Wednesday, March 30, 2022

ई-कचरा और हमारा सुशासन

सभ्यता और तकनीक की बेहद ऊंचाई पर पहुंची दुनिया अब ई-कचरा से परेषान हैं। दुनिया भर में जैसे-जैसे इलेक्ट्राॅनिक उत्पादों की मांग बढ़ रही है वैसे-वैसे इलेक्ट्राॅनिक कचरे भी उफान ले रहे हैं। गौरतलब है हम अपने घरों और उद्योगों में जिन इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्राॅनिक सामानों को इस्तेमाल के बाद फेंक देते है वहीं कबाड़ ई-वेस्ट अर्थात ई-कचरा की संज्ञा में आता हैं। संयुक्त राश्ट्र द्वारा जारी ग्लोबल ई-वेस्ट माॅनीटर 2020 की रिपोर्ट दर्षाती है कि 2019 में 5.36 करोड़ मैट्रिक टन इलेक्ट्राॅनिक कचरा उत्पन्न हुआ था। हैरत यह भी है कि 2030 तक ई-कचरा बढ़कर 7.4 करोड़ मैट्रिक टन पर पहुंच जाएगा। पूरी दुनिया में ई-कचरा को यदि महाद्वीपों के आधार पर बांटकर देखे तो एषिया में 2.49 करोड़ टन अमेरिका में 1.31 करोड़ टन यूरोप में 1.2 करोड़ टन और अफ्रीका में 29 लाख टन कचरा उत्पन्न देखा जा सकता हैं। यही ओषिनिया (आॅस्ट्रेलिया) में 7 लाख टन इलेक्ट्राॅनिक वेस्ट हैं। अनुमान तो यह भी है कि 16 वर्शों के भीतर ई-कचरा दोगुना हो जाएगा। भारत जैसे विकासषील देष में जहां इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्राॅनिक वस्तुएं जनसंख्या के एक बहुत बड़े हिस्से तक अभी पूरी तरह पहुंची ही नहीं है बावजूद इसके 10 लाख टन से अधिक कचरा उत्पन्न हो रहा हैं। केन्द्रीय प्रदूशण नियंत्रण बोर्ड की दिसम्बर 2020 की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा देखा जा सकता हैं। गौरतलब है कि ई-कबाड़ प्रबन्धन का एक जटिल प्रक्रिया है और सुषासन के लिए बड़ी चुनौती भी। भारत में ई-कबाड़ प्रबन्धन नीति 2011 से ही उपलब्ध हैं और इसके दायरे का साल 2016 और 2018 में विस्तार भी किया गया है मगर जमीनी हकीकत यह है कि इस पर किया गया अमल असंतोश से भरा हुआ हैं। रोचक यह भी है कि देष में उत्पन्न कुल ई-कचरा का महज़ 5 फीसद ही रीसाइकिलिंग केन्द्रों के जरिए प्रसंस्करण किया जाता हैं जाहिर है बाकि बचा हुआ 95 फीसद ई-कबाड़ का निस्तारण अनौपचारिक क्षेत्र के हवाले हैं। 

वैसे देखा जाए तो सरकार ने साल 2008 में सामान्य कबाड़ प्रबन्धन नियम लागू किया था। इन नियमों में ई-कचरा के प्रबन्धन को लेकर जिम्मेदार ढ़ंग से काम करने की बात भी निहित थी हालांकि तब समस्या इतनी बड़ी नहीं थी। गौरतलब है कि ई-कचरा तब पैदा होता है जब किसी उत्पाद का उपयोगकत्र्ता यह तय करता है कि इस सामान का उसके लिए कोई उपयोग नहीं हैं। मौजूदा समय में भारत में 136 करोड़ की जनसंख्या में 120 करोड़ मोबाइल हैं जब यही मोबाइल इस्तेमाल के लायक नहीं रहते तो जाहिर है ई-कचरे के एक प्रारूप के रूप में सामने आते हैं। गौरतलब है कि भारत में 2025 तक इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की तादाद 90 करोड़ हो जाएगी फिलहाल अभी यह संख्या 65 करोड़ के आस-पास हैं। भारत में ई-कचरा का उत्पादन 2014 में 1.7 मिलियन टन से बढ़कर साल 2015 में 1.9 मिलियन टन हो गया था। ई-कचरे में बाढ़ आने की परम्परा वैसे तो ज्यादा पुरानी नहीं है मगर मौजूदा समय इस मामले में कहीं अधिक बढ़त लिए हुए हैं। संदर्भ निहित बात यह भी है कि राश्ट्रीय ई-कबाड़ कानून के अन्तर्गत इलेक्ट्राॅनिक वस्तुओं का प्रबन्धन औपचारिक संग्रह के जरिए ही किया जाना चाहिए क्योंकि इस तरह से इकट्ठे किए गए कबाड़ को विषेश प्रसंस्करण केन्द्र में ले जाया जा सकता हैं। जहां इसे रिसाइकिलिंग करते समय पर्यावरण और स्वास्थ्य को भी ध्यान में रखना संभव हैं। हांलाकि भारत में इस मामले में स्थिति फिसड्डी हैं। साल 2018 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय न्यायाधिकरण को बताया था कि भारत में ई-कचरे का 95 फीसद पुनर्नवीनीकरण अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा किया जाता हैं। इतना ही नहीं अधिकांष स्क्रैप डीलरों द्वारा व इसका निपटान अवैज्ञानिक तरीका अपनाकर इसे जलाकर एसिड के माध्यम के किया जाता हैं। 

2010 में संसद की कार्यवाही के दौरान के उत्पन्न आंकड़े इषारा करते हैं कि भारतीय इलेक्ट्राॅनिक क्षेत्र ने 21वीं सदी के पहले दषक में जबरदस्त प्रगति की। 2004-2005 में 11.5 अरब अमेरिकी डाॅलर से यह क्षेत्र 2009-2010 में 32 अरब अमेरिकी डाॅलर पर पहुंच गया। गौरतलब है कि इन्हीं दिनों में इलेक्ट्राॅनिक वस्तुओं के स्वदेष में उत्पादन और आयात में आयी वृद्धि के साथ ई-कचरा ने भी समृद्धि हासिल कर ली। इसी के चलते इस क्षेत्र पर नियामक नियंत्रण की आवष्यकता महसूस की जाने लगी और भारत में ई-कचरा प्रबन्धन नीति 2011 लाई गई। विकसित देषों में यह देखा गया है कि ई-कचरा की रिसाइकिलिंग का खर्च ज्यादा हैं। इन देषों में टूटे और खराब उपकरणों के प्रबन्धन व निस्तारण के लिए कम्पनियों को भुगतान करना पड़ता हैं। दरअसल ई-कचरा निपटान से जुड़ी समस्या में कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दु इस प्रकार है कि उसे लेकर बड़े समझ की आवष्यकता हैं। इस मामले में पहला मुद्दा तो मूल्य का है और अगला संदर्भ औपचारिक रिसाइकिलिंग कत्र्ताओं की तुलना में अनौपचारिक तौर पर रिसाइकिलिंग करने वालों का संचालन खर्च कम होना भी है। इतना ही नहीं संग्रहकत्र्ता भी ज्यादातर अनौपचारिक ही हैं जिनकी मांग तुरन्त नकद भुगतान की होती हैं। जाहिर है ई-कचरा रिसाइकिलिंग श्रृंखला को बिना मजबूती दिए बिना इस कबाड़ से निपटना संभव नहीं हैं। ऐसा करने के लिए सख्त निगरानी, अनुपालन और उसकी क्षमता के सर्वोत्तम उपयोग के अलावा वैष्विक सहयोग की आवष्यकता पड़ सकती हैं जो सुषासन की ही एक बेहतरीन परिपाटी का स्वरूप हैं।  

पुराने कम्प्यूटर, मोबाइल, सीडी, टीवी, माइक्रोवेव ओवन, फ्रिज और एसी जैसे तमाम आइटम जब कचरों के डिब्बे में जाते हैं तो ई-कचरा हो जाते हैं और यह समस्या पूरी दुनिया में फैली हुई हैं। यदि 2019 से जुड़े वैष्विक स्तर के आंकड़ों पर दृश्टि डाले तो वर्श विषेश में 17.4 फीसद ई-वेस्ट को एकत्र और रिसाइकिल किया गया था जबकि बाकी एक बड़ा 82.6 फीसद हिस्से को ऐसे ही फेंक दिया गया था। इसका साफ अर्थ यह है कि इस कचरे में मौजूद सोना, चांदी, तांबा, प्लेटिनम समेत तमाम अन्य कीमतों सामानों को ऐसे ही बर्बाद कर दिया गया। यह बात भारत पर तुलनात्मक और अधिक लागू होती हैं। ई-कचरा से छुटकारा पाने के लिए एक समयबद्ध और युद्ध स्तर की कार्ययोजना की आवष्यकता है जिसमें सरकारी, गैर-सरकारी एजेंसियों, उद्योगों, निर्मात्ताओं, उपभोक्ताओं और स्वयंसेवी समूहों साथ ही सरकारों के स्तर पर जागरूकता  पैदा करने और उसे बनाए रखने की जरूरत हैं। केन्द्रीय प्रदूशण नियन्त्रण बोर्ड इस मामले में चेतावनी भी दिया है कि इसके दुश्प्रभाव को भी समझा जाए। इसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरे देष में लाखों टन ई-कचरा में से 3 से 10 फीसद कचरा ही इकट्ठा किया जाता हैं। इसके निस्तारण का कुछ नैतिक तरीका भी हो सकता है जैसे जरूरतमंदों को पुराना कम्प्यूटर, मोबाइल या अन्य इलेक्ट्राॅनिक पदार्थ फेंकने के बजाय भेंट कर देना या फिर कम्पनियों को वापस कर देना और कुछ न हो सके तो सही निस्तारण की राह खोजना। दुविधा भरी बात यह है कि भारत में हरित विकास की अवधारणा अभी जोर नहीं पकड़ पाई है मगर ई-कचरा पसरता जा रहा हैं। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यही बताते हैं कि धरा को धरोहर की तरह बनाए रखने की जिम्मेदारी सभी की हैं। तकनीक के सहारे जीवन आसान होना सौ टके का संदर्भ है मगर लाख टके का सवाल यह भी है कि रोजाना तीव्र गति से उत्पन्न हो रहा ई-कचरा उसी आसान जीवन को नई समस्या की ओर ले जाने में कारगर भी हैं। 

 दिनांक : 17/03/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

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