तक निजात पाये रहेगी।

  दिनांक : 02/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

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