Wednesday, September 2, 2020

बालश्रम वो सवाल जिसका जवाब शेष है

बालश्रम सम्पूर्ण विष्व में व्याप्त एक ऐसी समस्या है जिसका निदान किये बिना बेहतर भविश्य की कल्पना सम्भव नहीं है। यह स्वयं में एक राश्ट्रीय और सामाजिक कलंक तो है ही साथ ही अन्य समस्याओं की जननी भी है। देखा जाय तो यह नौनिहालों के साथ जबरन की गयी एक ऐसी क्रिया है जिससे राश्ट्र या समाज का भविश्य खतरे में पड़ता है। यह एक संवेदनषील मुद्दा है जो लगभग सौ वर्शों से चिंता और चिंतन के केन्द्र में है। अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर इसे लेकर वर्श 1924 में विचार तब पनपा जब जेनेवा घोशणा पत्र में बच्चों के अधिकारों को मान्यता देते हुए 5 सूत्रीय कार्यक्रम को प्रकाष में लाया गया था। इसके चलते बालश्रम को प्रतिबंधित किया गया साथ ही विष्व के बच्चों के लिए जन्म के साथ ही कुछ विषिश्ट अधिकारों को लेकर स्वीकृति दी गयी। बचपन सूचकांक ग्लोबल चाइल्डहुड रिपोर्ट की ताजा रिपोर्ट को देखें तो 176 देषों में भारत हजार में से 769 स्कोर के साथ 113वें स्थान पर है। संयुक्त राश्ट्र का मानना है कि 5 से 14 साल के किसी भी बच्चे को किसी भी काम के माध्यम से बन्दी बनाना, उन्हें हानि पहुंचाना, अन्तर्राश्ट्रीय कानून और राश्ट्रीय कानून का उल्लंघन करना माना जायेगा। अगर काम उन्हें स्कूली षिक्षा से वंचित करता है या स्कूली षिक्षा के साथ काम का दबाव डाला जाता है तो वह बालश्रम है। भारत में बालश्रम को लेकर स्पश्ट आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार 5 से 14 वर्श के करोडों बच्चे बालश्रम की दलदल में हैं जबकि अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट को देखें तो पूरी दुनिया में 15 करोड़ से अधिक बच्चे इससे षोशित हैं जिसमें सबसे ज्यादा संख्या अफ्रीका में है। 7 करोड़ से अधिक बच्चे अफ्रीका में बालश्रम की कैद में हैं जबकि एषिया-पैसिफिक में यह करीब सवा छः करोड़ है। हैरत यह है कि दुनिया के सबसे विकसित कहे जाने वाले देष अमेरिका में बाल मजदूरों की संख्या एक करोड़ के पार बतायी जाती है। भारत में बाल मजदूरी की संख्या वाले राज्यों में क्रमषः उत्तर प्रदेष, बिहार, राजस्थान, महाराश्ट्र और मध्य प्रदेष षामिल है। यहां बाल मजदूरों की कुल 55 फीसद जनसंख्या है। राज्यवार देखें तो उत्तर प्रदेष और बिहार में यह आंकड़ज्ञ 21.5 प्रतिषत, 10.7 फीसद है। 

केन्द्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अनुसार बाल श्रम (प्रतिबंध और नियमन) संषोधन विधेयक 2012 को 2012 में मंजूरी मिल गयी थी और उसे षीत सत्र में पेष किये जाने की बात थी हालांकि यह कानून दोनों सदन से 2016 में पारित हुआ। जिसमें 1986 के कानून को न केवल परिमार्जित करने की बात देखी जा सकती है साथ ही 14 से 18 वर्श के उम्र के किषोरों के काम को लेकर नई परिभाशा भी गढनी थी। इसके पहले साल 2006 में भी कुछ संषोधन किये गये थे। संषोधन में यह कोषिष की गयी कि सभी कार्य और प्रक्रियाओं में 14 साल से कम उम्र के बच्चों को काम पर रखना प्रतिबंधित होगा। देखा जाये तो इसे अनिवार्य षिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 से जोड़ने का भी प्रावधान किया गया। हालांकि इन सबके बावजूद कुछ मामले मसलन परम्परागत व्यवसाय, गुरू षिश्य सम्बंधों के तहत काम करने वाले बच्चों को इससे बाहर रखा गया। मगर इनका भी स्कूल जाना अनिवार्य किया गया। सामाजिक-आर्थिक बदलाव के इस दौर में काफी कुछ बदल रहा है बावजूद इसके कई मामले स्तरीय सुधार से वंचित हैं जिसमें बालश्रम भी षामिल है। भारतीय संविधान में बालश्रम को रोकने के लिए मूल अधिकार के अंदर अनुच्छेद 24 में इसका उल्लेख देखा जा सकता है। स्वतंत्रता के बाद लागू संविधान में इसके अलावा कई और प्रावधान किये गये जो बच्चों को नैसर्गिक न्याय प्रदान करते हैं। अनुच्छेद 21(क) षिक्षा का मौलिक अधिकार देता है जबकि नीति-निर्देषक तत्व के अंतर्गत अनुच्छेद 45 में यह अनिवार्य किया गया है कि 6 से 14 वर्श के बालकों को राज्य निःषुल्क व अनिवार्य षिक्षा देगा। इतना ही नहीं अनुच्छेद 51(क) के अन्तर्गत मौलिक कत्र्तव्य में साल 2002 में यह प्रावधान लाया गया कि ऐसे बालकों के अभिभावक उन्हें अनिवार्य रूप से षिक्षा दिलवायेंगे। गौरतलब है कि मौलिक कत्र्तव्य 42वें संविधान संषोधन के अन्तर्गत 1976 में जोड़ा गया था और 2002 में संषोधन के बाद पहले से चली आ रही 10 कत्र्तव्यों में एक जुड़ते हुए अब संख्या 11 हो गयी है। देखा जाय तो संविधान में बालश्रम को 26 जनवरी 1950 से ही प्रतिशेध किया गया है मगर इस कलंक से देष को मुक्ति नहीं मिल रही है। भारत में मजदूरी करने वाले बच्चों में एक बड़ी तादाद ग्रामीण इलाकों से ताल्लुक रखती है। आंकड़ों को देखें तो लगभग 80 प्रतिषत बाल मजदूरी की जड़े ग्रामीण भारत में ही हैं। जिसमें खेती से जुड़े काम वालों की संख्या सर्वाधिक है। इतनी वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के बावजूद संसार में करोड़ों की तादाद में बाल मजदूर बढ़ रहे हैं जिन्हें सामान्य जीवन जीने की षायद ही कोई आषा हो। सवाल है कि क्या बालश्रम जैसी समस्या का समाधान स्पश्ट रूप से कोई देख पा रहा है। 

अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन बाल श्रम को बच्चे के स्वास्थ की क्षमता, उसकी षिक्षा को बाधित करना और षोशण करने में परिभाशित किया है। वैष्विक पटल की पड़ताल करें तो बच्चों की स्थिति कहीं अधिक चिंताजनक है। बालश्रम का जंग बहुत पुराना है। काल माक्र्स की विचारधारा के अनुसार बालश्रम का यह रोग औद्योगिक क्रान्ति के षुरूआती दिनों में ही देखा जा सकता है। संयुक्त राश्ट्र संघ, अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन व अमेरिका सहित दुनिया के देष बालश्रम में आने वाले बालकों की उम्र पर अपना-अपना नजरिया रखते हैं। अमेरिका में 12 साल या उससे कम के लोगों को बाल श्रमिक माना जाता है जबकि संयुक्त राश्ट्र संघ यही उम्र 18 वर्श बताता है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की नजरों में यह 15 वर्श है जबकि भारत में यह उम्र 14 वर्श है। भारत में 1979 में सरकार द्वारा बाल मजदूरी को खत्म करने के उपाय के रूप में गुरूपाद स्वामी समिति का गठन किया गया। सभी समस्याओं का अध्ययन करके समिति ने रिपोर्ट प्रस्तुत की और इसके निराकरण के लिए बहुआयामी नीति पर बल दिया। समिति की सिफारिष को ध्यान में रखकर 1986 में बाल मजदूरी (प्रतिबंध विनियमन) अधिनियम प्रकाष में आया। इसके बाद 1987 में इससे जुड़ी विषेश नीति बनाई गयी जिसमें जोखिम भरे व्यवसाय एवं प्रक्रियाओं में लिप्त बच्चों के पुर्नवास पर ध्यान देने की आवष्यकता पर जोर दिया गया। अक्टूबर 2006 तक बालश्रम कानून में एक असमंजस प्रकट हुआ कि किस काम को खतरनाक कहें और किसे गैर खतरनाक। इसी के बाद 1986 के अधिनियम में संषोधन करते हुए ढ़ाबों, घरों, होटलों पर बाल श्रम करवाने वालों को दण्डनीय अपराध की श्रेणी में रखा गया। भारत में वैसे कानून की भरमार है मगर बालश्रम का विस्तार भी उतने ही व्यापक रूप में है। लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम 2012, किषोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम 2015 आदि को देखा जा सकता है। गौरतलब है कि 1986 के बालश्रम अधिनियम में 83 कामों को खतरनाक की श्रेणी में रखा गया था जो संषोधन के बाद 3 क्षेत्रों को ही खतरनाक बताया गया जहां किषोर बच्चे काम नहीं कर सकते जिसमें खनन, ज्वलनषील पदार्थ और खतरनाक प्रक्रिया षामिल है। 

अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट को देखें तो कुल बालश्रम के आधे बच्चे खतरनाक कामों में लगे हुए हैं। सवाल है कि बालश्रम क्यों बढ़ता है यूनिसेफ के अनुसार बच्चों का नियोजन इसलिए किया जाता है क्योंकि उनका आसानी से षोशण किया जा सकता है। बच्चे अपनी उम्र के अनुरूप कठिन काम जिन कारणों से करते हैं उनमें आम तौर पर गरीबी पहला कारण है। जनसंख्या विस्फोट, सस्ता श्रम और कानूनों का सही ढंग से लागू न होना। बच्चों के स्कूल गरीबी के कारण छूट जाना आदि तमाम कारण इन्हें बालश्रम की ओर झोंकती है। भारत में बच्चे ईष्वर का रूप माने जाते हैं लेकिन यहां भी बालश्रम की स्थिति को देखकर कथनी और करनी में व्यापक अन्तर दिखाई देता है। जिस तरह करोड़ों बच्चे नियोजन किये जा रहे हैं उससे स्पश्ट है कि अपने कानून और अपने गिरेबान दोनों को एक बार फिर से झांकने की जरूरत है। हालंाकि पिछले कुछ सालों में भारत सरकार और राज्य सरकारों की बालश्रम को लेकर सराहनीय प्रयास रहे हैं। षिक्षा का अधिकार कानून सहित पाॅक्सो कानून व बालश्रम कानूनों में संषोधन इस दिषा में अच्छे संकेत हैं मगर कठोरता से इन्हें लागू करना अभी बाकी है। बचपन बचाव आंदोलन के कैलाष सत्यार्थी की भी यहां सराहना की जा सकती है जिन्होंने लाखों बच्चों को इस दलदल से बाहर निकाला है इस काम के लिए उन्हें नोबल पुरस्कार भी दिया जा चुका है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट यह बताती रही है कि मजदूरी करवाने वाले देषों में भारत भी षामिल है। दुखद है कि नन्हें हाथों में बीड़ी, पटाखे, माचिस, ईंटें, जूते यही सब दिखाई देते हैं। कालीन बुनवाये जाते हैं, कढ़ाई करवाई जाती है और रेषम के कपड़े बनवाये जाते हैं। चैकाने वाला सच यह है कि रेषम के तार खराब न हो इस हेतु बच्चों से ही काम करवाया जाता है। फाइंडिंग आॅन द फाॅम्र्स आॅफ चाइल्ड लेबर नाम की एक रिपोर्ट से बरसों पहले यह झकझोरने वाले सच का खुलाया हुआ था। विकासषील देषों में बालश्रमिकों की संख्या सबसे अधिक है। भारत में स्टील का फर्नीचर बनाने व चमड़े इत्यादि में नौनिहालों को देखा जा सकता है। फिलिपीन्स, बांग्लादेष समेत कई एषियाई देष अलग-अलग रूपों में इनका षोशण कर रहे हैं। भारत में 1948 के कारखाना अधिनियम से लेकर नित नये कानून बने पर बालश्रम नहीं रोक पाये। कुल श्रम षक्ति का 5 फीसद बालश्रम ही है। 1996 में उच्च न्यायालय ने बालश्रम पुर्नवास कोश की स्थापना का निर्देष दिया था जिसमें नियोजित करने वाले व्यक्ति द्वारा प्रति बालक 20 हजार रूपये कोश में जमा करने का प्रावधान था। फिलहाल यक्ष प्रष्न यह रहेगा कि क्या केवल कानूनों से ही बालश्रम को समाप्त किया जा सकता है। सम्भव है कि उत्तर न में ही होगा। जब तक षिक्षा और पुर्नवास के पूरे विकल्प सामने न हीं होंगे तब तक कानून लूले-लंगड़े ही सिद्ध होंगे। चाहे सरकार हो या संविधान बालश्रम के उन्मूलन वाले आदर्ष विचार बहुत उम्दा हो सकते हैं पर धरातल पर देखें तो बचपन आज भी पिस रहा है। ऐसे में बालश्रम वो सवाल है जिसका जवाब अभी षेश है।


 डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

मो0: 9456120502

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