Monday, July 27, 2020

बाढ़ को लेकर इंतज़ार नहीं इतज़ाम हो

नदी का जल उफान के समय जब जल वाहिकाओं को तोड़ता हुआ मानव बस्ती और आस-पास की जमीन को चपेट में ले लेता है तो यही बाढ़ की स्थिति होती है। हालांकि यह अचानक नहीं आती है। दक्षिण-पष्चिम मानसून का भारत में इन दिनों व्यापक स्तर पर विस्तार होता है जिसके चलते पूरे साल की 80 फीसद बारिष होती है। भारी बारिष और लचर सरकारी नीतियां मसलन बांध और तंटबंधों के निर्माण में कमी या उनकी कमजोरी के चलते उनके टूटने से हर साल विस्तृत क्षेत्र में जलमग्नता देखने को मिलती है। बाढ़ भारतीय संविधान में निहित राज्य सूची का विशय है। कटाव नियंत्रण सहित बाढ़ प्रबंधन का विशय राज्यों के क्षेत्राधिकार में आता है मगर केन्द्र सरकार राज्यों को तकनीकी मार्गदर्षन और वित्तीय सहायता प्रदान करती है। इन्हीं महीनों में जब पानी बेकाबू होता है और जान-माल का व्यापक नुकसान करता है तब देष की सियासत भी गरम हो जाती है जैसा कि इन दिनों देखा जा सकता है। बाढ़ पूरे देष को व्यापक आर्थिक नुकसान में ही नहीं बल्कि मानव संसाधन को भी पानी-पानी कर देता है। खेती, स्कूल, काॅलेज, रोज़गार, काम-धंधे सहित सभी पर यह भारी पड़ता है। इंटरनेषनल डिस्प्लेसमेंट माॅनिटरिंग सेंटर की रिपोर्ट से पता चलता है कि हर साल औसतन 20 लाख लोग बाढ़ की वजह से बेघर हो जाते हैं और चक्रवाती तूफानों के चलते ढ़ाई लाख लोगों को विस्थापित करना पड़ता है। 
वैसे तो देष का आधा हिस्सा कमोबेष बाढ़ की चपेट में आ जाता है मगर बिहार और असम में भयावह रूप लिए बाढ़ ने लाखों लोगों को अपनी चपेट में इन दिनों लिए हुए है। कोरोना संकट के इस दौर में मुष्किलें दोगुनी हो गयी हैं। केन्द्रीय जल आयोग का भी मानना है कि बिहार में बाढ़ की हालत चिन्ताजनक है। गौरतलब है कि बाढ़ के बीच यहां सियासत भी गरम है क्योंकि इसी साल यहां विधानसभा का चुनाव होना है। यहां 40 बाढ़ पूर्वानुमान केन्द्र में से 20 के दायरे में नदियां खतरे के निषान से ऊपर बह रही हैं। 9 से 10 जिले बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हैं। बिहार में बारिष औसतन डेढ़ गुना ज्यादा बतायी जा रही है। हालांकि बिहार के बाढ़ के कारणों में गंडक और कोसी जैसी नदियां कहीं अधिक प्रभाव डालती हैं। कोसी ऐसी नदी है जिसे बिहार का षोक कहा जाता है और यह ऐसी अभिषाप से युक्त नदी है जो रास्ता बदलती है। ऐसे में यह सुनिष्चित करना मुष्किल होता है कि अगले साल यह नदी किधर रूख करेगी। मौजूदा समय में बिहार में 6 लाख से अधिक आबादी बाढ़ की चपेट में है और इनमें से कुछ को ही सुरक्षित निकालकर राहत षिविरों में पहुंचाया गया। चिंता असम में बाढ़ की स्थिति को लेकर भी है। असम में 30 बाढ़ पूर्वानुमान केन्द्रों में से 13 में नदिया खतरे के निषान से ऊपर बह रही हैं। जबकि 16 से 17 जिले इसकी चपेट में है। केन्द्रीय जल आयोग असम में भी बाढ़ की स्थिति को काफी गम्भीर बता रहा है। यहां 19 फीसद अधिक बारिष की बात कही जा रही है। असम में बाढ़ की स्थिति से निपटने के लिए केन्द्र सरकार 346 करोड़ रूपए प्रारम्भिक राषि के तौर पर जारी करने की बात कही है। पूर्वोत्तर के इस राज्य में बाढ़ से 56 लाख से अधिक लोग प्रभावित हैं। यहां बताते चलें कि असम में कोविड-19 से मरने वालों की संख्या 77 से अधिक है और संक्रमित 30 हजार के आंकड़े से ऊपर है। इतना ही नहीं यहां के कांजीरंगा राश्ट्रीय उद्यान में अब तक 10 गैंडे समेत 110 जानवरों की मौत की अधिकारिक घोशणा हुई है और कुछ जानवर लापता भी हुए हैं। कह सकते हैं कि असम दोहरी नहीं तिहरी मार झेल रहा है। 
असम या यूपी, बिहार में बाढ़ तकरीबन हर साल आती है। 1980 में राश्ट्रीय बाढ़ आयोग ने अनुमान लगाया था कि 21वीं सदी के षुरूआती दषक तक 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि बाढ़ की चपेट में होगी। इसे देखते हुए बड़ी संख्या में बहुउद्देषीय बांध और 35 हजार किलोमीटर तटबंध बनाये गये। मगर बाढ़ से मुक्ति तो छोड़िये अनुमान से एक हजार हेक्टेयर अधिक भूमि बाढ़ से प्रभावित होने लगी। वैसे देखा जाय तो बाढ़ की फसलें भी सरकारें ही बोती हैं और वही काटती हैं। केन्द्रीय जल आयोग ने एक डेटा जारी करते हुए बताया था कि देष के 123 बांधों या जल संग्रहण क्षेत्रों में पिछले दस सालों के औसत का 165 फीसद पानी संग्रहित है और यह अब तुलनात्मक और बढ़ गया है। इसका तात्पर्य यह कि बांधों में पर्याप्त रूप से पानी का भण्डारण था ये 123 वे बांध हैं जिसका प्रबंधन व संरक्षण केन्द्रीय जल आयोग करता है और जबकि इन बांधों में देष की कुल भण्डारण क्षमता का 66 फीसद पानी जमा होता है। जाहिर है उस समय जरूरत होने पर भी इन बांधों से पानी नहीं छोड़ा गया और बरसात होते ही बांध कहीं अधिक उफान पर आ जाते हैं। ऐसे में गेट खोल देने का नतीजा पहले से उफान ले रही नदी में बहाव को तेज कर देना और पानी को गांव और षहर में घुसाना और जान-माल को हाषिये पर धकेलना है। समझने वाली बात यह है कि जब ओड़ीषा में आने वाले अम्फान और आलिया जैसे तूफानों से रक्षा की सफल कोषिष हो सकती है तो नदी तट पर रहने वालों की सुरक्षा के इंतजाम क्यों नहीं जबकि पहले से पता है कि यहां बाढ़ आती ही है। साफ है कि बाढ़ का इंतजार किया जा रहा है जबकि इंतजाम से अछूते हैं। इतना ही नहीं यह भी स्पश्ट है कि बाढ़ नियंत्रण के सरकारी दो उपाय अर्थात् बांध और तटबंध ऐसी बाढ़ के आगे फेल भी होते देखे जा रहे हैं। सरकार मनरेगा के अन्तर्गत तालाब और पोखर खुदवाती है जबकि प्राचीन काल में यही बाढ़ नियंत्रण के उपाय हो जाते थे और 21वीं सदी की 2006 से चली आ रही सबसे अधिक रोजगार देने वाली योजनाओं में एक मनरेगा के पोखर दूर की कौड़ी बने हुए हैं। इससे यह भी संकेत मिलता है कि जिस पैमाने पर तालाब और पोखर की खुदाई की बात कही जाती है वह षायद कागजों में ही हुई है। वाॅटर हारवेस्टिंग भी तेजी से प्रसार किया जा रहा है मगर इसकी भी कमी दिखती है। पानी जमीन के भीतर के बजाय सड़कों और नालियों में बहाया जा रहा है और तत्पष्चात् नालों से होते हुए नदी की प्रवाहषीलता बढ़ाये हुए है जो बाढ़ के कारणों में षुमार है। 
भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) ने 21 जुलाई 2017 को बाढ़ नियंत्रक और बाढ पूर्वानुमान पर अपनी रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें कई बातों के साथ 17 राज्यों और केन्द्रषासित प्रदेषों के बांधों सहित बाढ़ प्रबंधन की परियोजनाओं और नदी प्रबंधन की गतिविधियों को षामिल किया गया था। इसके अंतर्गत साल 2007-08 से 2015-16 निहित है। उक्त से यह स्पश्ट होता है कि कोषिषों जारी रहीं पर बाढ़ बरकरार रही। वैसे देखा जाय तो मानवीय त्रुटियों के अलावा बाढ़ का भीशण स्वरूप कुछ प्राकृतिक रूप लिए हुए है। कोसी नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है यह बिहार में भीम नगर के रास्ते भारत में आती है जो बाकायदा यहां तबाही मचाती है। गौरतलब है कि साल 1954 में भारत ने नेपाल के साथ समझौता करके इस पर बांध बनाया था। हांलाकि बांध नेपाल की सीमा में था परन्तु रख-रखाव भारत के जिम्मे था। नदी के तेज बहाव के चलते यह बांध कई बार टूट चुका है। पहली बार यह 1963 में टूटा था। इसके बाद 1968 में पांच जगह से टूट गया। 1991 और 2008 में भी यह टूटा। फिलहाल बांध पर जगह-जगह दरारें हैं। समझा जा सकता है कि बाढ़ में इसका क्या योगदान है। गंडक नदी भी नेपाल के रास्ते बिहार में दाखिल होती है। इसे नेपाल में सालीग्राम और मैदान में नारायणी कहते हैं। नाम अच्छा है लेकिन काम बाढ़ का है। यही पटना में आकर गंगा में मिलती है। बरसात में उफान पर होती है और इसके आस-पास इसके इलाके बाढ़ की चपेट में होते हैं। इसी नदी के बढ़े जल स्तर के दबाव के कारण चम्पारण तटबंध टूट गया। लगभग 30 फीट चैढ़ाई में बांध के टूटने से तबाही आ गयी। एक तरफ नेपाल की नदियां दूसरी तरफ झारखण्ड के ऊंचाई के कारण पानी के प्रवाह का बिहार की ओर होना, तीसरे उत्तर प्रदेष का ढ़लान भी कुछ इस प्रकार कि बिहार पानी-पानी हो जाता है। जहां तक सवाल पूर्वोत्तर के असम का है ब्रह्मपुत्र यहां की तबाही का प्रमुख कारण है। 
सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि बाढ़ निपटने के लिए क्या किया जाय। तकनीकी विकास के साथ मौसम विज्ञान के विषेशज्ञों को मानसून की सटीक भविश्यवाणी करनी चाहिए। जबकि अभी यह भविशयवाणी 50-60 फीसद ही सही ठहरती है। बाढ़ प्रभावित इलाकों में चेतावनी केन्द्र की बात बरसों से लटकी हुई है। सीएजी की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि अब तक 15 राज्यों में कोई प्रगति नहीं हुई है और जहां ये केन्द्र बने वहां की मषीने भी खराब हैं। ऐसे में असम और बिहार समेत निगरानी केन्द्र सभी बाढ़ इलाकों में नूतन तकनीक के साथ स्थापित होने चाहिए। बाढ़ नियंत्रण का कोई विधायी उल्लेख भी देखने को नहीं मिला। यह संविधान की सातवीं अनुसूची की किसी भी सूची में नहीं है जबकि जल निकासी और तटबंध से जुड़ी समस्या की जानकारी राज्य सूची में मिलती है। फिलहाल सरकार जो सही समझे करे पर बाढ़ नियंत्रण पर काबू पाये। वैसे भारत में दक्षिण-पष्चिम मानसून खेती-बाड़ी के लिए एक षुभ अवसर होता है वहीं कई क्षेत्रों में ये तबाही लाकर अषुभ बन जाती है। बादल फटना, गाद का संचय होना, मानव निर्मित अवरोध का उत्पन्न होना और वनों की कटाई जैसे तमाम कारण बाढ़ के लिए जिम्मेदार हैं। असम घाटी में आयी में बाढ़ ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा लाया गया गाद खूब जिम्मेदार होता है। गौरतलब है कि चीन, भारत, भूटान और बांग्लादेष में फैले एक बड़े बेसिन क्षेत्र के साथ ब्रह्मपुत्र नदी अपने साथ भारी मात्रा में जल और गाद का मिश्रण लेकर आती है जिससे असम में कटाव की घटनाओं में वृद्धि होती है और लाखों पानी-पानी हो जाते हैं। फिलहाल असम, पष्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेष और ओड़िषा, आन्ध्र प्रदेष, तमिलनाडु और गुजरात तटीय क्षेत्र सहित पंजाब, राजस्थान एवं हरियाणा में भी बाढ़ के चलते कृशि भूमि तथा मानव बस्तियों के डूबने से अर्थव्यवस्था भी डूब रही है। सरकार की हालिया रिपोर्ट यह कहती है कि साल 1953 से 2017 के बीच बारिष और बाढ़ के चलते 3 लाख 65 हजार करोड़ रूपए का नुकसान हुआ है जबकि एक लाख से अधिक लोगों की जान गयी है।
भारी बारिष और बाढ़ की वजह से तबाही होती भी है साथ ही भीशण गर्मी और सूखे भी तबाही के प्रतीक हैं। गरमी के चलते उत्पादन स्तर में लगातार गिरावट आ रहा है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की हालिया रिपोर्ट बताती है कि 2030 तक प्रचण्ड गर्मी के कारण भारत में करीब साढ़े तीन करोड़ नौकरियां खत्म हो जायेंगी जो पूरी दुनिया की तुलना में लगभग आधी हैं। बारिष न हो तो सूखे का डर और हो तो बाढ़ का डर आम जनता करे तो क्या करे। साफ है आगे कुंआ तो पीछे खाई है। अतीत की घटनाओं से सीखना चाहिए। जहां अधिक असर है सरकारों को असरदार काम करना चाहिए। देष में रावी यमुना, गंडक, सतलज, घग्गर, कोसी, तीस्ता, ब्रह्मपुत्रा सहित दामोदर, गोदावरी और साबरमती व अन्य के साथ इनकी सहायक नदियों में पानी किनारों को छोड़ कर दूर तक फैलते हैं। उत्तर प्रदेष में ऐसे क्षेत्र 7 लाख हेक्टेयर से अधिक बिहार में 4 लाख हेक्टेयर से अधिक, पंजाब में 4 लाख हेक्टेयर से थोड़ा कम और असम में 3 लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन पर बाढ़ का कब्जा हो जाता है। इसके अलावा भी कई प्रान्त हैं जो इसी प्रकार कम-ज्यादा बाढ़ की चपेट के आंकड़े से युक्त है। जम्मू-कष्मीर की घाटी हो या केरल बाढ़ का स्वाद सभी जानते हैं और इसके कसैलेपन को भी। सरकारें बाढ़ के दिनों में वित्तीय सहायता के साथ एड़ी-चोटी का खूब जोर लगाती हैं मगर यह हर साल की कहानी रहती है। आधा भारत दक्षिण-पष्चिम मानसून के दिनों में पानी-पानी रहता है बस अन्तर यह है कि बिहार और असम और कुछ हद तक पूर्वी उत्तर प्रदेष में यही पानी उनकी नाक की ऊपर से बहता है। 


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

No comments:

Post a Comment