Wednesday, October 9, 2019

उच्च शिक्षा में निजी पहल

आज से दो दषक पहले पीटर ड्रकर ने ऐलान किया था कि आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जायेगा। दुनिया में गरीब देष षायद समाप्त हो जायेंगे लेकिन किसी देष की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जायेगा कि वहां की षिक्षा का स्तर किस तरह का है। देखा जाय तो ज्ञान संचालित अर्थव्यवस्था और सीखने के समाज में उच्चत्तर षिक्षा अति महत्वपूर्ण है। जहां तक व्यावसायिक षिक्षा और पेषेवर प्रषिक्षण का सवाल है बीते कुछ दषकों से इसकी काफी मांग देखी जा सकती है। प्रायः निजी क्षेत्र की दिलचस्पी तकनीकी, व्यावसायिक और बाजार आधारित उच्चत्तर षिक्षा में अधिक है। गौरतलब है यषपाल समिति ने यह रेखांकित किया है कि यह इंजीनियरिंग, मेडिकल, प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में निजी निवेष अधिक हैं। इसके बावजूद परम्परागत विशय जैसे कला इत्यादि में अभी भी दाखिले अधिक हो रहे हैं। समिति ने यह भी कहा था कि निजी क्षेत्र को व्यावसायिक रूप से सुसंगत क्षेत्रों जैसे प्रबंधन, मेडिकल इत्यादि तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखना चाहिए। इसलिए दाखिले की संख्या को बढ़ाने की जिम्मेदारी फिलहाल सरकार की है। हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नई षिक्षा नीति के पुर्नगठन हेतु मसौदा नीति प्रस्तुत की है। यह मसौदा नीति के0 कस्तूरीरंगन के नेतृत्व वाली समिति द्वारा तय की गयी है। इसके तहत षिक्षा के अधिकार अधिनियम के दायरे को विस्तृत करने का प्रयास किया गया है साथ ही स्नातक पाठ्यक्रमों में भी संषोधन की गुंजाइष देखी जा सकती है। गौरतलब है कि नई षिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने का एनडीए सरकार का यह दूसरा प्रयास है। इसके पहले टीएसआर सुब्रमण्यम के नेतृत्व में एक समिति गठित की गयी थी जिसकी रिपोर्ट 2016 में आई थी। जाहिर है नई षिक्षा नीति को लेकर एक बार फिर चर्चा फलक पर हैं जबकि षिक्षा नीति कैसी भी हो परिस्थितियां हमेषा चुनौती रही ही हैं। 
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तीन विष्वविद्यालय की संख्या थी लेकिन अब इनकी संख्या यूजीसी की वेबसाइट पर जाकर देखा जाय तो सभी प्रारूपों मसलन केन्द्रीय विष्वविद्यालय, राज्य विष्वविद्यालय, डीम्ड व निजी विष्वविद्यालय समेत इनकी संख्या 600 से अधिक मिलेगी। आंकड़े को देखते हुए कह सकते हैं कि षिक्षा को लेकन विष्वविद्यालयों का विकास तेजी से हुआ है पर जिस भांति षिक्षालयों का नेटवर्क देष भर में फैला षिक्षा की गुणवत्ता उसी मात्रा में नहीं रही। वर्शों से सरकार द्वारा पैसों में लगातार की जा रही कमी अच्छी षिक्षा न मिल पाने का प्रमुख कारण रहा है। गौरतलब है कि 1968 में कोठारी आयोग ने अनुमान लगाया था कि लोगों को गुणवत्तापूर्ण षिक्षा प्रदान करने के लिए षिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिषत खर्च किया जाना चाहिए पर हकीकत यह है कि 2013-14 के बजट में जिस षिक्षा पर जीडीपी का 4.6 फीसदी खर्च होता था वही वित्त वर्श 2019-20 आते-आते वही महज 3 फीसदी से थोड़े ऊपर पर सिमट गया। जीडीपी से षिक्षा का मोल समझना एक तरीका मात्र है जो एक वर्श में देष का कुल उत्पादन है। हकीकत तो यह भी है कि षिक्षा को लेकर सरकारें हमेषा प्रयोगोन्मुख रही हैं। सटीक षिक्षा प्रणाली क्या हो उस पर आने वाला खर्च कितना वाजिब है षायद इस पर ठीक से काम अभी तक भी नहीं हुआ। वास्तविक षैक्षिक आजादी, आर्थिक विकास और सही मायने में किसी समतावादी समाज की कुंजी है और यह आजादी एक स्वतंत्र सरकारी रूप से वित्त पोशित उच्च षिक्षा प्रणाली के तहत ही सम्भव है। परन्तु जिस प्रकार उच्चत्तर षिक्षा में निजी पहल बढ़ी है उससे गिरने वाला स्तर संभल नहीं पाया। निजी उच्च षिक्षण संस्थाओं पर अक्सर यह आरोप लगता है कि वे विद्यार्थियों से कैपिटेषन फीस वसूलते हैं इससे उनकी षिक्षा वहन नहीं होती। निजी संस्थानों के फीस के ढांचे के कारण सभी लोगों की पहुंच उच्च षिक्षा तक नहीं हो पाती। कैपिटेषन फीस के मामले में यषपाल समिति ने 2008 में अचम्भित करने वाली रिपोर्ट दी थी।  
उच्च षिक्षा को लेकर दो प्रष्न मानस पटल पर उभरते हैं प्रथम यह कि क्या विष्व परिदृष्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच उच्चत्तर षिक्षा, षोध और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं, दूसरा क्या अर्थव्यवस्था दक्षता और प्रतिस्पर्धा के प्रभाव में षिक्षा के हाइटेक होने का कोई बड़ा लाभ मिल रहा है। यदि हां तो सवाल यह भी है कि क्या परम्परागत मूल्यों और उद्देष्यों का संतुलन इसमें बरकरार हैं। तमाम ऐसे और भी कयास हैं जो उच्च षिक्षा को लेकर उभारे जा सकते हैं। विभिन्न विष्वविद्यालयों में षुरू में ज्ञान के सृजन का हस्तांतरण, भूमण्डलीय सीख और भूमण्डलीय हिस्सेदारी के आधार पर हुआ था। षनैः-षनैः बाजारवाद के चलते षिक्षा मात्रात्मक बढ़ी पर गुणवत्ता के मामले में फिसड्डी होती चली गयी। केन्द्र में मानव संसाधन विकास मंत्रालय देष में षिक्षा से सम्बंधित नीतियां बनाता है और कानूनों एवं योजनाओं को लागू कराता है। मंत्रालय के तहत उच्च षिक्षा विभाग, उच्च षिक्षा क्षेत्र के लिए उत्तरदायी है। राज्य स्तर पर राज्य षिक्षा विभाग उपरोक्त कार्य करते हैं। सवाल यह है कि उच्च षिक्षा की तस्वीर कैसे बदले? जब देष के आईआईटी और आईआईएम निहायत खास होने के बावजूद दुनिया भर के विष्वविद्यालयों एवं षैक्षिक संस्थाओं की रैंकिंग में 200 के भीतर नहीं आ पाते हैं तो जरा सोचिए कि मनमानी करने वाली संस्थाओं का क्या हाल होगा। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय के माध्यम से यह जता दिया था कि उच्च षिक्षा को लेकर वह कितना चिंतित है। खास यह भी है कि तकनीकी षिक्षा के लिए आॅल इण्डिया काउंसिल आॅफ टैक्निकल एजुकेषन (एआईसीटीई) को मानक तय करने के लिए 1987 में बनाया गया था जिसकी खूब अवहेलना हुई है और समय के साथ यूजीसी भी नकेल कसने में कम कामयाब रहा है। 
सच तो यह है कि सूचना, संचार और तकनीक में क्रान्ति ने उच्चत्तर षिक्षा के स्वरूप को ही बदल दिया है। एक कहावत है कि जिसके पास धन है उसी की चलती है। अगर सार्वजनिक विष्वविद्यालयों को बाहरी वित्त पर नियंत्रण करना पड़ा तो वे उच्चत्तर षिक्षा के परम्परागत संस्थानों के ‘ज्ञान के लिए ज्ञान‘, ‘सत्य की खोज‘, ‘षैक्षिक स्वतंत्रता और स्वायत्ता‘ आदि मूलभूत मूल्यों को बरकरार नहीं रख सकेंगे। चूंकि उच्चत्तर षिक्षा के लिए जरूरी महंगी तकनीक में निवेष करना सभी सरकारों के लिए सम्भव नहीं है। ऐसे में विष्वविद्यालय षैक्षिक पूंजीवाद के परिसर बन रहे हैं। सरकार ने यूजीसी की जगह उच्च षिक्षा आयोग को लाने की घोशणा कर दी है। हालांकि इससे जुड़े विधेयक के विरोध में अनेक तर्क दिये जाते रहे हैं। कई लोगों का मानना है कि यह विधेयक उच्च षिक्षा को निजीकरण की तरफ ले जाने वाला सिद्ध होगा। ऐसे में उच्च षिक्षा ही बाजार की ताकतों के हवाले हो जायेगा जबकि सच्चाई यह है कि षिक्षा से लेकर उच्च षिक्षा पर किया जाने वाला खर्च जीडीपी का बहुत मामूली हिस्सा रहा है। कोठारी समिति के हिसाब से भी देखें तो 6 फीसदी इस पर किया जाने वाला खर्च ही उच्च षिक्षा की गुणवत्ता को बरकरार रख पायेगा। जबकि सरकार इसके आधे पर खड़ी है। ऐसे में उच्च षिक्षा में निजी पहल समय की दरकार सम्भव है। काॅरनेल विष्वविद्यालय में अर्थषास्त्र के प्रोफेसर और वल्र्ड बैंक के अर्थषास्त्री कौषिक बसु का कहना है कि आम धारणा है कि अगर कोई लाभ कमाना चाहता है तो अच्छी षिक्षा कैसे दे सकता है यह एक गलत तर्क है। स्पश्ट है कि अच्छी खासी फीस के साथ गुणवत्तापूर्ण षिक्षा दी जा सकती है यह भी एक आम धारणा ही है पर देष के निजी विष्वविद्यालय जो मोदी फीस उगाहते हैं वो इस धारणा से काफी दूर खड़े दिखाई देते हैं। मगर सच्चाई यह भी है कि उच्च षिक्षा सरकार के बूते बड़ी नहीं हो सकती। इसमें निजी पहल मानो इसकी अपरिहार्यता हो गयी हो।   


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

No comments:

Post a Comment