Wednesday, January 10, 2018

मुंह चिढ़ाती शिक्षा व्यवस्था

सच तो यह है कि सूचना, संचार और तकनीकी में क्रान्ति ने उच्चत्तर षिक्षा के स्वरूप को ही बदल दिया है। इसमें ताज्जुब नहीं कि बदलाव के चलते षिक्षा की कीमत भी बदल गयी जिसका असर अब साफ-साफ दिख रहा है। ज्ञान संचालित अर्थव्यवस्था और सीखने के समाज में उच्चत्तर षिक्षा अति महत्वपूर्ण है पर प्रष्न यह है कि सिर्फ डिग्री के लिए या फिर ज्ञानवर्धन के लिए भी। कुछ झकझोरने वाले तथ्य सामने आये हैं जो इस बात को पुख्ता करते हैं कि इस तरह के बदलाव के लिए न तो मन तैयार था और न ही देष। देष में उच्चतर षिक्षा ग्रहण करने वालों की तादाद दिनों दिन बढ़ रही है लेकिन परम्परागत पाठ्यक्रम आज भी बदलती और चमकती पीढ़ी पर हावी है जो कहीं से गलत नहीं है पर स्नातक से आगे की षिक्षा जिस कदर दीन-हीन होती जा रही है वह चिंता की लकीर को बढ़ा सकती है। एक ताजे सर्वेक्षण कला में स्नातक अर्थात् बीए को लेकर सवाल खड़े करने वाला है। रोज़गार के हिसाब से इससे जुड़े पाठ्यक्रम की एहमियत तेजी से गिरी है इस पर सभी सहमत होंगे। बावजूद इसके आज भी इस स्ट्रीम में छात्रों की संख्या दूसरों की तुलना में सर्वाधिक मिल जायेगी। उच्च षिक्षा में आये सरकार के ताजे आंकड़े इस बात को तस्तीक करते हैं कि युवाओं को समाज में स्नातक की हैसियत हासिल करनी होती है जबकि पढ़ाई को लेकर असंवेदनषीलता बढ़ी है। सर्वेक्षण के मुताबिक 1 करोड़ 7 लाख छात्रों ने पिछले साल बीए में प्रवेष लिया। उच्च ष्क्षिा की रिपार्ट को देखें तो कुल साढ़े तीन करोड़ छात्र-छात्राओं ने वर्श 2016-17 के सत्र में नामांकन कराया जिसमें 80 फीसदी स्नातक से सम्बंधित हैं और इसमें भी 38 फीसदी कला स्नातक से जुड़े विद्यार्थी हैं। जाहिर है परम्परागत डिग्री की परम्परा अभी भी काफी मात्रा में आकर्शण लिये हुए है पर यह सिक्के का एक पहलू है। दूसरा परिप्रेक्ष्य यह है कि इस डिग्री का महत्व केवल समाज में दर्जा हासिल करने मात्र से है जबकि काॅलेज एवं विष्वविद्यालयों में उपस्थिति एवं पढ़ाई चिंतनीय मानी जा रही है।
भारत एक समावेषी विकास वाला देष है यहां बुनियादी समस्याओं का अम्बार लगा हुआ है। ऊपर से एक षहरी तो दूसरा ग्रामीण भारत भी यहां दो मानचित्र बना रहा है। दोनों के विकास और षिक्षा के हाल दो रूप लिये हुए है। षहरों में षिक्षा के बड़े-बड़े संस्थान तो गांवों में डिग्रियों में तो समानता पर वातावरण में जमीन-आसमान का अंतर है। देष में उच्च षिक्षा का आलम यह है कि लगभग तीन करोड़ छात्र स्नातक में प्रवेष लेते हैं जिसमें बामुष्किल 40 लाख के आसपास ही परास्नातक में नामांकन कराते हैं। आंकड़े साफ-साफ बता रहे हैं कि कुल संख्या के 11 फीसदी ही पोस्ट ग्रेजुएषन में दाखिला लेते हैं। पीएचडी को लेकर स्थिति और भी नाजुक है। कुल पोस्ट ग्रेजुएट छात्र का 0.4 फीसदी ही छात्र पीएचडी में प्रवेष लेते हैं। आंकड़े इस बात की तस्तीक कर रहे हैं कि मानव विकास संसाधन के मामले में षिक्षा, दीक्षा और डिग्री जिसे रामबाण करार दिया जाता है काफी मुष्किल दौर से गुजर रही है। उक्त से तो यही प्रतीत होता है कि देष के युवाओं को षिक्षा से पहले रोजगार चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो षिक्षा के बाद तो हर हाल में चाहिए। ताज्जुब इस बात की है कि अधूरी षिक्षा में ऐषो आराम से भरी पूरी नौकरी खोजी जाती है। जबकि ऋग्वेद में भी इस बात का उल्लेख है कि 25 वर्श तक की उम्र षिक्षा के लिए है। हालांकि बदले दौर के मुताबिक एक सीमा के बाद युवाओं को दोशी नहीं ठहराया जा सकता। देष में षिक्षा के पूरे संदर्भों को टटोलें तो पता चलता है कि 19 करोड़ छात्र प्राथमिक षिखा यानी पहली से आठवीं तक जबकि 6 करोड़ विद्यार्थी 9वी से 12वीं तक की षिक्षा में संलग्न हैं और यहीं से घटते क्रम में कारवां आगे बढ़ता हुआ स्नातक से लेकर पीएचडी तक पहुंचता है। 
षिक्षा में पिछड़ रहे या कम हो रहे या फिर ज्ञानवर्धन का पूरा परिप्रेक्ष्य न होने की चिंता भारत में है। जबकि संविधान में षिक्षा से सम्बंधित संदर्भ भी हैं। हालांकि संविधान इस मामले में बहुत स्पश्ट नहीं है सिवाय इसके कि अनुच्छेद 21ए में षिक्षा का अधिकार है और नीति निर्देषक तत्व के अन्तर्गत अनुच्छेद 45 में सरकार का यह कत्र्तव्य है कि निःषुल्क षिक्षा की व्यवस्था करे। इसी क्रम में मौलिक कत्र्तव्य के अधीन अनुच्छेद 51क में 11वें और अन्तिम कत्र्तव्य के अधीन अभिभावक को अनिवार्य रूप से बच्चों की षिक्षा का निर्देष संदर्भित किया गया। एक सुकून भरी बात यह भी है कि देष में बारहवीं तक की षिक्षा को अनिवार्य किये जाने की बात कही जा रही है सम्भव है कि कुछ धरातल पर उतरेगा तो साईड इफैक्ट भी दिखेगा। दुनिया भर के पढ़े-लिखे और पेषेवर लोगों की जमात में भारत का षैक्षणिक वातावरण तुलनात्मक बहुत बेहतर नहीं माना जाता। बहुतायत में देष के स्कूल, काॅलेज और विष्वविद्यालयों में षिक्षा की आधारभूत संरचना कमजोर है। षिक्षकों की व्यापक कमी है और पेषेवर पाठ्यक्रमों पर अधिक जोर है। आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग 18 फीसदी विज्ञान स्नातक जबकि 15 फीसदी के आसपास इंजीनियरिंग करने वाले छात्र देष में है। लगभग इतने ही 14.1 फीसदी के साथ वाणिज्य से जुड़े छात्रों को देखा जा सकता है परन्तु उच्चतर षिक्षा के क्षेत्र में सभी स्ट्रीम से औसतन व्यापक गिरावट देखी जा सकती है। एक अच्छी बात यह कही जाती है कि पष्चिमी देष इसलिए आगे है क्योंकि उनका षिक्षा और षोध बेहतर है फलस्वरूप तकनीक बेहतर है अन्ततः पूरा जीवन ही बेहतर है। इसी तर्ज पर भारत में षिक्षा और षोध इसलिए कमजोर है क्योंकि पढ़ाई डिग्री के लिए है न कि ज्ञानवर्धन के लिए और रही सही कसर यहां के आधारभूत ढांचे की खामियां और कैम्पस में असुविधाएं पूरी कर देती हैं। अब इस बात पर गौर किया जाय कि देष में मात्र 2.6 फीसदी कालेजों में ही पीएचडी कराने की सुविधा है जबकि 37 फीसदी काॅलेज ही पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई करवाते हैं इनमें कई मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं। 
वैसे पढ़े-लिखे और पेषेवर लोगों की जमात में अमेरिकी वर्चस्व भी घट रहा है कोरिया और चीन जैसे देष इस जमात में अपना हिस्सा बढ़ा रहे हैं। जर्मनी की हिस्सेदारी भी इस मामले में घटी है। उभरते देष में उच्च षिक्षा के साथ औद्योगिक और वैज्ञानिक उभार भी खूब हो रहा है। उभरती अर्थव्यवस्थाओं में जिस रफ्तार से उच्च षिक्षा पाने वालों की तादाद बढ़ रही है उसके मुकाबले में अमेरिकी छात्रों की संख्या कम है। ओईसीडी की रिपोर्ट कहती है कि 34 उभरती और विकसित अर्थव्यवस्थाओं वाले देषों में यह पता चला है कि अमेरिकी छात्र दक्षिण कोरिया, फिनलैण्ड और चीन के छात्रों से पीछे हैं। स्थिति को देखते हुए अमेरिका षिक्षा व्यवस्था में सुधार की दिषा में एक बार फिर तेजी से कदम बढ़ा दिया है। लाख टके का सवाल यह है कि चीन यदि आगे है तो भारत का पीछे रहना इसलिए सही नहीं क्योंकि 65 फीसदी युवाओं वाले देष में एजूकेषन और स्किल से यदि सरोकार नहीं होगा तो न केवल षैक्षणिक पिछड़ापन देष में व्याप्त होगा बल्कि आर्थिक चुनौती भी बढ़ जायेगी। भारत की बदहाल षिक्षा व्यवस्था किसी से छुपी नहीं है पर इसी देष से जब प्रतिभा पलायन करती है तो रोषनी दूसरे देषों में हो जाती है। डाॅक्टर्स, इंजीनियर्स और वैज्ञानिक अमेरिका समेत कई देषों में इसे पुख्ता कर चुके हैं। फिलहाल तमाम परिप्रेक्ष्य को देखते हुए कहना लाज़मी है कि भारत की मुंह चिढ़ाती षिक्षा व्यवस्था को व्यावसायीकरण तथा रोजगारपरक् समेत ज्ञानपरक् बनाने की चुनौती सामने है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल:sushilksingh589@gmail.com

No comments:

Post a Comment