Wednesday, January 10, 2018

समावेशी भारत में जीएसटी

गरीबी सामाजिक अभिषाप है तो समोवषी विकास गरीबी से मुक्ति का उपाय। जिसे लेकर 90 के दषक से प्रयास जारी है। वैसे गरीबी उन्मूलन की अवधारणा पांचवीं पंचवर्शीय योजना से चलायमान है बावजूद इसके मौजूदा भारत में हर चैथा व्यक्ति इसमें सूचीबद्ध है। समावेषी विकास में जनसंख्या के सभी तबकों के लिए बुनियादी सुविधायें मसलन रोज़गार, षिक्षा, स्वास्थ, भोजन, पेयजल, आवास, कौषल विकास और गरिमामय जीवन आदि से सुसज्जित की बात रही है पर वक्त के साथ जिस अनुपात में समस्याएं बढ़ी हैं हल वैसा प्रतीत नहीं होता। वर्श 1989 की लकड़ावाला समिति की रिपोर्ट को देखें तब गरीबी 36.1 फीसदी हुआ करती थी। हालांकि विष्व बैंक की दृश्टि से यह 48 फीसदी थी। बाद में इसका अनुपात 26.1 फीसदी हुआ पर बीते कुछ वर्शों से इसे 21 फीसदी से थोड़े अधिक माना जा रहा है। जब साल 1992 में 8वीं पंचवर्शीय योजना समावेषी विकास से ओतप्रोत भारत में कदमताल करना प्रारम्भ किया था तब यह उम्मीद जगी थी कि आने वाले समय में बहुत कुछ बदलेगा। कम से कम रोज़गार और गरीबी के मामले में स्थिति बड़े सुधार की ओर होगी पर आंकड़े संतोशजनक नहीं कहे जा सकते। उदारीकरण का दौर भी इसी के समनांतर था जो भारत में उस दौर का सबसे बड़ा आर्थिक परिवर्तन था। जाहिर है इससे आगे की दषा और दिषा बढ़त के साथ तय होनी थी और ऐसा हुआ भी। देष में निजीकरण, षहरीकरण, पष्चिमीकरण और निगमीकरण की बाढ़ आयी। उद्योगों में भी बढ़ोत्तरी हुई साथ ही सेवा क्षेत्र भी चैड़ा हुआ परन्तु इसी दौर में ग्रामीण भारत और कृशि जो भारत का प्राथमिक क्षेत्र है उसकी बदहाली बादस्तूर जारी रही। गौरतलब है कि एक तरफ समावेषी विकास और उदारीकरण की दौड़ थी तो दूसरी तरफ महाराश्ट्र में पटसन की खेती करने वाले विदर्भ के किसान आर्थिक तंगी के चलते जीवन से तौबा कर रहे थे। भारत में यह बड़ी विडम्बना है कि बड़े विकास के दावों के बीच छोटे किसान भूख और बदहाली से दुनिया छोड़ने पर मजबूर हुए हैं और यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है। आंकड़े भी इस बात का समर्थन करते हैं कि पूरे भारत में आत्महत्या करने वाले अन्नदाताओं की संख्या तीन लाख से ऊपर जा चुकी है।
समय के साथ समावेषी विकास की धारा और विचारधारा भी परिमार्जित हुई है। सुगम्य भारत अभियान, अल्पसंख्यकों के हितों की चिंता, महिला सषक्तिकरण तथा उन्नत कौषल एवं प्रषिक्षण विकास से सुसज्जित होने के लिए कई सामाजिक-आर्थिक कृत्य वर्तमान सरकार द्वारा किये जा रहे हैं। पुराने भारत को न्यू इण्डिया में तब्दील किया जा रहा है और षहरों को स्मार्ट भी बनाया जा रहा है। उद्योग जगत को कर में काफी राहत भी दी गयी है। कर और बैंकिंग सैक्टर को सुधारा जा रहा है। इसी सुधार का बड़ा प्रारूप 1 जुलाई, 2017 से लागू जीएसटी अर्थात् गुड्स एवं सर्विसेज़ टैक्स है। समावेषी विकास की मांग और जरूरी आय के बीच इसके पहले 8 नवम्बर, 2016 को हजार और पांच सौ के पुराने नोट को बंद कर काले धन पर घात करने की कवायद भी की जा चुकी है। देखा जाय तो भारत की दो तस्वीरें हैं एक षहरी तो दूसरी ग्रामीण जिसे लेकर प्रधानमंत्री मोदी अपनी संजीदगी दिखा रहे हैं और आधारभूत ढांचा सुधारने की फिराक में बड़ा आर्थिक जोखिम ले रहे हैं। 1991 को जब उदारीकरण पर तत्कालीन सरकार ने कदम उठाया था तब भी इसे बड़ा जोखिम करार दिया गया था और अब भी इसे यही कहा जा रहा है। सरकारें भी सत्ता की चाह में देष की उन्नति और विकास के मार्ग बदलती रही हैं। कभी इनके निर्णय जनजीवन में ठण्डक पहुंचाते हैं तो कभी इन्हीं से आंच आने लगती है। जीएसटी अर्थात् गुड्स एवं सर्विसेज टैक्स को लेकर अभी भी उहापोह का दौर रहता है इस सवाल के साथ कि समावेषी विकास में क्या यह मददगार होगा। वर्श 2017 नोटबंदी और जीएसटी के प्रभावषीलता के बीच उथल-पुथल में रहा। जब से जीएसटी लागू है संचित निधि में अप्रत्यक्ष कर की बाढ़ आयी है परन्तु करदाताओं में बेचैनी भी बढ़ी है। हालांकि इस पर सफाई आती रही है कि आने वाले दिनों में सब ठीक हो जायेगा पर ठीक तभी कहा जायेगा जब समावेषी विकास में जीएसटी पूरक सिद्ध होगा। 
जीएसटी में षामिल केन्द्र सरकार के कर जहां केन्द्रीय उत्पाद षुल्क, अतिरिक्त उत्पाद षुल्क एवं सीमा कर तथा सेवा कर हैं वहीं राज्य में वैट, बिक्री कर, मनोरंजन कर, चुंगी कर, प्रवेष षुल्क तथा सट्टे बाजी पर कर समेत इसकी संख्या आधा दर्जन से अधिक थी। जीएसटी को लागू हुए छः महीने से अधिक वक्त बीत चुका है। बावजूद इसके दर्जनों संषोधन के साथ अभी भी इसे लेकर संषय बरकरार है। प्रतिमाह की दर से जब कर जमा करने की प्रथा अगस्त में षुरू हुई तो जुलाई माह की जीएसटी की राषि खजाने में 95 हजार करोड़ थी। अगस्त माह में यह राषि 91 हजार करोड़ के आसपास रही। लगातार गिरावट के साथ दिसम्बर में यह 80 हजार करोड़ पर सिमट गयी। हालांकि बीते 10 नवम्बर को जीएसटी काउंसिल ने गोवा में हुए बैठक के दौरान 28 फीसदी वाले कर में कुछ संषोधन किया था और डेढ़ करोड़ की राषि तक वालों के लिए रिटर्न त्रिमासिक कर दिया था। मुद्दा यह है कि देष में बड़े आर्थिक परिवर्तन की आवष्यकता क्यों पड़ती है। लाख टके का सवाल यह भी है कि इन आर्थिक परिवर्तनों के चलते चुनौतियों से निपटने में क्या मन माफिक मदद मिली है। उदारीकरण के बाद गरीबी की स्थिति को देखते हुए कह सकते हैं कि सामाजिक-आर्थिक असंतुलन पूरी तरह व्याप्त है। ऐसे में दूसरा सवाल यह है कि क्या जीएसटी के चलते इस असंतुलन से राहत मिलेगी। रोटी, कपड़ा और मकान की जद्दोजहद में अभी भी देष का हर चैथा व्यक्ति फंसा है और तमाम कोषिषों के बावजूद भूख से मौत रूक नहीं रही है। साथ ही हर चैथा नागरिक अषिक्षित है जबकि 65 फीसदी युवा जिसकी संख्या 75 करोड़ से अधिक है बेरोजगारी की कतार में खड़ा है जो समावेषी विकास के उलट है। यदि आर्थिक परिवर्तन समावेषी विकास के परिचायक हैं तो उदारीकरण के बाद समस्याएं अब तक समाप्त हो जानी चाहिए थी। बुनियादी समस्याओं का इस कदर फलक पर होना इस बात का संकेत है कि आर्थिक परिवर्तन मसलन उदारीकरण या जीएसटी जैसे परिप्रेक्ष्य और इससे पनपी नीतियां खामी की षिकार हो जाती हैं जो अमीरों को और अमीर बना देती हैं, षायद गरीबों को और गरीब। यह सिलसिला तभी थमेगा जब स्मार्ट सिटी के समानांतर स्मार्ट गांव होंगे। उद्योग के समकक्ष कृशि की हैसियत होगी और नकद वेतन लेने वाले सेवा क्षेत्र के लोगों के बराबर पूस की रात में हाड़-मांस गलाने वाली सर्दी में गेहूं के खेतों की सिंचाई करने वाले किसानों के मूल्य को समझा जायेगा। यदि इन सबका परिप्रेक्ष्य अभी भी यथावत बना रहता है तो जीएसटी से बेषक देष का विकास होगा और संचित निधि में इस अप्रत्यक्ष कर के चलते धन बढ़ेगा पर समावेषी विकास के अधूरे सपनों को पंख लगेंगे इस पर संदेह गहरायी के साथ बना रहेगा। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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