Thursday, October 17, 2019

सुशासन की कक्षा में चक्कर लगाती मंदी

आर्थिक बदलाव के इस दौर में दबाव किस पर नहीं है। कृशि, उद्योग और सेवा जिनसे मिलकर देष की अर्थव्यवस्था को गति मिलती हो वे सभी अपने तरीके की दिक्कतों में बीते कुछ वर्शों से कमोबेष कठिनाई के दौर से गुजर रहे हैं। नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े आर्थिक परिवर्तन वाले निर्णय दो-तीन वर्श की यात्रा तय कर चुके हैं बावजूद इसके अर्थव्यवस्था उस राह पर नहीं है जैसा कि भारी सुषासन वाले देष की होती है। खपत में कमी, कमजोर निवेष और सेवा क्षेत्र के लचर प्रदर्षन से भारत की आर्थिक वृद्धि दर और सुस्त होने का अनुमान है। अप्रैल से जून की पहली तिमाही में जीडीपी घट कर 5.7 फीसदी रहने का अनुमान है। गौरतलब है कि इससे पहले की तिमाही अर्थात् जनवरी से मार्च 2019 में विकास दर 5.8 फीसदी थी जो 5 साल का निचला स्तर था। 5 जुलाई को नई सरकार ने लगभग 28 लाख करोड़ रूपए का बजट प्रस्तुत किया जिसमें विकास दर 7 फीसदी रखा गया। अब सवाल यह है कि घट रहे विकास दर से आगामी और बढ़े हुए विकास दर को कैसे प्राप्त किया जायेगा। हाल ही में रिजर्व बैंक ने भी कह दिया कि विकास दर 6.9 फीसदी रहेगी। सवाल फिर उठता है कि मजबूत आर्थिक इरादे वाली मोदी सरकार आर्थिक कसाव और विकास के मामले में गिरे हुआ दर को क्यों नहीं संभाल पा रही है। हालिया स्थिति यह है कि भारत की बिस्किट बनाने वाली अग्रणी कम्पनी पारले लगभग 10 हजार कर्मचारियों की छंटनी करने के कगार पर खड़ी है। जबकि आॅटो सेक्टर में 10 लाख लोगों की नौकरी पर तलवार लटक रही है। कार और बाइक की बिक्री घटने की वजह से पिछले 4 महीने में आॅटो मेकर्स, पार्टस् मैन्यूफैक्चरर्स और डीलर्स में साढ़े तीन लाख से ज्यादा कर्मचारियों की छुट्टी फिलहाल कर दी गयी है। आॅटो इण्डस्ट्री में लगातार 9 महीने से यह गिरावट देखी जा सकती है।
जिस तरह मंदी और गहराने का संकेत दे रही है उससे भविश्य और खतरे में जा सकता है। जब कोई देष अपने को विकसित करना चाहता तो उसके सामने मुख्य रूप से तीन समस्याएं होती हैं। पहला यह कि वह किस वस्तु का उत्पादन करे और किसका न करे। दूसरे विभिन्न प्रयोगों में संसाधनों का आबंटन कैसे करे। तीसरा यह कि उत्पादन की क्रिया किसके द्वारा सम्भव करे मसलन निजी क्षेत्र, सरकारी क्षेत्र या दोनों की सहभागिता से। इन तीनों समस्याओं से निजात पाने के लिए भी तीन रास्ते सुझाये गये हैं। जिसमें बाजार व्यवस्था, नियोजन प्रणाली और मिश्रित आर्थिक प्रणाली षामिल है पर सच्चाई यह है कि बाजार काफी बड़े पैमाने पर चरमरा गये हैं। एक तरफ उत्पादन और बिक्री पर असर पड़ा है तो दूसरी तरफ इसमें खपत होने वाला मानव श्रम बेरोज़गार हो रहा है। जिस तर्ज पर व्यवस्था बदलने की कोषिष की जा रही है उससे संकेत मिलता है कि आने वाले दिनों में आर्थिक विकास का पथ वास्तव में कैसे और कितना चिकना होगा। सरकारी नौकरियां या तो खत्म हो रही हैं या कम की जा रही हैं। उदारीकरण के बाद 8वीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास की थी जो कई समस्याओं से मुक्ति दिलाने के लिए जानी और समझी गयी। अर्थव्यवस्था नई करवट ले रही थी क्योंकि बदलाव भी बड़ा और नया हुआ था पर समय के साथ यहां भी कठिनाईयां व्याप्त रहीं। 10वीं पंचवर्शीय योजना (2002 से 2007) का एक उदाहरण यह है कि आर्थिक जानकारों ने बताया कि यदि सरकारी नौकरियों में प्रति वर्श दो फीसदी की कटौती की जाये तो योजना अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है। जबकि तत्कालीन सरकार ने इसमें केवल डेढ़ फीसदी की कटौती की थी। इसके पीछे कारण यह बताया गया कि बेरोजगारों के साथ और नाइंसाफी नहीं की जा सकती। गौरतलब है कि 24 जुलाई, 1991 को देष में उदारीकरण आया था तभी से भारत में नई आर्थिक अवधारणा ने करवट ली। देष में बहुत बदलाव आये, उतार-चढ़ाव आये, मंदी भी आई और गयी पर आर्थिक नीति कभी बेपटरी नहीं हुई पर जिस तर्ज पर आर्थिक नीतियां अब हांफ रही हैं यदि इस पर समय रहते बेहतर फैसलें नहीं आये तो आर्थिक सुषासन की अवधारणा खटाई में पड़ सकती है।
जब प्रष्न आर्थिक होते हैं तो वे गम्भीर होते हैं ऐसा इसलिए क्योंकि सामाजिक उत्थान और विकास के लिए इस पहलू को सषक्त करना पड़ता है। आॅटो इण्डस्ट्री में मंदी एक बार फिर आर्थिक विकास के लिए बड़ी चुनौती बन गयी है। 20 फीसदी टैक्टर की बिकवाली घटी है लगभग इतना ही ट्रक की भी बिकवाली घटी हुई बतायी जा रही है। कार आदि की भी बिक्री लगातार कम हो रही है। इसके चलते आॅटो पार्ट्स भी नहीं बिक रहे हैं। गौरतलब है कि आॅटो पार्ट्स के क्षेत्र में 50 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है जिसमें से 10 लाख कभी भी नौकरी से बाहर किये जा सकते हैं हालांकि 4 लाख के आसपास घर भेजे जा चुके हैं। अब सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है। इसके पीछे बड़ा कारण नाॅन बैंकिंग फाइनेंषियल कम्पनियां ने लोन देने में जो सख्ती दिखाई है उसे भी माना जा रहा है। इसके चलते खरीदार उनसे कटे हैं। इतना ही नहीं इनका पैसा जो बाजार में फंस गया है उसकी उगाही ठीक से नहीं हो पा रही है। ये कम्पनियां स्वयं घाटे का षिकार है। ईंधन की बढ़ी हुई कीमतें, अन्तर्राश्ट्रीय बाजार में रूपए की कीमत में लगातार गिरावट भी आॅटो इण्डस्ट्री के लिए खतरा रहा है। सड़कों पर भीड़-भाड़ से यात्रा भी बहुत कठिन हुई है ऐसे में कार खरीदने वाले ट्रैफिक समस्या को देखते हुए भी कुछ हद तक इससे मुंह मोड़ रहे हैं। हालांकि यह सुस्ती दुनिया भर में कमोबेष देखी जा सकती है पर भारत में यह लगातार चिंता का सबब बनी हुई है। एषिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था में सुस्ती के चलते कारों से लेकर कपड़ों तक हर उत्पाद की बिक्री घट रही है। सरकार आर्थिक विकास को पटरी पर लाने के लिए एक राहत पैकेज का एलान कर सकती है पर जिस तरह स्थिति चिंताजनक है उससे स्पश्ट है कि कदम भी सषक्त उठाने पड़ेंगे।
एक सच्चाई यह भी है कि रिजर्व बैंक लगातार रेपो दर घटाता रहा लेकिन बैंकों ने अपने ब्याज दर घटाने से गुरेज करते रहे। बैंक का एनपीए जिस कदर बढ़ा हुआ है कि वे अपनी कमाई के चक्कर में खाताधारकों की जेब भी काट ले रहे हैं। भारत में प्रति व्यक्ति आय लगातार बढ़ रही है जबकि बेरोजगारी की गति रूक नहीं रही है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन ने भी जनवरी 2018 में कहा था कि भारत में बेरोजगारी दर आगे के कुछ वर्शों तक परेषानी का सबब रहेगी। सरकार ने मुद्रा योजना के अन्तर्गत ऋण देकर रोजगार के रास्ते खोलने का प्रयास किया है मगर मंदी के इस दौर में यह योजना भी कितनी सफल है अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। मीडिया भले ही अच्छे दिनों के सपने दिखा रहा हो मगर मंदी की चपेट में समूची अर्थव्यवस्था आ रही है। रोज किसी न किसी सेक्टर में मंदी की घोशणा हो रही है। अब तो ऐसा लगता है कि मोदी राज में रोजगार के नहीं बेरोजगारी के विज्ञापन छपेंगे जो 70 सालों में कभी नहीं हुआ। इण्डियन फाउंडेषन आॅफ ट्रांसपोर्ट रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग का मानना है कि गाड़ियों के परिवहन से जुड़ी कम्पनियों ने भी 30 फीसदी नौकरियां गई हैं। बेषक सरकार तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और अन्तर्राश्ट्रीय फलक पर कई अच्छे निर्णयों से देष को और लोगों के हितों को मजबूत किया है पर बढ़े हुए दर से जिसे रोजगार देना चाहिए यदि वही बेरोजगारी को रोक न पा रही हो तो देष आर्थिक संकट में फंस सकता है। सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन छोटी-छोटी बातों से देष बनता है और लोगों का हित संवर्द्धन होता है उसे लेकर जरा मात्र भी उदासीनता उचित नहीं होती है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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