कहा तो यह भी जाता है कि यदि 1892 में दक्षिण अफ्रीका में व्यापार करने वाले एक भारतीय मुसलमान व्यापारी दादा अब्दुल्ला का मुकदमा गुजरात के राजकोट में वकालत करने वाले मोहनदास करमचंद गांधी न स्वीकार करते तो इतिहास के पन्ने षायद एक महात्मा की गौरवगाथा से वंचित रह जाते। गांधी जी भारत के उन चमकते हुए सितारों में से थे जिन्होंने राश्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया। इतना ही नहीं राश्ट्रीय एकता के लिए औपनिवेषिक सत्ता के उन दिनों में अपने जीवन के हर कोने को बलिदान में तब्दील कर दिया। यही कारण है कि आधुनिक भारत व भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में गांधी युग का व्यापक विस्तार है। सभी जानते हैं कि 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में गांधी का जन्म हुआ। षिक्षा-दीक्षा और अंग्रेजों के सामने दक्षिण अफ्रीका की धरती पर कई परीक्षा देने के बाद जब उनकी वापसी जनवरी 1915 में भारत हुई तब भारत नई करवट, नई ऊर्जा और औपनिवेषिक सत्ता के अधीन नई उम्मीदें पाल चुका था। दौर प्रथम विष्वयुद्ध का था कुछ भी भारतीयों के अनुकूल नहीं था अंग्रेजों से संघर्श और जीवन मूल्य की बढ़त को लेकर जिन्दगी सभी की दो-चार थी। बरसों की षिक्षा-दीक्षा, षोध-बोध, परामर्ष व विमर्ष से मैं यह कह सकता हूं कि चुनौतियों के बीच या तो आप स्वयं जाते हैं या तो उसका सामना करने के लिए बेबस होते हैं, कारण चाहे जो हो पर यह तो साफ है, कि आप महान बनने की राह पर तो है पर कितने महान होंगे ये वक्त पर छोड़ देना चाहिए। षायद यह कथन महात्मा गांधी के गौरवगाथा के साथ कहीं अधिक मेल खाता है।
मोहनदास करमचंद गांधी भीड़ में एक ऐसा नाम था जो दौर के हिसाब से स्वर्णिम होता चला गया। ध्यान हो कि जब गांधी ने सत्याग्रह के एक बड़े प्रयोग के लिए 1917 में बिहार के चम्पारण गये तो यह कोई बड़ी बात नहीं थी पर जब इसी चम्पारण ने गांधी की वापसी महात्मा के तौर पर करायी तो सभी को समझ में आया कि अंग्रेजों को सबक सिखाने में यह षख्स आगे भी बड़े काम का होगा और इतिहास खंगाल कर देखा जाय तो आजादी तक गांधी बड़े काम के ही सिद्ध हुए। गौरतलब है कि 19वीं षताब्दी के अंत तक जर्मनी के रासायनिक रंगों में नील बाजार को लगभग समाप्त कर दिया था। चम्पारण के यूरोपीय निलहे अपने कारखाने बंद करने के लिए बाध्य हो गये। अब किसान भी नील की खेती से मुक्ति चाहते थे पर अंग्रेजी नील के कारोबारी चतुराई के साथ इसका फायदा उठाया और अनुबंध से मुक्त करने के लिए लगान और अन्य गैरकानूनी करों को बढ़ा दिया। जाहिर है गरीबी की मार झेल रहे किसान इस दोहरी मार की चपेट में फंस गये। रास्ता निकालने की कोषिष की गयी। चम्पारण के ही एक किसान राजकुमार षुक्ल ने जब उस दौरान लखनऊ में गांधी से भेंट की तो वहां की व्यथा का वर्णन करते हुए उनसे चम्पारण आने का आग्रह किया। बेषक गांधी ने इसे पहली चुनौती के तौर पर तो नहीं पर किसानों के हित में जाना न केवल मुनासिब समझा बल्कि उन्हें तिनकठिया से मुक्ति दिलाकर अपने पहले सत्याग्रह की सफलता के साथ समाप्ति की। तिनकठिया का तात्पर्य किसानों को अपनी जमीन पर कम से कम 3/20 भाग पर खेती करना तथा उन मालिकों के तय दामों पर उन्हें बेचना है। सभी जानते हैं चम्पारण के दौरान गांधी को रोकने के साथ वापस जाने के लिए भी कहा गया पर षायद रोकने वाले यह नहीं जानते थे कि दक्षिण अफ्रीका के औपनिवेषिक सत्ता में तपा एक गांधी में महात्मा के सारे लक्षण पहले से ही थे। और उक्त संदर्भ को सही साबित करते हुए चम्पारण से लौटे मोहनदास करमचंद गांधी, महात्मा गांधी के तौर पर दुनिया में अंकित हो गये।
अक्सर यह प्रष्न प्रासंगिक भाव से भी उठते रहे हैं कि गांधी अब कितने प्रासंगिक हैं? वर्श 1917 के चम्पारण से पहला सत्याग्रह षुरू करने वाले गांधी भले ही 1948 में इस दुनिया से विदा हो गये हों पर चम्पारण के सौ साल बीतने के बाद भी प्रासंगिक प्रष्न आज भी मुरझाये नहीं है। किसान आज भी अपनी उपज के सही दाम और दुनिया का पेट भरने वाला अन्नदाता एक बुनियादी जिन्दगी जीने के लिए तरस रहा है इसके लिए या तो सरकार की नीतियां गलत है या फिर किसान की किस्मत ही ऐसी होती है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है गांधी औपनिवेषिक सत्ता के दौर की वे षक्ति थे जो कमजोर दौर में भी ऊर्जा निर्माण करने का काम कर लेते थे साथ ही किसान और मजदूरों के लिए जान लगा देते थे। राश्ट्रीय एकता और अखण्डता की यदि प्रचुर मात्रा देखनी हो तो गांधी अध्याय पढ़ा जा सकता है। कहां कितना करना है और कितना समझना है आंदोलन को लेकर धैर्य कितना धारण करना है इन सभी के ज्ञान-विज्ञान से गांधी बेहतरीन तरीके से वाकिफ थे। खिलाफत आंदोलन समेत असहयोग आंदोलन से लेकर जेल यात्रा तक, छुआछूत मिटाने से लेकर स्वच्छता अभियान तक साथ ही सत्य और अहिंसा की कसौटी पर सभी को कसने की कोषिष करना, ये सभी बातें गांधी की असीम ताकत का वर्णन नहीं तो और क्या है। जब बात उठती है कि गांधी की प्रासंगिकता कितनी, तो उक्त कृत्य को देखकर और समझकर जरा सा भी असमंजस नहीं होता कि आज ही नहीं भविश्य में भी गांधी प्रासंगिक रहेंगे। सविनय अवज्ञा आंदोलन और वायसराय लाॅर्ड इर्विन के सामने समानता के साथ समझौता करना, दूसरे गोलमेज सम्मेलन में प्रतिनिधि के तौर पर इंग्लैण्ड में महीनों अंग्रेजों के सामने भारत की सम्प्रभुता और उससे जुड़ी संवेदना को लेकर सौदेबाजी करना पर खाली हाथ वापस आना उक्त को एक महात्मा की पराकाश्ठा ही तो कहा जायेगा। वर्ग विन्यास व ऊंच-नीच के चलते नाखुष अम्बेडकर के साथ पूना समझौता। इतना ही नहीं छुआछूत को लेकर व्यथित होना साथ ही सत्य और अहिंसा की कसौटी पर स्वयं को कसते रहना गांधी की महानता की नई-नई व्याख्याएं हैं। इतिहास के पन्नों पर कालचक्र के अनुपात में गांधी को खूब उकेरा गया है पर जितनी बार पढ़ा गया एक नये गांधी से परिचय भी हुआ।
चम्पारण सत्याग्रह के सौ वर्श पूरे हो चुके हैं जिन किसानों के लिए गांधी ने अंग्रेजों से बिहार में लोहा लिया वही किसान आज के दौर में व्यथित हैं। ढ़ाई दषक का इतिहास इस बात को तस्तीक करता है कि तीन लाख से अधिक अन्नदाता फसल बर्बादी, कर्ज के दबाव और दो वक्त की रोटी न जुटा पाने के चलते दुनिया को अलविदा कर चुके हैं। सूखा पड़ा तो किसान मरा, बाढ़ आई तो किसान बर्बाद हुआ पर एक सच यह रहा कि बढ़ते जीडीपी के इस दौर में सबकी आर्थिक स्थिति तुलनात्मक विस्तार लिया है पर किसानों का एक वर्ग ऐसा है जो गरीबी और मुफलिसी के चलते आज भी जान दे रहा है। सवाल है कि महात्मा गांधी की यहां क्या प्रासंगिकता है। चम्पारण के जिन किसानों को अंग्रेजी निलहे के अनुबंध से मुक्त करा के धान की खेती की स्वतंत्रता गांधी ने दिलाई थी आज उन्हीं की पीढ़ियां सौ साल बीतने के बाद भी मौत के कगार पर क्यों खड़ी है। इतिहास के पन्ने जब-जब इस बात के लिए उकेरे जायेंगे कि चम्पारण गांधी का पहला सत्याग्रह था तब-तब यह बात अनायास उभरेगी कि गांधी के विचारों को अपनाने और मानने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि आज भी गरीबी और मुफलिसी के अनुबंध से अन्नदाता मुक्त नहीं हैं। दो टूक यह भी है कि महात्मा बनने का मार्ग अभी भी बंद नहीं हुआ है पर षायद गांधी बनने की परम्परा समाप्त हो चुकी है। जाहिर है कि महात्मा से पहले गांधी तो बनना पड़ेगा। फर्क सिर्फ इतना है कि वो दौर औपनिवेषिक सत्ता का था अब संघर्श अपनों के बीच है पर कई काम जिसे 1917 में गांधी ने षुरू किया था वक्त के साथ अभी भी अधूरे हैं जिसकी जिम्मेदारी आज के दौर के गांधी को उठाना होगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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