Monday, October 15, 2018

जलवायु परिवर्तन चुनौतियाँ और भी हैं

स्पष्ट शब्दों में कहा जाय तो ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की कितनी बड़ी समस्या है यह बात आम आदमी समझ नहीं पा रहा है और जो खास हैं और इसे जानते समझते हैं वो भी कुछ खास कर नहीं पा रहे हैं। साल 1987 से पता चला की आकाष में छेद है इसी वर्श मान्ट्रियाल प्रोटोकाॅल इस छिद्र को घटाने की दिषा में प्रकट हुआ पर हाल तो यह है कि चीन द्वारा प्रतिबंधित क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का व्यापक और अवैध प्रयोग के चलते मान्ट्रियाल प्रोटोकाॅल कमजोर ही बना रहा। जाहिर है ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने में इसकी बड़ी भूमिका है। गौरतलब है कि यूके स्थित एक एनजीओ एन्वायरमेंटल इन्वेस्टीगेषन एजेन्सी की एक जांच में पाया गया कि चीनी फोम विनिर्माण कम्पनियां अभी भी प्रतिबंधित सीएफसी-।। का उपयोग करती हैं। साल 2000 में अधिकतम स्तर पर पहुंच चुका ओजोन परत में छिद्र कुछ हद तक कम होता प्रतीत हो रहा है। पड़ताल बताती है कि 1987 में यह छिद्र 22 मिलियन वर्ग किलोमीटर था जो 1997 में 25 मिलियन किलोमीटर से अधिक हो गया। वहीं 2007 में इसमें आंषिक परिवर्तन आया। फिलहाल 2017 तक यह 19 मिलियन वर्ग किलोमीटर पर आ चुका है। ओजोन परत के इस परिवर्तन ने कई समस्याओं को तो पैदा किया ही है। विज्ञान की दुनिया में यह चर्चा आम है कि ग्लोबल वार्मिंग को लेकर यदि भविश्यवाणी सही हुई तो 21वीं षताब्दी का यह सबसे बड़ा खतरा होगा जो तृतीय विष्वयुद्ध या किसी क्षुद्रग्रह का पृथ्वी से टकराने से भी बड़ा माना जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते होने वाले जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैस है। अगर इन गैसों का अस्तित्व मानक सूचकांक तक ही रहता है तो पृथ्वी का वर्तमान में तापमान काफी कम होता पर ऐसा नहीं है। इस गैस में सबसे ज्यादा कार्बन डाई आॅक्साइड महत्वपूर्ण है जिसकी मात्रा लगातार बढ़ रही है और जीवन पर यह भारी पड़ रही है। 
बीते मई-जून में भारत के मैदानी इलाके ही नहीं बल्कि पहाड़ी राज्यों में पृथ्वी का तापमान अनुमान से कहीं अधिक था। मध्य प्रदेष और राजस्थान कहीं अधिक तप रहा था। खजुराहो का तापमान 47 डिग्री से ऊपर जबकि राजस्थान में यह अर्द्धषतक के इर्द-गिर्द था। पहाड़ी राज्य हिमाचल के उना में 43 डिग्री के ऊपर तापमान गया जबकि जम्मू क्षेत्र गरमी से झुलस गया था। दिल्ली में लू चल रही थी। इसी तरह भारत के तमाम क्षेत्रों में गर्मी का प्रकोप बढ़ा हुआ था। आॅस्ट्रेलिया में तापमान 80 साल के रिकाॅर्ड को पार कर गया था। दक्षिण यूरोप में भी गर्मी पहले की तुलना में बढ़ी हुई दिखने लगी। साफ संकेत है कि जलवायु परिवर्तन बेकाबू तरीके से जारी है। अब यह आषंका भी बन रही है कि जिस तर्ज पर पृथ्वी रूपांतरित हो रही उसे बचाने का कोई उपाय मानव का कारगर होगा भी या नहीं। संयुक्त राश्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने दक्षिण एवं एषियाई देषों में सरकारों से ग्लोबल वार्मिंग और इसके अभियान का नेतृत्व करने की अपील की। गौर तलब है कि संयुक्त राश्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार गुटेरेस बीते 11 अक्टूबर को इण्डोनोषिया की राजधानी बाली में आसियान की बैठक को सम्बोधित कर रहे थे। म्यांमार, फिलिपींस, थाईलैण्ड और वियतनाम इण्डोनेषिया के सुलावेसी द्वीप में आये भूकम्प के चलते पनपी सुनामी से कहीं अधिक प्रभावित हुए हैं। गुटेरेस ने एक बार फिर पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को लेकर संयुक्त राश्ट्र के एक्षन प्लान की वचनबद्धता को दोहराया। उन्होंने अन्तर्राश्ट्रीय जलवायु परिवर्तन पैनल आईपीसीसी की रिपोर्ट का भी हवाला दिया। गौरतलब है कि ग्लेाबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक नियंत्रित रखने में विफल रहने पर विष्व में इसके होने वाले विनाषकारी परिणामों का इस रिपोर्ट में पेषगी है। कहा यह भी जा रहा है कि 2030 तक जलवायु परिवर्तन पर रोक लगाने के लिए कई महत्वाकांक्षी कदम उठाने होंगे। जमीन, ऊर्जा, उद्योग, भवन, परिवहन और षहरों में 2030 तक उत्सर्जन का स्तर आधा करने और 2050 तक षून्य करना जो स्वयं में एक चुनौती है। 
ग्लोबल वार्मिंग रोकने का फिलहाल बड़ा इलाज किसके पास है कह पाना मुष्किल है। जिस तरह दुनिया गर्मी की चपेट में आ रही है और इसी दुनिया के तमाम देष संरक्षणवाद को महत्व देने में लगे हैं उससे भी साफ है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौती निकट भविश्य में कम नहीं होने वाली। पृथ्वी को सही मायने में बदलना होगा और ऐसा हरियाली से सम्भव है पर कई देष में हरियाली न तो है और न ही इसके प्रति कोई बड़ा झुकाव दिखा रहे हैं। पेड़-पौधे बदलते पर्यावरण के हिसाब से स्वयं को ढ़ालने में जुट गये हैं। वह दिन दूर नहीं कि ऐसी ही कोषिष अब मानव को करनी होगी। मेसोजोइक युग में पृथ्वी का सबसे बड़ा जीव डायनासोर जलवायु परिवर्तन का ही षिकार हुआ था। ऐसा भी माना जा रहा है कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की वजह से रेगिस्तान में गर्मी बढ़ेगी जबकि मैदानी इलाकों में इतनी प्रचण्ड गर्मी होगी जितना की इतिहास में नहीं रहा होगा। यदि साल 2030 तक पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस यानी अनुमान से आधा डिग्री अधिक होता है तो थाइलैण्ड, फिलिपींस, इण्डोनेषिया, सिंगापुर, मालदीव तथा मेडागास्कर व माॅरिषस समेत कितने द्वीप व प्रायद्वीप पानी से लबालब हो जायेंगे। ऐसे में क्या करें, पहला प्रकृति को नाराज़ करना बंद करें, दूसरा प्रकृति के साथ उतना ही छेड़छाड़ करें जितना मानव सभ्यता बचे रहने की सम्भावना हो। उश्णकटिबंधीय रेगिस्तानों में विभिन्न क्षेत्रों द्वारा ग्रीन हाउस गैसों का विवरण देख कर तो यही लगता है कि पृथ्वी को विध्वंस करने में हमारी ही भूमिका है। पड़ताल से पता चलता है कि पावर स्टेषन 21.3 प्रतिषत, इंडस्ट्री से 16.8, यातायात व गाड़ियों से 14, खेती किसानों के उत्पादों से 12.5, जीवाष्म ईंधन के इस्तेमाल से 11.3, बायोमास जलाने से 10 प्रतिषत समेत कचरा जलाने आदि से 3.4 फीसीदी ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन होता है। ये सभी धीरे-धीरे इस मृत्यु का काल बन रही है। 
दुनिया भर की राजनीतिक षक्तियां बड़े-बड़े मंचों से बहस में उलझी हैं कि गर्म हो रही धरती के लिए कौन जिम्मेदारी है। कई राश्ट्र यह मानते हैं कि उनकी वजह से ग्लोबल वार्मिंग नहीं हो रही है। अमेरिका जैसे देष पेरिस जलवायु संधि से हट जाते हैं, दुनिया में सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन के लिए जाने जाते हैं और जब बात इसकी कटौती की आती है तो भारत जैसे देषों पर यह थोपा जाता है। चीन भी इस मामले में कम दोशी नहीं है वह भी चोरी-छिपे ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाली क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का उत्सर्जन अभी भी रोकने में नाकाम रहा। ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज्यादातर अमीर देष जिम्मेदार हैं। जहरीली गैंसों का उत्सर्जन करने वालों की सूची में चीन, ब्राजील जैसे देष भी षामिल होते जा रहे हैं जो अपनी आबादी को गरीबी से निकालने के लिए कोयला, तेल और गैस का व्यापक इस्तेमाल कर रहे हैं। समुद्र में बसे छोटे देष का अस्तित्व खतरे में है यदि वर्तमान उत्सर्जन जारी रहता है तो दुनिया का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ जायेगा, ऐसे में तबाही तय है। सभी जानते हैं बदलाव हो रहा है। दुनिया में कई हिस्से में बिछी बर्फ की चादरे भविश्य में पिघल जायेंगी, समुद्र का जल स्तर बढ़ जायेगा और षायद देर-सवेर अस्तित्व भी मिट जायेगा। ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति को देखते हुए साल 2015 तक संयुक्त राश्ट्र संघ के सदस्यों ने नई जलवायु संधि कराने के लिए बातचीत षुरू की जिसे 2020 तक लागू कर दिया जायेगा। गर्मी के कारण जो भी हों समस्याएं अनेकों हैं और इससे जुड़ी चुनौती भी इतनी ही नहीं और भी हैं। कृशि, वन, पर्यावरण और बारिष समेत जाड़ा और गर्मी को उथल-पुथल में जाने से रोकने के लिए इन चुनौतियों से दो-चार होना ही पड़ेगा।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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