Thursday, March 23, 2023

ताकि ग्राम पंचायतें विकास की बुनियाद बनें

पंचायत केवल एक षब्द नहीं बल्कि गांव की वह जीवनधारा है जहां से सर्वोदय की भावना और पंक्ति में खडे़ अन्तिम व्यक्ति को समान होने का एहसास देता है। पंचायत लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का परिचायक है और सामुदायिक विकास कार्यक्रम इसकी नींव है जिसकी प्रारम्भिकी 2 अक्टूबर 1952 में देखी जा सकती है। पंचायत जैसी संस्था की बनावट कई प्रयोगों और अनुप्रयोगों का भी नतीजा है। सामुदायिक विकास कार्यक्रम का विफल होना तत्पष्चात् बलवंत राय मेहता समिति का गठन और 1957 में उसी की रिपोर्ट पर इसका मूर्त रूप लेना देखा जा सकता है। गौरतलब है कि जिस पंचायत को राजनीति से परे और नीति उन्मुख सजग प्रहरी की भूमिका में समस्या निश्पादित करने का एक स्वरूप माना जाता है आज वही कई समस्याओं से मानो जकड़ी हुई है। नीति निदेषक तत्व के अनुच्छेद 40 के अन्तर्गत पंचायत के गठन की जिम्मेदारी राज्यों को दिया गया और लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की दृश्टि से इसका अनुपालन सुनिष्चित करना न केवल इनका दायित्व था बल्कि गांवों के देष भारत को सामाजिक-आर्थिक दृश्टि से अत्यंत षक्तिषाली भी बनाना था। इस मामले में पंचायतें कितनी सफल हैं यह पड़ताल का विशय है। मगर लाख टके का सवाल यह है कि जिस पंचायत में सबसे नीचे के लोकतंत्र को कंधा दिया हुआ है वही कई समस्याओं से मुक्त नहीं है चाहे वित्तीय संकट हो या उचित नियोजन की कमी या फिर अषिक्षा, रूढ़िवादिता तथा पुरूश वर्चस्व के साथ जात-पात और ऊंच-नीच ही क्यों न हो। कुछ भी कहिए समस्या कितनी भी गम्भीर हो यह पिछले तीन दषकों में घटी तो है और इसी पंचायत ने यह सिद्ध भी किया है कि उसका कोई विकल्प नहीं है।
पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं की भूमिका और भागीदारी आधे-आध की है। देखा जाये तो तीन दषक पुरानी संवैधानिक पंचायती राज व्यवस्था में व्यापक बदलाव तो आया है। राजनीतिक माहौल में सहभागी महिला प्रतिनिधियों की प्रति पुरूश समाज की रूढ़िवादी सोच में अच्छा खासा बदलाव हुआ है जिसके परिणामस्वरूप भय, संकोच और घबराहट को दूर करने में वे कामयाब भी रही हैं। बावजूद इसके विभिन्न आर्थिक-सामाजिक रूकावट के कारण महिलाओं में आन्तरिक क्षमता और षक्ति का भरोसा अभी पूरी तरह उभरा है ऐसा कम दिखाई देता है। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की यही सजावट है कि पंचायते सामाजिक प्रतिश्ठा और महिला भागीदारी से सबसे ज्यादा भरी हुई है मगर राजनीतिक माहौल में अपराधीकरण, बाहुबल, जात-पात और ऊंच-नीच आदि दुर्गुणों से पंचायत भी मुक्त नहीं है। समानता पर आधारित सामाजिक संरचना का गठन सुषासन की एक कड़ी है। ऐसे समाज का निर्माण करना जहां षोशण का आभाव हो और सुषासन का प्रभाव हो। जिससे पंचायत में पारदर्षिता और खुलेपन को बढ़ावा मिल सके ताकि 11वीं अनुसूची में दर्ज 29 विशयों को जनहित में सुनिष्चित कर ग्रामीण प्रषासन को सषक्त किया जा सके। स्पश्ट है कि 2011 की जनगणना के अनुसार देष में हर चैथा व्यक्ति अभी भी अषिक्षित है पंचायत और सुषासन पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है। अधिकतर महिला प्रतिनिधि अनपढ़ है जिससे उनको पंचायत के लेखापत्र नियम पढ़ने व लिखने में कई दिक्कत आती है। डिजिटल इण्डिया का संदर्भ भी 2015 से देखा जा सकता है। आॅनलाइन क्रियाकलाप और डिजिटलीकरण ने भी पंचायत से जुड़े ऐसे प्रतिनिधियों के लिए कमोबेष चुनौती पैदा की है। हालांकि देष की ढ़ाई लाख पंचायतों में काफी हद तक व्यापक पैमाने पर डिजिटल कनेक्टिविटी बाकी भी है साथ ही बिजली आदि की आपूर्ति का कमजोर होना भी इसमें एक बाधा है।
पंचायत जहां लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का परिचायक है और स्वायत्तता इसकी धरोहर है तो वहीं सुषासन कहीं अधिक संवेदनषील लोक कल्याण और पारदर्षिता व खुलेपन से युक्त है। पंचायत की व्याख्या में क्षेत्र विषेश में षासन करने का पूर्ण और विषिश्ट अधिकार निहित है और इसी अधिकार से उन दायित्वों की पूर्ति जो ग्रामीण प्रषासन के अन्तर्गत स्वषासन का बहाव भरता है वह भी संदर्भित होता है। जबकि सुषासन एक ऐसी लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो बार-बार षासन को यह सचेत करता है कि समावेषी और सतत् विकास के साथ बारम्बार सुविधा प्रदायक की भूमिका में बने रहना है। 1997 का सिटिजन चार्टर सुषासन की ही आगे की पराकाश्ठा थी और 2005 के सूचना के अधिकार इसी का एक और चैप्टर। इतना ही नहीं 2006 की ई-गवर्नेंस योजना भी सुषासन की रूपरेखा को ही चैड़ा नहीं करती बल्कि इन तमाम के चलते पंचायत को भी ताकत मिलती है। 1992 में सुषासन की अवधारणा सबसे पहले ब्रिटेन में जन्म लिया था और 1991 के उदारीकरण के बाद इसकी पहल भारत में भी देखी जा सकती है। सुषासन के इसी वर्श में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक स्वरूप दिया जा रहा था। संविधान के 73वें संषोधन 1992 में जब इसे संवैधानिक स्वरूप दिया गया तब 2 अक्टूबर 1959 से राजस्थान के नागौर से यात्रा कर रही यह पंचायत रूपी संस्था एक नये आभामण्डल से युक्त हो गयी। 1992 में हुए इस संषोधन को 24 अप्रैल 1993 को लागू किया गया। यही पंचायत दिवस के रूप में स्थापित है जो ग्रामीण प्रषासन के लिए एक विषिश्टता और गौरव का परिचायक बनी। स्वषासन के संस्थान के रूप में इसकी व्याख्या दो तरीके से की जा सकती है पहला संविधान में इसे सुषासन के रूप में निरूपित किया गया है जिसका सीधा मतलब स्वायत्तता और क्षेत्र विषेश में षासन करने का पूर्ण और विषिश्ट अधिकार है। दूसरा यह प्रषासनिक संघीयकरण को मजबूत करता है। गौरतलब है कि संविधान के इसी संषोधन में गांधी के ग्रामीण स्वषासन को पूरा किया मगर क्या यह बात भी पूरी षिद्दत से कही जा सकती है कि स्वतंत्र भारत की अतिमहत्वाकांक्षी संस्था स्थानीय स्वषासन सुषासन से परिपूर्ण है।
डिजिटल क्रान्ति ने सुषासन पर गहरी छाप छोड़ी है। जहां एक तरफ डिजिटल लेन-देन में तेजी आयी है, कागजों के आदान-प्रदान में बढ़ोत्तरी हुई है, भूमि रिकाॅर्डों का डिजिटलीकरण हो रहा है, फसल बीमा कार्ड, मृदा स्वास्थ कार्ड और किसान क्रेडिट कार्ड सहित प्रधानमंत्री फसल बीमा जैसी योजनाओं में दावों के निपटारे के लिए रिमोट सेंसिंग, आर्टिफिषियल इंटेलिजेंस और माॅडलिंग टूल्स का प्रयोग होने लगा है। वहीं ग्राम पंचायतों में खुले स्वास्थ सेवा केन्द्रों में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहन भी दिया जा रहा है ताकि वे ग्राम स्तरीय उद्यमी बने। सूचना और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करते हुए षासन की प्रक्रियाओं का पूर्ण रूपांतरण ही ई-गवर्नेंस कहलाता है जिसका लक्ष्य आम नागरिकों को सभी सरकारी सेवाओं तक पहुंच प्रदान करते हुए साक्षरता, पारदर्षिता और विष्वसनीयता को सुनिष्चित करना षामिल है। इसी के लिए सामान्य सेवा केन्द्र की स्थापना की गयी जिसका संचालन ग्राम पंचायत और ग्राम स्तर के उद्यमियों द्वारा किया जाता है। गौरतलब है कि राश्ट्रीय ई-गवर्नेंस कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रारम्भ में 31 सेवाएं षामिल की गयी थी। इस प्रकार की अवधारणा सुषासन की परिपाटी को भी सुसज्जित करती है। सुषासन की दृश्टि से भी देखें तो लोक सषक्तिकरण इसकी पूर्णता है और लोक विकेन्द्रीकरण की दृश्टि से देखें तो पंचायत में यह सभी खूबी है। लोकतंत्र के लिए यह भी जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर स्थानीय मसलों और समस्याओं के निकराकरण के लिए एक निर्वाचित सरकार हो जिसे स्थानीय मुद्दों पर स्वायत्तता प्राप्त हो। उपरोक्त तमाम बातें सुषासन की उस पराकाश्ठा से भी मेल खाती हैं जो अच्छी सरकार की भावना से युक्त है।
 दिनांक : 08 /02/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

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