जीएसटी को लागू हुए तीन साल से अधिक वक्त हो गया है। वन नेषन, वन टैक्स वाला जीएसटी इन दिनों कोरोना की चपेट में आने से संघ और राज्य दोनों पर भारी पड़ रहा है। अब तक जीएसटी को लेकर 41 बैठक हो चुकी हैं और जीएसटी कानून में हजार से अधिक संषोधन हो चुके हैं फिर भी पूरी तरह इसका पटरी पर लाना चुनौती बना हुआ है। जीएसटी को लेकर आने वाले दिनों में सरकार और विपक्ष में रार की सम्भावना साफ दिखती है। गौरतलब है कि पिछले माह 27 अगस्त को जीएसटी काउंसिल की 41वीं बैठक हुई जिसमें राज्यों को जीएसटी क्षतिपूर्ति के मुद्दे समेत कई उत्पाद पर जीएसटी के नये रेट में संषोधन को लेकर चर्चा हुई। हालांकि 42वीं बैठक 19 सितम्बर को होनी थी जो अब 5 अक्टूबर को होगी। ऐसा मानसून सत्र के चलते हुआ। कोविड-19 के कारण मौजूदा वित्त वर्श में जीएसटी कलेक्षन को काफी नुकसान हुआ है। जाहिर है पहले से ही राज्यों की क्षतिपूर्ति के मामले में परेषान केन्द्र के इन दिनों पसीने निकलने स्वाभाविक है। 1 जुलाई 2017 को जीएसटी इस वायदे के साथ आया था कि 2022 तक राज्यों के घाटे को पाटने का वह काम करेगा। इन दिनों केन्द्र और राज्य दोनों वित्तीय मामले में बैकफुट पर हैं और जीएसटी तुलनात्मक न्यून स्तर पर चला गया है। जिसे देखते हुए केन्द्र सरकार ने राज्यों के सामने दो विकल्प रखे जिसमें एक आसान षर्तों पर आरबीआई से क्षतिपूर्ति के बराबर कर्ज लेना जबकि दूसरे विकल्प में जीएसटी बकाये की पूरी राषि अर्थात् 2.35 लाख करोड़ रूपए बाजार से बातौर राज्य कर्ज ले सकते हैं। जो राज्य इन विकल्पों में नहीं जाते हैं उन्हें भरपाई के लिए जून-2022 तक इंतजार करना पड़ सकता है। जाहिर है ये दोनों षर्तें राज्यों के सामने किसी चुनौती से कम नहीं हैं। लगभग दो साल तक बकाया देने से पलड़ा झाड़ चुकी केन्द्र सरकार ने कभी नहीं सोचा होगा कि गाॅड आॅफ एक्ट का भी ऐसा कोई दौर आयेगा जब वह अपने तीन साल पुराने वायदे पर खरी नहीं उतर पायेगी।
फिलहाल जीएसटी क्षतिपूर्ति के मुद्दे पर 21 राज्यों ने पहले विकल्प को चुना है। जिससे सभी राज्य संयुक्त तौर पर करीब 97 हजार करोड़ रूपए आरबीआई से कर्ज लेंगे। जिसमें भाजपा षासित राज्यों के अलावा गैर भाजपायी षासित राज्य आंध्र प्रदेष और ओड़िषा जैसे भी षामिल हैं लेकिन झारखण्ड, केरल, महाराश्ट्र, दिल्ली, पंजाब, पष्चिम बंगाल, तेलंगाना सहित तमिलनाडु और राजस्थान ने अभी तक केन्द्र को यह नहीं कहा है कि वे क्या करेंगे। जाहिर है इन राज्यों के सामने एक नये किस्म का वित्तीय संकट न केवल खड़ा होगा बल्कि लम्बे समय तक केन्द्र से पैसा न मिलने के कारण इनके विकास कार्य भी प्रभावित होंगे। भारतीय संविधान के भाग 12 में केन्द्र-राज्य के वित्तीय सम्बंध की चर्चा है और इसे लेकर दोनों के बीच तकरार भी होती रही है। देष भर में लाॅकडाउन की वजह से मार्च महीने का जीएसटी लुढ़क कर 28 हजार करोड़ रूपए पर आकर सिमट गया जबकि 2019 में यह एक लाख 13 हजार करोड़ रूपए था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अप्रत्यक्ष कर के मामले में स्थिति किस कदर बिगड़ी है। वित्त मंत्रालय के आंकड़े को देखें तो अप्रैल में मात्र 32 हजार करोड़ रूपए का राजस्व संग्रह हुआ और मई में यह 62 हजार करोड़ हुआ। जबकि जून में 40 हजार करोड़ रूपए का कलेक्षन देखा जा सकता है जो पिछले वर्श की तुलना में आधे से कम और कहीं-कहीं तो एक-तिहाई ही कलेक्षन हुए हैं। जीएसटी के मापदण्डों को यदि और गहराई से समझें तो सरकार एक साल में 13 लाख करोड़ रूपए इससे जुटाने का लक्ष्य रखा था जो अब तक तीन वर्शों में कभी पूरा नहीं हुआ। वर्श 2017-18 में केवल एक बार ही ऐसा हुआ जब जीएसटी का कलेक्षन एक लाख करोड़ रूपए के पार था। वित्त वर्श 2018-19 में ऐसा चार बार हुआ और 2019-2020 में 5 बार एक लाख करोड़ से अधिक की उगाही हुई 2020-21 का वित्त वर्श कोरोना की चपेट में है और आंकड़े जमीन पर धराषाही हैं। जुलाई 2017 जीएसटी का पहला माह था तब 95 हजार करोड़ से अधिक की वसूली हुई थी।
प्रधानमंत्री मोदी के लिए जीएसटी उनकी महत्वाकांक्षी योजनाओं में एक है। मगर विकास दर इन दिनों सबसे बेहतर कृशि से मिल रहा है और देष का विकास दर ऋणात्मक 23 तक पहुंच चुका है। दुविधा यह है कि पैसों के अभाव में समस्याओं का निदान कैसे होगा। देष में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर के आंकड़े 25 लाख करोड़ रूपए की राषि एक साल में जुटा देते थे। भले ही वसूली न हो पाये पर कागजों में यह तो सजे होते थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रत्यक्ष कर वाला आयकर में भी आने वाले दिनों में गिरावट दिखेगी। टैक्स की वसूली बढ़ाने के लिए सरकार के पास कोई खास एजेण्डा नहीं दिखता है। ऐसा कोरोना से बढ़ी बेकारी भी समझी जा सकती है। वर्शों पहले टैक्स की वसूली बढ़ाने के मामले में सरकार आये दिन नये रास्ते खोजती थी अब राज्यों को क्षतिपूर्ति न दे पाने की स्थिति में कर्ज का रास्ता सुझा रही है। तब सरकार ने जीएसटी देने वालों की चार श्रेणियां बनाई थी जिसमें उदासीन, अवरोधी, उद्यमी और समर्थक के रूप में पहचाने गये थे। गिरते हुए टैक्स दर को देखकर तो लगता है कि टैक्स देने वाले उदासीन तो नहीं लेकिन कोरोना के अवरोध में जकड़ लिए गये हैं। इंग्लैण्ड के दार्षनिक जेरेमी बेंथम ने स्ट्रिक एवं केरेट थ्योरी दिया था जिसमें एक अर्थ सख्त तरीका है तो दूसरे का पुचकारना होता है। कोरोना ने जिस प्रकार विकास का नाष किया है आमदनी को खत्म किया है, कारोबार को नश्ट किया है साथ ही बेकारी और बेरोज़गारी बढ़ाया है उसे देखते हुए सरकार न तो बहुत सख्त कदम उठा पा रही है और न ही बहुत पुचकार पा रही है। कह सकते हैं कि समस्या से उबरने की कोषिष कर रही है। कब उबरेगी कहना मुष्किल है और कोरोना कब जायेगा इसका भी कोई अंदाजा नहीं। फिलहाल संघ और राज्य वित्तीय कठिनाईयों से जूझ रहे हैं लेकिन इन दोनों के बीच प्रदेष के निवासी और देष के नागरिक भी पिस रहे हैं।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
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