Thursday, October 17, 2019

आज़ादी के ७ दशक पर पारदर्शी राजनीती का आभाव

वर्ष 2019 का स्वतन्त्रता दिवस गिनती में 73वाॅं हैं पर क्या पूरे संतोश से कहा जा सकता हैं कि हाड़-मांस का एक महामानव रूपी महात्मा जो एक युगदृश्टा था जिसने गुलामी की बेड़ियों से भारत को मुक्त कराया क्या उसके सपने को वर्तमान में पूरा पड़ते हुए देखा जा सकता हैं। कमोवेष ही सही पर यह सच हैं कि सपने कुछ अधूरे के साथ कुछ पूरे तो हुए हैं और बचे हुए सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद अभी जारी हैं। सियासी विसात पर लोकतन्त्र का जो बीजारोपण देष के भीतर 1951-52 के बीच पहल चुनाव के साथ किया गया वह भी 17वीं चुनावी यात्रा 2019 तक तय कर चुका हैं। परन्तु एक दुविधा यह रही हैं कि स्वराज का जो संकल्प स्वतन्त्रता संघर्श के दिनो में प्रबल थी क्या वह सभी के हिस्से में आयी। भारत का भाग्य 15 अगस्त 1947 को बदल गया मगर भारत के भीतर रहने वाले सभी के जीवन में पूरा उजाला अभी भी नहीं हुआ हैं। सियासत की परत से भारत बार बार वजनदार होता गया मगर पारदर्षी राजनीति की अपेक्षा मानो आज भी हैं। एक तरफ स्वतन्त्रता दिवस को लेकर लकीर गाढी हो रही हैं तो दूसरी ओर सियासी उलटफेर में सिक्किम नई करवट ले रहा हैं। गौरतलब हैं कि सिक्किम की राजनीति में बीती 13 अगस्त को बडा उलटफेर देखने को मिला जब पूर्व मुख्यमंत्री पवन चामलिंग की पार्टी सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट के दस विधायक भाजपा में षामिल हो गये। अब इस राजनीतिक दांव-पेंच को किस रूप मंे देखा जायें जहां कि भाजपा का एक भी विधायक नहीं हैं वहीं अब 32 विधानसभा वाले सिक्किम में इसकी संख्या 10 हो गयी हैं। सिक्किम विधानसभा चुनाव में खाता भी नहीं खोल पायी बीजेपी एक झटके में जीरो से हीरो बन गयी जाहिर हैं अब वह वहां दूसरे नम्बर की पार्टी हो गयी हैं जो विपक्षी की भूमिका निभायेगी। फिलहाल सिक्किम की राजनीति एक नई सियासी समझ देष की जनता को षायद दे रही हैं। 
अभी कुछ दिनों पहले गोवा और कर्नाटक में भी ऐसे कुछ सियासी पैतरें देखने को मिले जिसमें ना तो दल-बदल हुआ और ना ही कुछ टूटने की आवाज आयी। मगर इसके चलते लोकतन्त्र के प्रति संवेदनषीलता रखने वालों के लिए कुछ चीजे नागवार गुजरी हैं। गौरतलब हैं की कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस गठबन्धन की सरकार का यहां लोप हो चुका हैं और मौजूदा समय में भाजपा सत्ता पर काबिज हैं।  भारत दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देष हैं। राजनीति इस विषालम लोकतांत्रिक देष के लिए जीवटता और पारदर्षिता का परिचायक रही हैं बावजूद इसके यदि सर्वाधिक गिरावट किसी चीज में आयी हैं तो वह राजनीति में ही देखी जा सकती हैं। जहां धनबल, बाहुबल और अपराध का मिश्रण देखा जा सकता हैं। स्वतन्त्रता दिवस  का  73वां साल समाप्त हो रहा हैं और देष की सबसे बड़ी पंचायत संसद मौजूदा समय में भी अपराधियों से मुक्त नहीं हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रथम 3 दषकों तक केन्द्र में एक षक्तिषाली दल का वर्चस्व कायम रहा तथा 1977 तक कांग्रेस की स्पश्ट बहुमत की सरकार बनती रही। जाहिर हैं कि राजनीति में एकाधिकार का बोलबाला था और चुनौती का आभाव। हालांकि यह दौर भी राजनीतिक पारदर्षिता से ओत-प्रोत नही था। 1975 में लागू आपातकाल के परिणाम स्वरूप 1977 के चुनाव में कई राजनीतिक दलों का चुनाव पूर्व गठबन्धन सरकार बनाने में सफल रहा और यही पहला दौर था जब गैर-कांगे्रसी सरकार की देष में स्थापना हुई। इसी को गठबंधन की राजनीति का आरम्भ भी माना गया पर यह टिकाऊ नहीं रहा मगर एक बात तो तय था कि एकाधिकार वाले दल को हराया जा सकता हैं इसका पता चल चुका था। आजादी साल दर साल बूढ़ी होती जा रही थी और राजनीति नई अंगडाई के साथ नये प्रयोगो से दो-चार हो रही थी। 1989 में दूसरी बार गठबन्धन की राजनीति का उदय हुआ और यह सिलसिला 2014 तक चला और इससे मुक्ति तब मिली जब प्रचंड बहुमत के साथ भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में सत्ता हथियाई। मगर इस सवाल का जवाब और गहरा होता गया कि आखिर पारदर्षी राजनीति देष में कितना विस्तार लिये हुये हैं। गौरतलब हैं की 1990 की बाद की राजनीति सत्ता लोभ के चलते कहीं अधिक विकृत रूप ले लिया था।  
मानव सभ्यता को विकास को जिन कारकांे ने प्रभावी किया उनमें भारत की स्वाधीनता भी अछूती नहीं हैं हम इस बात को षायद पूरे मन से अहसास नहीं कर पाते कि स्वतंत्रता दिवस क्या चिन्हित करना चाहता हैं। आषाआंे की  कोख से ही अपेक्षाएं जन्म लेती हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने तो यहां तक कहा कि अगर उपलब्धियों के बारे में बोलूं तो हफ्ते भर लाल किले पर बोलना पडे़गा। यह संदर्भ नीति और नीयत दोनों के लिए अच्छा ही है पर जिन पर अभी कुछ खास नहीं हुआ है उन पर भी बोलने के लिए कुछ कर गुजरना बाकी है। स्वतंत्रता दिवस देष का एक ऐसा महोत्सव है जहां से करोड़ों की तकदीर बदलने वाली कई घोशणायें भी होती हैं। जहां से लोकतांत्रिक नवाचार को सम्बल मिलता है। इतना ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र से जुडे़ उन तमाम आयामों का भी खुलासा होता है जो सरकार की इच्छाओं का पुलिंदा है। नवाचार से लैस कौषल विकास, युवा विकास, सामाजिक न्याय और ग्रामीण विकास व महिला सषक्तिकरण समेत सामाजिक न्याय का प्रतिबिंब भी यहां से झलकता है। अपने पहले स्वतंत्रता दिवस को प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने कई ऐसी घोशणायें की थी जिससे भारत की धरती कई अधिक पुख्ता बन सके। पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था कि ‘हमारे राश्ट्र की आत्मा गांव में बसती है। आज इन्हीं गांव के उत्थान एवं विकास के लिए पंचायती राजव्यवस्था पिछले ढाई दषक से कारगर भूमिका के तौर पर सराही जा रही हैं। स्वतन्त्रता के ऐसे अवसर पर वहां भी ध्यान जाता है जहां षायद इसके पहले गया ही न हो मसलन झुग्गी मुक्त भारत। मौजूदा परिस्थिति में देखा जाय तो लोकतंत्र गाढी लकीर पर दौड़ रहा है मगर उसी के साथ सरपट दौड़ने वाली राजनीति उतनी सफेद नहीं हैं। जाहिर हैं सियासी भंवर में सत्ता की खोज सभी को हैं पर एक संकल्प यह भी दौहराना जरूरी हैं कि जिस प्रकार देष की आजादी के लिए नई-नई क्रान्तियों पर विचार किया गया उसी प्रकार पारदर्षी राजनीति के लिए भी बेहतर चिंतन उत्पादित करना होगा। भले ही कई बातें दल-बदल कानून से बाहर हो पर नैतिकता के दायरे में यदि वह नहीं हैं तो उससे बचना राजनीतिक दल उसे अपना धर्म समझें। हालंकि राजनीति का चष्मा अलग होता हैं इसलिए उसकी दृश्टि किसी भी तरह सत्ता मिले उसी पर टिकी रहती हैं।  
 राजनीतिक दलों का नैतिक पतन को देखते हुए 1985 में दल-बदल कानून आया और 2003 में इसमें व्यापक संषोधन करते हुये इसे और षक्तिषाली बनाया गया मगर अभी भी कसर बाकी हैं। देष की षीर्श अदालत भी राजनीति में अपराध को लेकर चिन्ता प्रकट करते हुए विधायिका को यह कानून बनाने की सलाह दी थी। गौरतलब हैं कि राजनीति दलों को यह हिदायत दी गई हैं कि टिकट देते समय उम्मीदवारों की पूरी छानबीन करें और इससे जनता को भी अवगत करायें। 15 अगस्त कोई मामूली दिन नहीं हैं यह 200 वर्शो के संघर्श के बाद मिली एक ऐसी आजादी का दिन हैं जिसके लिए अकूत संघर्श किये गये हैं। खास यह भी हैं कि इसी दिन दक्षिण कोरिया, बहरीन और कांगो भी अपनी स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। प्रत्येक स्वतत्रता दिवस का अपना एक संदेष हैं जैसे की स्वाधीनता संघर्श के दिनों में हर आन्दोलन एक नई ताकत से भरा था। देष स्वधीनता के 73 साल पूरे कर रहा हैं, मजबूत लोकतंत्र के साथ आगे बढ़ रहा हैं ऐसे में यदि पारदर्षी राजनीति जिसका देष में आभाव हैं यदि प्रभाव में बदल जाती तो आजादी के मायने भी और बदले हुए दिखायी देंगे।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज ऑफिस  के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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