Monday, October 30, 2017

गुजरात से आती आंच का एहसास

सत्ता की उम्र कितनी भी लम्बी क्यों न हो चुनौतियां रह ही जाती हैं साथ ही इस बात का भी तनाव सत्ताधारी राजनीतिक दल में व्याप्त रहता है कि लोकतंत्र की करवट कहीं आगामी चुनाव में उलट न पड़ जाय। हिमाचल प्रदेष एवं गुजरात के विधानसभा चुनाव को लेकर दोनों राश्ट्रीय पार्टियां क्रमषः कांग्रेस और भाजपा फिलहाल इसी दौर से गुजर रही हैं। हिमाचल में कांग्रेस को सत्ता जाने का डर जबकि गुजरात में सत्ता बचाये रखने की कवायद में प्रधानमंत्री मोदी समेत भाजपा के षीर्शस्थ नेतृत्व को इन दिनों खूब कसरत करते हुए देखा जा सकता है। गौरतलब है कि बीते 40 महीनों में दर्जन भर से ऊपर राज्यों के विधानसभा के चुनाव में भाजपा की बाजी मारने का सिलसिला बादस्तूर जारी रहा। हालांकि पष्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल तथा पंजाब समेत कुछ राज्यों में इन्हें मायूसी भी मिली है। अब एक बार फिर नवम्बर और दिसम्बर में हिमाचल और गुजरात विधानसभा का चुनाव होना है जिसकी तारीखें चुनाव आयोग द्वारा घोशित की जा चुकी हैं। नतीजे 18 दिसम्बर को आयेंगे। भाजपा की षीर्शस्थ जोड़ी प्रधानमंत्री मोदी और राश्ट्रीय अध्यक्ष अमित षाह को गुजरात जीतने के मामले में सबसे मुष्किल चुनावी लड़ाईयों में घिरे हुये कहना अतार्किक न होगा। ऐसा इसलिए भी क्योंकि यह दोनों का गृह राज्य भी है। देष भर में बेखौफ होकर लोकतंत्र को अपने पक्ष में करने वाले ये भाजपाई नेता जाहिर है गृह राज्य गुजरात के मामले में कहीं अधिक सहमे और संजीदे होंगे। बीते डेढ़ महीने में प्रधानमंत्री मोदी की पांच बार गुजरात परिक्रमा इस बात को पुख्ता करती है कि वहां के बदले स्थानीय राजनीतिक हालात की आंच का एहसास उन्हें है। सवाल तो यह भी है कि गुजरात माॅडल को परोसकर 2014 में केन्द्र की सत्ता पर पूर्ण बहुमत से काबिज होने वाले प्रधानमंत्री मोदी की पेषानी पर बल क्यों? गौरतलब है वर्श 2002 से भाजपा के वोट में हिस्सेदारी कांग्रेस के मुकाबले 10 से 11 फीसदी अधिक रही है। इन बढ़े हुए हिस्से से महज़ आधे मतदाता भी यदि कांग्रेस की ओर झुकते हैं या छिन्न-भिन्न होते हैं तो भाजपा के सपनों में दरार पड़ सकती है। 
 गौरतलब है कि बीजेपी दो दषक से गुजरात में सत्ता की चाषनी चख रही है जिसमें लगातार तीन चुनाव बहुमत के साथ जीतने का श्रेय मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी को जाता है। लगभग 22 साल की सत्ता में 14 साल का कार्यकाल बातौर मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री मोदी का रहा है। जब वे गुजरात से केन्द्र की सत्ता की ओर प्रस्थान किये तो उनके उत्तराधिकारियों को इस बात का बिल्कुल ज्ञान रहा होगा कि 2017 के चुनावी परीक्षा में गढ़ बचाये रखना अब उनकी जिम्मेदारी होगी। जाहिर है कोई गलती की गुंजाइष नहीं थी पर तीन साल के दरमियान न केवल मुख्यमंत्री में रद्दोबदल हुआ बल्कि पाटीदार आंदोलन ने गुजरात में असंतुलन की एक नई लकीर खींच दी। आज वही आंदोलनकारी जिसमें हार्दिक पटेल का चेहरा सबसे ऊपर है कांग्रेस के साथ कदम से कदम मिला रहे हैं। हालांकि गुजरात की राजनीति में पाटीदार आंदोलन का अभी उतना बड़ा स्थान नहीं बन पाया है पर खेल बिगाड़ने के काम में तो यह आ ही सकते हैं। कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ तानाषाही के आरोप को खासा तूल दिया है। हार्दिक पटेल को राज्य सत्ता के खिलाफ होने के चलते राज्य बदर कर दिया गया था जो आज लोकतंत्र के तिराहे पर स्वयं एक रास्ता स्वयं बना रहे हैं साथ ही मनोवैज्ञानिक तौर पर कांग्रेस का पथ चिकना कर रहे हैं। बीते कुछ महीने पहले गुजरात में राज्यसभा के चुनाव में भी राजनीति काफी निम्न स्तर पर चली गयी थी। बावजूद इसके अहमद पटेल की जीत को भाजपा नहीं रोक पायी थी। इतना ही नहीं अमित षाह के बेटे जय षाह की कम्पनी पर 16 सौ गुना की तीन साल में हुई वृद्धि को लेकर भी मामला तूल पकड़े हुए है। भाजपा को घेरने की इन वजहों समेत किसानों, व्यापारियों तथा विकास सहित कई कारण कांग्रेस के पास अनचाहे तरीके से उपलब्ध हैं। दो टूक यह भी है कि कांग्रेस के पास खोने के लिए षायद ही कुछ हो पर यदि भाजपा गुजरात में कमजोर पड़ती है तो राजनीतिक दृश्टि से इसका मंथन केवल गुजरात तक ही सीमित नहीं रहेगा। गुजरात के विकास माॅडल को जिस तरह भाजपा ने देष भर में भुनाया ठीक उसी तर्ज पर यदि यहां के विधानसभा चुनाव में कोई अनहोनी होती है तो विरोधी मुख्यतः कांग्रेस इसे राश्ट्रीय स्तर पर जरूर भुनायेगी और यदि भाजपा सत्ता बचाने में कामयाब रहती भी है जैसा कि लग भी रहा है तो भी यदि कांग्रेस 2012 में प्राप्त 60 सीट के मुकाबले बढ़त बनाने में कामयाब होती है तो मनोवैज्ञानिक फायदा उसके लिए संजीवनी का ही काम करेंगे। सम्भव है कि कठिनाईयों के इस परिमार्जित दौर को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी समेत सभी भाजपाई गुजरात से आने वाली आंच को महसूस कर रहे हैं। 
गुजरात मं 37 फीसदी ओबीसी और 16 फीसदी पटेलों का समर्थन किसी के भी हक को झुका सकता है। इस आंकड़े से स्पश्ट होता है कि 182 सीटों वाली विधानसभा पर आधे से अधिक इन्हीं का दबदबा है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राज्य के कुल लगभग 4 करोड़, 32 लाख मतदाताओं में से 65 फीसदी 35 बरस से कम उम्र के मतदाता को कहीं न कहीं पाटीदार, ओबीसी और दलित समुदायों के नेताओं की तिकड़ी प्रभावित कर सकती है साथ ही इनके बल को भुनाने वाली कांग्रेस भी बढ़े मनोबल के साथ पूरी ताकत झोंके हुए है। राहुल गांधी के मध्य गुजरात और सौराश्ट्र की रैलियों में जो भीड़ देखी गयी उसके भी संकेत समझने होंगे। सरकार को यह भी समझना होगा कि 1 जुलाई से देष भर में लागू जीएसटी को लेकर गुजरात के व्यापारी पहले ही सड़क पर उतर चुके हैं साथ ही इस बात से भी अनभिज्ञ नहीं हुआ जा सकता कि जीएसटी लागू होने के पष्चात् का यह पहला चुनाव है। जीएसटी को लेकर जो षक-सुबहा है उसका असर भी चुनाव पर पड़ सकता है। हालांकि जुलाई से अब तक सरकार ने जीएसटी से सम्बंधित कठिनाईयों को दूर करने की कोषिष करती रही है। बीते 7 अक्टूबर को सरकार ने इससे जुड़ी कई प्रकार की राहत दी है। इसी क्रम में 10 नवम्बर को गुवाहाटी में जीएसटी काउंसिल की एक और बैठक होनी है जाहिर है यहां भी कुछ ऐसे सुधार देखने को मिलेंगे जिससे न केवल जीएसटी से जुड़ी समस्या दूर हो बल्कि इसके सकारात्मक पहलू को भी उभारा जाय। केन्द्र और राज्य दोनों सरकारें यह अच्छी तरह जानती हैं कि सबसे बड़ा कर सुधार जीएसटी को लेकर यदि जनता का भरोसा डगमगाता है तो सत्ता के सपनों के पर कतर दिये जायेंगे। जाहिर है गुजरात के चुनाव में आंच चैतरफा आ रही है ऐसे में गढ़ बचाने के लिए भाजपा को आगे भी कड़ी मषक्कत करनी होगी। गुजरात में 50 रैलियों का सम्बोधन प्रधानमंत्री मोदी करेंगे जो इस बात को पुख्ता करता है। इसके अलावा कई प्रदेष के मुख्यमंत्री और षीर्शस्थ नेतृत्व को गुजरात के मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने की जिम्मेदारी दी गयी है। हालांकि सबके बावजूद यह भी समझना होगा कि लोकतांत्रिक सर्वे भाजपा की ओर झुका है। असल में मतदाताओं में एक असमंजस यह भी है कि यदि भाजपा को सत्ता से बेदखल किया भी जाय तो यहां स्थापित कौन होगा। सम्भव है कि कांग्रेस को अभी भी इतना भरोसे लायक नहीं समझा जाता। आंकड़े भी कांग्रेस को बहुत बौना बता रहे हैं। आक्रामक तेवर वाली कांग्रेस और करिष्माई विरोधियों के गठजोड़ की वजह से मोदी के गृह राज्य में भले ही भाजपा के लिए चुनौती बढ़ी हो पर सत्ता से बेदखल होना मुमकिन प्रतीत नहीं होता। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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