Thursday, July 23, 2020

जनता को क्यों नहीं मिलता सस्ता तेल

दो टूक यह कि क्रूड आॅयल का दाम चाहे आसमान पर हो या जीमन पर जनता को सस्ता तेल नहीं मिल पाता है। मौजूदा समय में यह लगभग 42 डाॅलर प्रति बैरल चल रहा है और पेट्रोल और डीज़ल दोनों की कीमत 80 रूपए लीटर के पार है। जून महीने में तेल में आई यह वृद्धि रोजाना के हिसाब से बढ़ोत्तरी लिये हुए है। वैसे इसे लाॅकडाउन से पहले 14 मार्च से बढ़त के रूप में तब देखा जा सकता है जब 3 रूपए प्रति लीटर सक्साइज़ ड्यूटी बढ़ा दी गयी हो। पेट्रोल की तुलना में कहीं अधिक सस्ता डीज़ल दिल्ली में तो सात दषक के इतिहास में पहली बार है जब वह आगे निकल गया। मुम्बई, कोलकाता सहित कई महानगरों में कीमत इससे भी अधिक है। सवाल है कैसे तय होते हैं तेल के दाम जिसके कारण जनता ठगी महसूस करती है। यहां बता दें कि जून 2017 से जिस डीजल और पेट्रोल का दाम तय करने का जिम्मा सरकार ने आॅयल कम्पनियों को दे दिया। अब कम्पनियां किसी भी स्थिति में घाटे में नहीं रहती और सरकार मुनाफा लेने से नहीं चूकती जिसके चलते जनता को सस्ता तेल मिल ही नहीं पाता है। जबकि मिट्टी का तेल और रसोई गैस नियंत्रण अभी भी सरकार का है। पड़ताल करके देखें तो तेल की कीमतें विदेषी मुद्रा दरों और अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के आधार पर बदलती रहती हैं। इन्हीं मानकों के आधार पर तेल कम्पनियां प्रति दिन तेल के दाम तय करती रहती हैं। जिसमें रिफायनरी, तेल कम्पनियों के मुनाफे, पेट्रोल पंप का कमीषन, केन्द्र का एक्साइज ड्यूटी और राज्य  का वैट साथ ही कस्टम और रोड़ सेस भी जुड़ा रहता है। 
कोरोना के समय में जब तेल अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंचा तो सरकार ने पेट्रोल पर 10 रूपए और डीजल पर 13 रूपए एक्साइज़ ड्यूटी लगाकर इसके सस्ते होने की गुंजाइष को 5 मई में खत्म कर दिया। जबकि मार्च में एक बार पहले ही यह महंगा हो चुका था। गौरतलब है कि मोदी षासनकाल में कच्चे तेल की कीमत 28 डाॅलर प्रति बैरल तक भी गिर चुकी है और कोरोना काल में यह 18 डाॅलर प्रति बैरल तक आ चुका था। तब देष को तेल की इतनी आवष्यकता नहीं थी क्योंकि सभी लाॅकडाउन में थे। ऐसे में खपत गिरा जिससे न केवल आॅयल कम्पनियों व उत्पादन करने वाले देषों को घाटा हुआ बल्कि सरकार का खजाना भी कमजोर हुआ। मई में बढ़ाई गयी एक्साइज़ ड्यूटी का लक्ष्य एक लाख 60 हजार करोड़ रूपए कोश में जमा करने का है। जाहिर है जिस प्रकार तेल की कीमत में वृद्धि जारी है और सरकार अपने मुनाफे की चिन्ता कर रही है उससे तेल की बेलगाम कीमत जनता को चोटिल करेगी। चीन और अमेरिका के बाद भारत कच्चे तेल का सबसे बड़ा आयातक देष है। कोरोना काल में भारत में तेल की खपत में 30 से 35 फीसदी की कमी आयी। अपनी आवष्यकता का करीब 86 फीसदी तेल भारत आयात करता है जो अधिकतम खाड़ी देषों से आता है इसम समय सऊदी अरब पहले नम्बर पर है। जिन देषों में तेल की खपत घटी उनकी अर्थव्यवस्था इसके चलते भी चरमराने लगी और तेल उत्पादन ईकाइयों के लिए भी खतरा होने लगा। 80 लाख भारतीय ऐसे हैं जिनकी नौकरियां तेल की अर्थव्यवस्था पर टिकी हैं। 
खास यह भी है कि भारत के पास तेल भण्डारण की क्षमता अधिक नहीं है जैसा कि अमेरिका और चीन के पास है। चीन ने एक तरफ दुनिया को कोरोना में डाला और दूसरी तरफ सस्ते कच्चे तेल का भण्डारण किया। भारत में रोजाना 46 लाख प्रति बैरल तेल की खपत है। अगर तेल सस्ता भी हो जाय तो उसे रखने की जगह नहीं है। भारत ने हाल ही में 5 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिज़र्व बनाया है। जबकि यही 4 गुना होना चाहिए। चीन के पास तो 90 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिज़र्व की क्षमता है इसकी तुलना में तो भारत 14 गुना पीछे है। कच्चे तेल का दाम घटते ही चीन ने अपना रिज़र्व मजबूत कर लिया। ऐसे में उसके यहां दो साल तक तेल के दाम नहीं बढ़ सकते और भारत की स्थिति यह है कि लाॅकडाउन में तेल जमा नहीं कर पाया और अनलाॅक में कीमत बढ़ने से रोक नहीं पा रहा है। वैसे भी चैतरफा अर्थव्यवस्था की मार झेल रही सरकार तेल से कमाई का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहती है। तेल के दाम कुछ भी रहे हों भारत में तेल पर लगने वाले टैक्स हमेषा ऊपर ही रहे हैं। जाहिर है तेल से होने वाली कमाई भारत को राजकोशीय घाटा कम करने में मदद करती है मगर यहां सरकार को भी सोचना होगा कि अर्थव्यवस्था की मार उन्हीं पर नहीं है बल्कि 130 करोड़ की जनता पर भी पड़ी है। 
ऐसे में मनमोहन सिंह की याद आना स्वाभाविक है। मई 2014 में मोदी सरकार के प्रतिश्ठित होने से पहले 109 डाॅलर प्रति बैरल कच्चा तेल था तब पेट्रोल की कीमत 71 से 72 के बीच हुआ करता था। इतना ही नहीं मनमोहन के षासनकाल में ही कच्चे तेल की कीमत 145 डाॅलर प्रति बैरल रही है मगर कीमत 80 के पार नहीं गयी जबकि मोदी सरकार में 42 डाॅलर प्रति बैरल में ही पेट्रोल तो छोड़िए डीजल को भी 80 पार करा दिया। अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस सहित कई देषों की तुलना में भारत में तेल पर सबसे ज्यादा टैक्स हैं। भारत के बाद टैक्स जर्मनी में है जबकि अमेरिका में तो भारत से 3 गुना कम टैक्स है। समझने वाली बात यह भी है कि तेल की कीमत के चलते रसोई महंगी हो जाती है। बाजार की वस्तुएं आसमान छूने लगती हैं, परिवहन सुविधाएं बेकाबू होने लगती हैं और जीवन की भरपाई पेट कटौती में चली जाती है। ऐसे में सवाल है कि जनता से वोट लेकर भारी-भरकम सरकार चलाने वाले उसी की जेब काटने पर क्यों उतारू रहती हैं जबकि उनकी जिम्मा लोक कल्याण देना है। मोदी सरकार के बारे में यह कहना लाज़मी है कि पिछले 6 सालों में सबसे ज्यादा एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाने वाली सरकार और एक बार में सबसे ज्यादा एक्साइज़ ड्यूटी लगाने वाली सरकार बन गयी है जो सरकार और जनता दोनों की सेहत के लिए ठीक नहीं है।


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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