Thursday, July 23, 2020

चाबहार पर किसकी कीमत चुकाया भारत

साल 2016 में प्रधानमंत्री मोदी की ईरान यात्रा के दौरान दोनों देषों के बीच चाबहार समझौते पर हस्ताक्षर किये गये थे। तब उन दिनों रणनीतिक और कूटनीतिक दृश्टि से इसे बहुत बड़ी सफलता के रूप में देखा गया था। मगर चीन से समझौता करके ईरान ने इस परियोजना से भारत को बाहर कर दोहरा झटका दिया है। पहला संकेत यह दिया कि भारत के साथ उसका द्विपक्षीय सम्बंध फिलहाल खटाई में हैं। दूसरा भारत की दुखती रग चीन की सेंधमारी कराकर चाबहार से बाहर का रास्ता दिखाना। उक्त से तो यह लगता है कि दुनिया के समीकरण बदल रहे हैं और उसी का यह नतीजा है। गौरतलब है कि ईरान और चीन की अमेरिका के प्रति नाराज़गी कोई नई बात नहीं है और अमेरिका से भारत की प्रगाढ़ता काफी समय से बरकरार है। अमेरिकी दबाव में मई 2019 से भारत ईरान से तेल खरीदना भी बंद कर दिया था। यह भारत-ईरान द्विपक्षीय सम्बंधों में तनाव का एक कारण कहा जा सकता है। चाबहार रेल परियोजना से भारत को कई फायदे थे अब यही परेषानी की वजह बन जायेंगे। जिसमें पहली परेषानी अफगानिस्तान के रास्ते मध्य एषियाई देषों तक कारोबार करने की भारत की रणनीति गड़बड़ा जायेगी। दूसरा इस क्षेत्र में चीन की कम्पनियों की बड़ी भागीदारी हो जायेगी। गौरतलब है कि चीन भारत को लेकर कहीं अधिक नकारात्मक रवैया रखता है और जिस तर्ज पर इन दिनों ईरान और चीन का अमेरिका से छत्तीस का आंकड़ा है और अमेरिका का भारत की ओर झुकाव है उसे देखते हुए ईरान और चीन के बीच के इस गठजोड़ को अवसरवाद से युक्त माना जायेगा। फिलहाल भारत इस मामले में बैकफुट पर तो चला गया है। साल 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा चाबहार को विकसित करने को लेकर सहमति बनी थी बरसों तक खटाई में रहने वाले इस समझौते को मोदी ने 2016 में ईरान दौरे के दौरान संजीदा बनाने की सकारात्मक कूटनीति की। जिस पर अब ड्रैगन का पंजा पड़ गया है।
ईरान ने चाबहार रेल प्रोजेक्ट से भारत को अलग कर दिया है। इसकी वजह भारत से फण्ड मिलने में देरी कहा जा रहा है। गौरतलब है कि भारत की ओर से इण्डियन रेलवेज़ कन्सट्रक्षन लिमिटेड (इरकाॅन) को इस रेल निर्माण में षामिल होना था। जो अब हाथ से निकल चुका है। भारत के लिये यह मध्य एषिया, रूस और यहां तक की यूरोप तक पहुंचने का एक प्रयास था। चाबहार बंदरगाह को रेल नेटवर्क से भी जोड़ने का प्रस्ताव था और इसमें भारत भी मदद करने वाला था साथ ही इसकी क्षमता भी बढ़ाने की बात थी। इतना ही नहीं चाबहार समझौता पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट का जवाब भी माना जा रहा था। जिसके बीच की दूरी 70 किलोमीटर है। अब यह आषंका जोर पकड़ लिया है कि चीन के साथ नज़दीकी बढ़ाने के चलते ईरान चाबहार बंदरगाह को चीन को लीज़ पर दे सकता है। हालांकि ईरानी मीडिया में इस बात को खण्डन किया है। दुविधा यह भी है कि ईरान पर अमेरिका ने जिस प्रकार प्रतिबंध लगाये और जिस तरह उसके दबाव में भारत ने भी कदम उठाये वह अब यह उसी की चुकाई गयी कीमत लगती है। वाजिब तर्क यह भी है कि ईरान की अर्थव्यवस्था को अमेरिका ने पूरी तरह जकड़ दिया है और भारत भी मई 2019 से तेल की खरीदारी बंद किया हुआ था। बल्कि ईरान की तुलना में महंगे और प्रीमियम के साथ दूसरे देषों से तेल खरीद रहा है। कह सकते हैं कि जिस प्रकार पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका के हटने के बाद भारत ने किसी प्रभाव में अपने कदम पीछे नहीं खींचे और रूस से एस-400 की खरीदारी समझौते के बाद समेत कई मामलों में अमेरिकी दबाव के आगे भारत नहीं झुका तो फिर ईरान के मामले में यह कदम क्यों उठाया। ईरान की अपेक्षाओं में षायद भारत उतना मददगार देष नहीं रहा। ऐसे में वह चाबहार को उसके लिए कैसे सुरक्षित रखे। षायद यही बड़ा कारण था कि चीन के झांसे में वह आ गया। चीन उसके साथ लम्बा समझौता कर रहा है उसे पैसे दे रहा है। ऐसे में उसने अपनी रणनीति बदल दी। 
चीन और ईरान के बीच जो समझौते हुए हैं उसका असर भारत समेत दुनिया पर भी पड़ेगा। चीन ईरान के तेल और गैस उद्योग में 280 अरब डाॅलर का निवेष करेगा। उत्पादन और परिवहन के आधारभूत ढांचे के विकास हेतु 120 बिलियन डाॅलर का निवेष भी रहेगा, 2जी तकनीक के लिए आधारभूत संरचना देना इसके अलावा बैंकिंग, टेलीकम्यूनिकेषन, बंदरगाह, रेलवे और दर्जनों अन्य ईरानी परियोजनाओं में बड़े पैमाने पर वह अपनी भागीदारी बढ़ायेगा साथ ही साझा सैन्य अभ्यास और षोध की भी बात है। इतना ही नहीं दोनों देष मिलकर हथियारों का निर्माण करेंगे, खूफीया जानकारी के साझा करेंगे। इन सबके बदले ईरान चीन को 25 वर्श तक नियमित रूप से बहुत सस्ते दर पर कच्चा तेल और गैस मुहैया करायेगा। गौरतलब है यह समझौता ऐसे समय में हो रहा है जब दुनिया कोविड-19 की महामारी में जूझ रही है और जिसका पिता चीन ही है। चीन ने दुनिया समेत भारत को कोरोना में झोंका और अब भारत के लिए सीमा विवाद से लेकर ईरान में हुए समझौते तक पीछे छोड़ने में लगा है। कह सकते हैं कि भारत को अमेरिकी प्रगाढ़ता की भारी कीमत चुकानी पड़ी है। चीन और ईरान का सहयोगी होना इसलिए भी स्वाभाविक लगता है क्योंकि यह दोनों देष अमेरिका और पष्चिमी देषों के प्रभुत्व से नाखुष रहे हैं। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जबकि ईरान पष्चिमी एषिया की सबसे बड़ी ताकत है। ये दोनों इसलिए भी साथ आये ताकि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला अमेरिका की धौंस और दबाव को निस्तोनाबूत किया जा सके। ईरान के पास प्राकृतिक गैसों का भण्डार है और रूस के बाद यह सबसे बड़ा नेचुरल गैस रिज़र्व है। इसके बाद सऊदी अरब का नम्बर आता है। यहां भी चीन ईरान से हाथ मिलाकर सऊदी अरब के एकाधिकार को चुनौती देना चाहता है। यहां बता दें कि ईरान से तेल न लेने के बाद भारत की निर्भरता सऊदी अरब पर अधिक बढ़ गयी है। चीन यहां भी संतुलन साधने का कोई अवसर नहीं छोड़ा है और ईरान को उसके विकल्प के तौर पर पेष करने की फिराक में है। 
चाबहार बंदरगाह पर ड्रैगन की नजर कई कारण लिये हुए है। वन बेल्ट, वन रोड की महत्वाकांक्षी परियोजना को भी चीन इसके चलते और प्रबल बनाने का भी मनसूबा रखता है। पाकिस्तान जो उसका आर्थिक गुलाम है उसके ग्वादर पोर्ट से चाबहार को रणनीति के रूप में इस्तेमाल करने का मन भी रखता है। मध्य एषिया एवं खाड़ी देषों के अलावा कई क्षेत्रों मसलन अफ्रीका और यूरोप की दौड़ पक्की करने की भी फिराक में है। गौरतलब है कि चीन अफ्रीका के कई देषों में खेती के लिए लीज़ पर जमीन लिया है। उसके लिए भी बाजार और आवागमन का कुछ विचार रखा ही होगा। दक्षिण चीन सागर से हिन्द महासागर तक और दुनिया की जमीन नापने की फिराक में चीन की विस्तारवादी नीति हमेषा रही है। मगर यह इसलिए कश्टकारी है क्योंकि चाबहार को लेकर भारत चार साल पहले संधि का रूप दे चुका था और कदम भी बढ़ा चुका था। हो न हो यह भारत के लिए दोहरा आघात है। वैसे भारत षान्ति और सद्भावना का देष है उसकी भी कीमत उसे चुकानी पड़ रही है।
चाबहार के इतिहास में जायें तो पता चलता है कि इस बंदरगाह का विकास पहली बार 1973 में ईरान के अंतिम षाह ने प्रस्तावित किया था। हालांकि 1979 की ईरानी क्रान्ति से इसके विकास में देरी आयी। यहां स्पश्ट कर दें कि अमेरिका और ईरान के बीच इसी साल से तनातनी भी षुरू हुई। पोर्ट का पहला चरण 1983 में ईरान-इराक युद्ध के समय षुरू हो गया था। असल में ईरान ने फारस की खाड़ी में बंदरगाहों पर निर्भरता को कम करने के लिए पाकिस्तानी सीमा की तरफ और पूर्व में समुद्री व्यापार को स्थानांतरिक करना षुरू कर दिया था। ऐसा इराकी वायुसेना के हमले के चलते सुरक्षा के तौर पर किया गया था। बंदरगाह को लेकर पहली बार भारत और ईरान 2003 विकसित करने की योजना बनायी तब देष के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। लेकिन ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों के चलते यह काम आगे नहीं बढ़ा। लम्बे समय तक खटाई में रहने के बाद मई 2016 में प्रधानमंत्री मोदी की ईरान यात्रा हुई उसी दौरान द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए तभी से यह भारत के लिए एक उज्जवल भविश्य का रूप ले लिया। जिसका दीया फिलहाल चीन बझाते हुए दिख रहा है। समझौते के दो महीने बाद से भारत ने पोर्ट कन्टेनर पटरियों को विकसित करने और इरकाॅन इंटरनेषनल द्वारा रेल पटरियों की षिपिंग षुरू की जिसके लिए 150 मिलियन अमेरिकी डाॅलर का खर्च था। इतना ही नहीं क्रमिक तौर पर भारत इस दिषा में आगे बढ़ रहा था। भारत ने अफगानिस्तान को गेहूं की पहली खेप अक्टूबर 2017 में इसी पोर्ट के माध्यम से भेजा था और एक साल बाद बंदरगाह के संचालन को भारत ने संभाला। स्थिति इतनी खराब नहीं थी जितनी तेजी से ईरान ने चीन से गठजोड़ करके भारत को दरकिनार करने का प्रयास किया है। गौरतलब है कि चाबहार बंदरगाह मध्य एषिया का प्रवेष द्वार है और वर्तमान में रूस और यूरोप के साथ व्यापार करने के हब के रूप में देखा जा सकता है। ईरान के कुल समुद्री व्यापार के 85 फीसदी हिस्से में यही आता है।
फिलहाल भारत ईरान के पुराने सम्बंध में नया मोड़ आ गया है। इतिहास में झांके तो पता चलता है कि दोनों के बीच सदियों पुराना नाता है। मगर मौजूदा स्थिति को देखें तो यहां ईरान की मौका परस्ती है। निकट भविश्य में भारत, ईरान इस कदम को लेकर प्रतिसंतुलन का सिद्धांत कैसे गढ़ेगा कहना कठिन है। आर्थिक और सामरिक हित को ध्यान में रखते हुए कुछ कदम तो भारत को उठाने चाहिए। पष्चिम एषिया के अन्य देष जैसे ईराक, सऊदी अरब, इज़राइल एवं कुछ अन्य के साथ सम्बंध प्रगाढ़ता की ओर भारत तेजी से जा सकता है। फिलहाल अगले 25 वर्शों में चीन ने ईरान को 400 अरब डाॅलर का लाॅलीपोप देकर अपनी दखल तो बढ़ा लिया है। यहां सवाल चाबहार पर चीन की दखल का ही नहीं है बल्कि भारत के उन सपनों का भी है जिसे उसने खुली आंखों से देखा था। इस पोर्ट के भरोसे मध्य एषिया में पहुंच और पाकिस्तान को प्रतिसंतुलित करने का जो विचार था वह भी कमजोर हुआ है। भारतीय उत्पादों को रेल मार्ग से यूरोप तक बहुत कम समय में पहुंचाने का जो सपना था उसको भी धक्का पहुंचा है। गौरतलब है कि यह रेल प्रोजेक्ट चाबहार पोर्ट से जाहेदान के बीच है और भारत की तैयारी इससे आगे तुर्कमेनिस्तान के बाॅर्डर सराख तक पहुंचने की थी जो अब सम्भव नहीं है। वैसे भारत और ईरान के बीच मौर्य तथा गुप्त षासकों के काल से ही ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सम्बंध रहे हैं। स्वतंत्रता के षुरूआती दिनों में दोनों देषों के बीच 15 मार्च 1950 को षान्ति और मैत्री संधि पर हस्ताक्षर हुए। हालांकि षीत युद्ध के दौरान अच्छे सम्बंध नहीं थे तब ईरान का अमेरिकी गुट में षामिल होने के चलते ऐसा हुआ और अब भारत की ओर अमेरिका का झुकाव के कारण ऐसा होता दिखाई दे रहा है। साफ है कि सम्बंध और रणनीति चाहे द्विपक्षीय हों या बहुपक्षीय एक जैसे कभी नहीं रहते। फिलहाल भारत का पड़ोसी दुष्मन चीन भारत के पुराने और सकारात्मक सम्बंधों वाले देष ईरान से संधि कर ली है। अब भारत चाबहार रेल प्रोजेक्ट से बाहर होता दिख रहा है। वैसे समझौते रास्तों में अड़चन तो पैदा कर सकते हैं पर मंजिल से अलग नहीं कर सकते। इसी तर्ज पर भारत को आगे कदम बढ़ाना चाहिए।



डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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