चीन के चुनावी नतीजे एक बार फिर षी जिनपिंग की ताजपोषी तय कर दी। देखा जाय तो चीन के राश्ट्रपति जिनपिंग न केवल दोबारा सत्ता हथियाने में कामयाब रहे बल्कि सर्वाधिक ताकतवर नेता भी बनकर उभरे हैं। चीन ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए मौजूदा राश्ट्रपति जिनपिंग को अगले पांच साल के लिए न केवल बागडोर सौंपी बल्कि उनसे जुड़ी विचारधारा को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान का हिस्सा बना दिया। बात यहीं तक नहीं है राश्ट्रपति जिनपिंग के नाम और उनके राजनीतिक दर्षन को देष के संविधान का भी हिस्सा बनाये जाने की घोशणा सीपीसी यानी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने की है। इसके पहले राश्ट्रपति तेंग षियाओपिंग का नाम 1997 में उनके निधन के बाद संविधान में षामिल किया गया था। फिलहाल उक्त के चलते यह तय हो गया है कि षी जिनपिंग चीन के प्रथम कम्युनिस्ट नेता और संस्थापक माओत्से तुंग के कद के समकक्ष हो गये हैं। दो टूक यह भी है कि चीन के बुनियादी सिद्धान्तों से लेकर आम नागरिक की गतिविधियों को समझने में जिनपिंग ने फिलहाल कोई गलती नहीं की है। गौरतलब है कि चीन को 2050 तक ग्लोबल लीडर के रूप में सामने आना है जैसा कि जिनपिंग कह चुके हैं। सम्भव है ये उसी सपने की कताई-बुनाई की दिषा में उठाया गया बड़ा कदम हो। पांच साल पर होने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मेलन में उपरोक्त संदर्भ को देखा जा सकता है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को देखें तो चीनी साम्यवादी दल जिसे संक्षेप में सीपीसी की संज्ञा दी जाती है 1921 में स्थापित हुई। हालांकि साम्यवादी आंदोलन की षुरूआत बंद कमरों में वार्ता, वाद-विवाद व परिचर्चा आदि के रूप में हुई पर समय के साथ लोग जुड़ते गये और कारवां बनता गया। माओत्सु तुंग, जिहूद और चाऊ एन लाई समेत चिंग यी जैसे तमाम नेताओं ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लगभग सौ वर्श के सीपीसी के इतिहास में माओ के बाद सर्वाधिक ताकतवर नेता बनने का अवसर षी जिनपिंग के हिस्से आया। वैष्विक फलक पर जिनपिंग की इस ताकत के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। एक वास्तविकता यह भी है कि पूंजीवादी विचारधारा की तुलना में साम्यवादी विचारधारा से युक्त चीन दुनिया मंे स्वयं को सर्वाधिक षक्तिषाली दिखाने की फिराख में भी है। जिनपिंग की बढ़ी हुई ताकत चीन के लिए कितनी कामयाब होगी ये तो आने वाले दिनों में पता चलेगा पर दुनिया को यह पता चल गया कि जिनपिंग की विचारधारा और उनके क्रियाकलाप चीन में कितनी एहमियत रखते हैं।
बेषक मौजूदा चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग बड़े कद के हो गये हों पर भारत जैसे देषों के साथ कद के मुताबिक कृत्य कर पाने में सफल नहीं करार दिये जा सकते। गौरतलब है कि बीते पांच वर्शों में जिनपिंग के कार्यकाल में सीमा विवाद से जुड़ा कोई भी मसला हल करने के बजाय न केवल बढ़ा है बल्कि कई अनचाही समस्याएं उभरी भी हैं। डोकलाम विवाद का षान्तिपूर्वक हल एक अपवाद हो सकता है परन्तु चीन की कुटिल चाल को देखते हुए अभी इसे पूरा हल मानना जल्दबाजी होगी। जिनपिंग ने अपने पूरे कार्यकाल में पाकिस्तान का समर्थन और भारत के विरोध में नीतियों को आबद्धरूप से जारी रखा। संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् में पाक आतंकियों अज़हर मसूद और लखवी पर वीटो कर भारत के इरादों पर कई बार पानी फेरा जो भारत में आतंकी हमले के जिम्मेदार हैं। पाक अधिकृत कष्मीर में वन बेल्ट, वन रोड़ की अवधारणा भी जिनपिंग की ही है जो भारत की चाहत के विरूद्ध है। आॅस्ट्रेलिया से नवम्बर 2014 में जी-20 सम्मेलन के दौरान यूरेनियम प्राप्ति को लेकर भारत का समझौता भी चीन को अखरा था। इसके अलावा दक्षिणी चीन सागर में पनपे विवाद से लेकर उत्तर कोरिया की मनमानी में काफी हद तक चीन षामिल रहा है। दुनिया की सत्ता को चुनौती देना चीन की मानो आदत हो। मोदी का इज़राइल दौरा भी जिनपिंग को नहीं भाया था साथ ही जापान से भारत की गहरी दोस्ती भी षी जिनपिंग को अखर रहा है। दुनिया में भारत की बढ़ती ताकत से चीन हमेषा असंतुश्ट रहा है और इस परम्परा का निर्वहन जिनपिंग ने भी किया है। चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग और भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के बीच बीते 40 महीनों में आधा दर्जन से अधिक बार मुलाकात हो चुकी है पर कूटनीतिक तौर पर हाथ खाली हैं। हां यह बात और है कि 70 अरब डाॅलर के आपसी व्यापार को सौ अरब डाॅलर तक पहुंचाने का मंसूबा दोनों राजनेता रखते हैं परन्तु 70 अरब डाॅलर के साझे व्यापार में 61 अरब डाॅलर के एकतरफा व्यापार पर चीन ही काबिज है। जिनपिंग का भारत दौरा हो चुका है, प्रधानमंत्री मोदी भी चीन का दौरा कई बार कर चुके हैं। बावजूद इसके दोनों देषों के बीच बेहतर मित्रता के वातावरण इस बीच षायद ही बने हों। ध्यान्तव्य हो कि जून में पनपे डोकलाम समस्या पर चीन ने भारत को कई तरह से दबाव में लेने की कोषिष की। आसार युद्ध तक के भी बन गये थे पर भारत संयम का परिचय देते हुए चीन को यह समझाने में सफल रहा कि उसे कम न आंके। गौरतलब है कि बीते 3 सितम्बर को ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री मोदी चीन गये थे और डोकलाम को लेकर उपजी समस्या से ठीक इसके पहले ही निजात मिली थी।
चीन में सर्वाधिक ताकतवर बने नेता षी जिनपिंग का राजनीतिक इतिहास चार दषक पुराना है। 64 वर्श की उम्र पार कर चुके जिनपिंग वर्श 1974 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में षामिल हुए थे। लम्बे समय की सियासत के बाद 2008 से 2013 तक चीन के उपराश्ट्रपति रहे। 2012 के आखिरी दिनों में पार्टी नेतृत्व संभालने के बाद जिनपिंग अपनी स्थिति को काफी हद तक मजबूती की ओर ले जाने में कामयाब रहे। वर्श 2013 में चीन के सातवें राश्ट्रपति बनने से पहले एक मजबूत नेता के तौर पर अपनी छवि उभारने वाले षी जिनपिंग दूसरी बार सत्ता पर काबिज हो रहे हैं। गौरतलब है वर्श 2016 में सीपीसी ने जिनपिंग की हैसियत को और ताकत देते हुए उन्हें प्रमुख नेता की उपाधि भी दी थी जो इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि उनको कम्युनिस्ट किस हद तक स्थापित होते देखना चाहते हैं। फिलहाल मौजूदा समय में चीन के सबसे षक्तिषाली नेता के रूप में जिनपिंग की तूती बोल रही है। जाहिर है जो पार्टी, षासन और सेना तीनों का नेतृत्व कर रहा हो उसकी स्थिति का अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। सम्भावना तो यह भी व्यक्त की जा रही है कि अब 2022 तक चीन की सत्ता संभालने वाले जिनपिंग दो कार्यकाल के बाद रिटायर्ड होने की परम्परा को तोड़ते हुए तीसरे कार्यकाल पर भी विचार कर सकते हैं।
चीनी राश्ट्रपति की बढ़ी हुई ताकत का आन्तरिक और बाह्य दोनों दृश्टि से क्या असर हो सकता है इसकी भी पड़ताल जरूरी है। सम्भव है कि चीन के अंदर सत्ता के प्रति लोगों का दृश्टिकोण तुलनात्मक अधिक सकारात्मक हो साथ ही ताकत और विष्वास से भरे दूसरी पारी खेलने वाले जिनपिंग निजी एजेण्डों पर काम करें। जहां तक बाह्य दृश्टिकोण का सवाल है जाहिर है आगे के पांच साल तक भारत को जिनपिंग के साथ ही कदमताल करना होगा। चीन की चतुराई और भारत के प्रति उसकी अब तक का धौंस वाला नज़रिया आगे बदलेगा इसकी सम्भावना कम ही दिखाई देती है। उत्तर कोरिया को मात्रात्मक ताकत मिलती रहेगी। इसके अलावा भारत को प्रभावित करने वाली नीतियों पर चीन की नज़र रहेगी। अमेरिका के समानांतर प्रभुत्व रखने की इच्छा रखने वाला चीन स्वयं को एक ध्रुव के रूप में जरूर विकसित करना चाहेगा। 2050 तक ग्लोबल लीडर बनने वाली सोच इस बात को पुख्ता करती है। वैष्विक फलक पर एकाधिकार बढ़ाना चीन की नीयत में है। फिलहाल चीन के पड़ोसी देष चीन की नीतियों से कभी संतुश्ट नहीं रहे हैं। ऐसे में षी जिनपिंग की बढ़ी ताकत और दोबारा हुई ताज़पोषी से चीन की सूरत बदलेगी षायद दुनिया की नहीं।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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