Thursday, February 1, 2018

सुशासन से अछूते कृषि और किसान

एक फरवरी को देश का बजट देश होगा। सम्भव है कि सुशासन  की पाठशाला से युक्त मोदी सरकार कृषि  और किसान की समृद्धि को लेकर बड़ा दिल दिखाएगी। आज से लगभग दो साल पहले जब 2016 में बजट पेष करते हुए वित्त मंत्री अरूण जेटली ने यह कहा था कि मैं किसानों के प्रति आभारी हूं कि वे हमारे देष की खाद्य सुरक्षा की रीढ़ है तब यह आषा जगी थी कि सरकार किसानों के मामले में दो कदम आगे रहेगी पर रेडियो में मन की बात से लेकर किसानों के मन जीतने तक की सारी कवायद के बावजूद हालात बेपटरी बनी हुए हैं। वित्त मंत्री ने यह भी कहा था कि किसानों को आय सुरक्षा देनी होगी। गौरतलब है कि कृशि और कृशि कल्याण के लिए उन दिनों लगभग 36 हजार करोड़ रूपए आबंटित किये गये थे और तब यह बात काफी प्रभावषाली रही कि सरकार का झुकाव खेती-किसानी और कृशिउन्मुख हुई है पर लगातार आत्महत्या की आती खबरे इस यकीन को भी नुकसान पहुंचाने का काम किया। कृशि, उद्योग और सेवा क्षेत्र को देखें तो आर्थिक विकास दर को लेकर इनमें व्यापक अंतर है और सबसे खराब विकास दर वाली कृशि में देष की आधी आबादी फंसी है। कृशि विकास के मामले में पिछले 70 सालों से पूरा प्रयास जारी है परन्तु किसानों की किस्मत मानो टस से मस होने का नाम नहीं ले रही। प्रत्येक सेक्टर के विकास के अपने माॅडल होते हैं। जाहिर है कृशि को जब तक वाजिब माॅडल नहीं मिलेगा तब तक यह कराहती रहेगी बेषक इस पर करोड़ों क्यों न लुटा दिये जाय। सुषासन की भी यही राय है कि ऐसा न्याय जो समय से हो, सार्थक हो और समुचित के साथ बार-बार हो। कृशि और किसानों के मामले में ये तमाम न्याय अधूरे ही सिद्ध हुए हैं। यदि सरकार को एक सामाजिक कार्यकत्र्ता के प्रारूप में भी ढ़ाल के देखें तो यहां भी मान्य परिभाशा यही कहती है कि कृशि और किसान की ऐसी मदद की जाय कि वे अपनी सहायता स्वयं करने लायक बन सके।
पिछले साल 15 अगस्त को लाल किले से देष को सम्बोधन करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों की जिन्दगी बदलने के लिए जिस रास्ते का उल्लेख किया वह कृशि संसाधनों से ताल्लुक रखता है जिसमें उत्तम बीज, पानी, बिजली की बेहतर उपलब्धता के साथ बाजार व्यवस्था को दुरूस्त करना षामिल है। देखा जाय तो तकरीबन इसी प्रकार के आष्वासन किसानों को पिछले सात दषकों से मिलता रहा है पर जमीनी हकीकत इससे अलग होने के चलते विकास का वह चित्र इनके हिस्से नहीं आया जिसकी ताक में ये आज भी हैं। आजादी से लेकर अब तक कृशि के मामले में पहली पंचवर्शीय योजना (1952-57) को छोड़ दिया जाय तो इतनी बड़ी आबादी वाले क्षेत्र को बजट से ही कल्याण आबंटित किया जाता रहा। देष में बनने वाली कृशि नीतियां भी इनकी बदकिस्मती को नहीं बदल पायी। गौरतलब है कि जहां आजादी के वक्त 80 प्रतिषत से अधिक लोग कृशि क्षेत्र में लगे थे जो मौजूदा समय में 57 फीसदी हैं और इनमें भी आधे से अधिक वे लोग हैं जो मजबूरन दूसरा विकल्प न होने के चलते किसानी कर रहे हैं। गरीबी मिटाने के नाम पर उपाय कई आये पर किसान, गांव और कृशि में बदलाव कमजोर बना रहा नतीजन अन्नदाताओं ने लाखों की तादाद में आत्महत्या कर ली। वर्श 2004-05 से अब तक देष में महज डेढ़ करोड़ रोजगार का सृजन हुआ जबकि इस दौरान 16 करोड़ रोजगार के अवसर पैदा होने चाहिए थे। कृशि के क्षेत्र में तो इसकी हालत सबसे ज्यादा खराब है। सबका साथ, सबका विकास नारा अच्छा है पर सुषासन से यह भी अछूता है। किसानों के मामले में यह ष्लोगन चिढ़ाने वाला ही सिद्ध हुआ है।
अर्थषास्त्रियों का मानना है कि कृशि क्षेत्र में लगे करोड़ों लोगों की आय में यदि इजाफा हो जाय तो किसान और कृशि दोनों की दषा बदल सकती है। मौजूदा सरकार वर्श 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात कह रही है पर यह नहीं पता कि पहले कितनी थी। हैरान करने वाली बात यह है कि 70 वर्शों के बाद भी किसान की औसत आय 20 हजार रूपये आंकी गयी जो 1700 रूपये प्रति माह से भी कम बैठती है। इतने कम पैसे में परिवार का भरण-पोशण करना कैसे सम्भव है। इसके अलावा कर्ज की अदायगी भी करनी है, बच्चों को भी पढ़ाना है और विवाह-षादी के खर्च भी उठाने हैं। इन्हीं तमाम विवषताओं के चलते आत्महत्या को भी बल मिला है। अब सवाल है कि दोश किसका है किसान का या फिर षासन का। राजनीतिक तबका किसानों से वोट ऐंठने में लगी रही जबकि विकास देने के मामले में सभी फिसड्डी सिद्ध हुए हैं। कौन सी तकनीक अपनाई जाय कि किसानों का भला हो। खाद, पानी, बिजली और बीज ये खेती के चार आधार हैं। अभी किसानों का श्रम इससे अछूता है। यदि इसे जोड़ दिया जाय तो मुट्ठी भर अनाज की कीमत कई गुना हो जायगी। इन दिनों स्वदेषी खेती पर जोर है। जैविक खेती को अपनाकर अच्छे मुनाफे की बात हो रही है जिसे देखते हुए देष का एक मात्र जैविक राज्य सिक्किम एक माॅडल के रूप में उभरा है। गौरतलब है कि रासायनिक खेती से छुटकारा भी चाहिए और मुनाफा भी जो सरकार के बिना बेहतर सुषासन के सम्भव ही नहीं है।
अभी तक किसानों के कल्याण के जो वायदे, योजनायें और राहते दी जाती रही वे काफी कुछ वोट बैंक के नजरिये से ही रहा है। देष के नीति आयोग ने खुलकर पहली बार कहा कि कृशि में निवेष करने से देष की गरीबी दूर करने में मदद मिल सकती है और गांव से षहरों की ओर पलायन पर भी लगाम लग सकती है। सवाल दो हैं पहला यह कि क्या वाकई में सरकार कृशि और किसान को सषक्त बनाने की ईमानदार इच्छा रखती है दूसरा क्या किसान कभी दो कदम आगे की जिन्दगी का लुत्फ ले पायेगे। सरकार की कोषिषें बेषक ईमानदारी से भरी हों पर हकीकत जो दिखता है उसे लेकर मन पूरी तरह इसके लिए तैयार नहीं है। जहां तक सवाल किसानों के सुलझी जिन्दगी का है जब तक कृशि उद्यम का दर्जा नहीं प्राप्त कर पायेगी तब तक तो षायद मामला कोरा ही रहेगा। दुनिया भर में कृशि क्षेत्र में निवेष को गुणात्मक बनाने का प्रयास जारी है और यह भी मान्यता मुखर हुई है कि इसके बगैर गरीबी मिटाना सम्भव नहीं है। दो टूक यह भी है कि भारत में प्रत्येक सरकारों ने कृशि और किसानों की उन्नति को लेकर बेषक समय-समय पर कदम उठाये हैं परन्तु मूल समस्याओं और विसंगतियों पर षायद ही करारी चोट की हो। 70 के दषक में हरित क्रान्ति किसानों की किस्मत पलटने की एक कोषिष थी पर यह भी सीमित ही रही। 21वीं सदी के इस दूसरे दषक में मौजूदा अर्थव्यवस्था सभी के लिए फायदेमंद है परन्तु किसानी की हालत देखकर लगता है कि 1991 का उदारीकरण और 1992 का समावेषी विकास वाली आठवीं पंचवर्शीय योजना का पूरा लाभ इन्हें नहीं मिला है। मेक इन इण्डिया, स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया तथा क्लीन इण्डिया समेत न्यू इण्डिया का परिमाप भारत में परोसा जा चुका है। षहरों को भी स्मार्ट बनाने की कवायद चल रही है पर सवाल वही है कि गांव में रची-बसी कृशि और किसान की किस्मत कब नई करवट लेगी और कब ये भी स्मार्ट हो सकेंगे।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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