Wednesday, March 30, 2022

बंद आवाज के दस्तावेज

दौर को दस्तावेज के रूप में की गयी पेषगी ही इतिहास है और इसी दस्तावेज के माध्यम से घटनाओं को समझना सहज रहा है। ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना 1990 के दौर में कष्मीर से हिन्दुओं के पलायन की है जो इन दिनों एक फिल्म ‘द कष्मीर फाइल्स‘ से फिर फलक पर है। देष के सिनेमा घरों में इस फिल्म को देखने के लिए भारी-भरकम भीड़ उमड़ रही है और फिल्म देखकर कष्मीरी पण्डितों पर उन दिनों क्या गुजरी थी उस त्रासदी और घाव से कलेजा मुंह को आ रहा है। सवाल उस समय भी था और आज भी है कि आखिर यह अनहोनी कैसे घटी और इसके लिए कौन जिम्मेदार है। 1989 में देष की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन हुआ था जब कांग्रेस सत्ता से बेदखल हुई थी और भाजपा के समर्थन से इसी साल 2 दिसम्बर को विष्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार का पर्दापण हुआ था। उन दिनों अपनी उम्र तो कम थी मगर इलाहाबाद में बीएससी द्वितीय वर्श में अध्ययन करते हुए सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में संलग्नता के साथ अखबार पढ़ना बड़े षौक में षामिल था। 1990 के षुरूआती दिनों से ही कष्मीर में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार की खबरें अखबारों की सुर्खियां हुआ करती थी। खबरे कितनी थी और कितनी जनता तक पहुंच रही थी यह कह पाना मुष्किल है। मगर जितनी भी थी उससे यही पता चलता था कि वहां गला घोंटा जा रहा है और आवाजे बंद हो रही हैं। फिल्म के माध्यम से भी यह पता चलता है कि कष्मीरी हिन्दुओं ने बेइंतहा सहा है। अब तीन दषक के बाद ‘द कष्मीर फाइल्स‘ देखने से तो यही लगता है कि जितना कष्मीरी हिन्दुओं के बारे में आम भारतीय जानता है उससे कहीं अधिक नहीं भी जानता है। घटनाक्रम को देखते हुए एक अप्रकाषित उपन्यास ‘बंद आवाज‘ भी लिखने की चेश्टा मैंने की थी मगर हालात के आगे यह पूरी न हो सकी। कष्मीरी पण्डितों पर हो रहे अत्याचार और आतंक से जिस तरह कष्मीर जल रहा था और सरकारें इसे रोकने में नाकाम रहीं इससे उनकी कमजोरी का भी खुलासा होता है। 

माहौल 1980 के बाद बदलने लगा था और 1990 के बाद तो यह इतना बदल गया कि कुल आबादी का 15 फीसद कष्मीरी हिन्दू 1991 तक महज 0.1 फीसद ही बचा। 14 सितम्बर 1989 को श्रीनगर में हुई वो हत्या जहां से पलायन की कहानी जन्म लेती है। यदि उसी समय बड़ा एक्षन हो जाता तो इतिहास अलग करवट लिए होता। 4 जनवरी 1990 को उर्दू अखबार आफताब में हिजबुल मुजाहिद्दीन ने छपवाया कि सारे हिन्दू कष्मीर की घाटी छोड़ दें। कष्मीरी पण्डित संघर्श समिति के अनुसार जनवरी 1990 में घाटी के भीतर 75 हजार से अधिक परिवार थे और 1992 तक 70 हजार से ज्यादा परिवारों ने घाटी छोड़ दी। पिछले तीन दषक के दौरान घाटी में बामुष्किल 8 सौ हिन्दू परिवार बचे हैं। 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 और 35ए जो जम्मू-कष्मीर को विषेश राज्य का दर्जा देता था उसे मोदी सरकार ने साहस दिखाते हुए खत्म कर दिया। यह वही कष्मीर है जब उन दिनों लाल चैक पर तिरंगा लहराना मानो किसी युद्ध को जीतने जैसा था। जिस तरीके से कष्मीर की घाटी में अलगाववादियों ने भारत से अलग राह चुनी और वह काफी हद तक इसमें सफल हो रहे थे आखिर इसके पीछे कठोर कदम क्यों नहीं उठाये गये। तीन दषक से कष्मीर छोड़ने की पीड़ा भोग रहे कष्मीरी हिन्दुओं को पूरा न्याय अभी तक क्यों नहीं मिला। ये सवाल किसी को भी झकझोर सकता है। पहले सुरक्षा में बड़ी चूक और बाद में पुर्नवास के ढांचे में बड़ी गड़बड़ी ने समस्या को जिन्दा रखा। हालांकि मौजूदा समय में सक्रिय आतंकवादियों की संख्या गिर कर दो सौ से भी कम है और युवा इसमें भर्ती न हो इस पर भी कड़ी नजर रखी जा रही है।  

1987 के चुनाव में कट्टरपंथी हार गये थे जो इस बात का सबूत था कि जनता षान्ति चाहती है। तब इन्हीं कट्टरपंथियों ने चुनाव पर धंाधली का आरोप लगाते हुए इस्लाम को ही खतरे में बता दिया था। जुलाई 1988 में जम्मू कष्मीर लिबरेषन फ्रंट (जेकेएलएफ) बना। कष्मीर से भारत को अलग करने के लिए कष्मीरियत मानो अब मुसलमानों की रह गयी और यहीं से कष्मीरी पण्डितों को भुला दिया गया। जब पहली हत्या कष्मीरी पण्डित की हुई तो हत्यारे न तो पकड़ में आये और न ही इन पर कोई रोक लग पायी। आम से खास की हत्या का सिलसिला घाटी में उफान लेने लगा। हैरत यह भी है कि जुलाई से नवम्बर 1989 के बीच 70 अपराधियों को जेल से भी रिहा कर दिया गया जिसका जवाब उस समय की नेषनल कांफ्रेंस की सरकार ने कभी नहीं दिया। विस्थापित परिवारों के लिए संसद में भावनात्मक भाशण खूब चले और तमाम राज्य सरकारें और केन्द्र सरकारें तरह-तरह के पैकेज निकालती रहीं। कभी घर देने की बात करते तो कभी पैसा पर किसी ने यह सुध नहीं लिया कि उनकी वापसी के लिए ठोस नीति क्या हो। इतना ही नहीं 1997, 1998, और 2003 में भी नर संहार हुए और 2001 सर्वाधिक हिंसक वर्श रहा। गृह मंत्रालय के अनुसार साल 1990 से लेकर 9 अप्रैल 1917 तक स्थानीय नागरिक, सुरक्षा बल के जवान और आतंकवादी समेत 40 हजार से ज्यादा मौते कष्मीर में हो चुकी हैं। मोदी सरकार ने 2015 में कष्मीर पण्डितों के पुर्नवास के लिए 2 हजार करोड़ के पैकेज की घोशणा की थी। लेकिन पलायन की व्यापकता को देखते हुए यह कितना काम आया होगा यह समझा जा सकता है। हालांकि अनुच्छेद 370 को खत्म करना यह बताता है कि सरकार उस स्तर पर कोषिष कर रही है जहां मवाद बरसों से जमा हुआ था। इसमें कोई दो राय नहीं कि 1990 में खूनी खेल खेलने वाला मकबूल भट से लेकर 2016 के बुरहान वानी तक कष्मीर की वादी पूरी तरह षान्त हो ही नहीं पायी। वक्त लम्बा जरूर बीत चुका है पर पलायन का दंष अभी भी कहीं गया नहीं है। सवाल यह भी है कि क्या उसी तरह से एक बार फिर कष्मीर कष्मीरी हिन्दुओं से आबाद हो सकेगी जबकि अब अलगाववादी को सरकार ने रसातल का रास्ता दिखा दिया है। फिलहाल ‘द कष्मीर फाइल्स‘ को कष्मीरी पण्डितों के बंद आवाज का एक दस्तावेज कहा जा सकता है।

दिनांक : 14/03/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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