Monday, May 22, 2017

एनएसजी की राह में रोड़ा चीन

आगामी जून महीने में स्विट्जरलैण्ड की राजधानी बर्न में परमाणु आपूर्ति समूह यानि एनएसजी की बैठक होनी है जिसमें यह उम्मीद की जा रही है कि भारत की इस समूह में सदस्यता को लेकर एक बार फिर विचार किया जायेगा लेकिन चीन का विरोध बरकरार रहने से मामला एक बार फिर खटाई में पड़ सकता है। बीजिंग भारत को इसकी सदस्यता न मिल पाये इसके लिए पहले से ही कई बहाने बनाता रहा है। चीन का यह राग अलापना कि एनएसजी नियमों के मुताबिक सदस्यता उन्हीं देषों को दी जानी चाहिए जिन्होंने परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर किये हैं। इतना ही नहीं उसका यह भी मानना है कि भारत के साथ अन्य देषों को भी छूट दी जाय जबकि सच्चाई यह है कि भारत के परमाणु कार्यक्रमों को देखा जाय तो अन्य देषों से ये कहीं अधिक सभ्य और सौम्य रहा है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे तमाम देष भारत के परमाणु कार्यक्रम रिकाॅर्ड को देखते हुए छूट देने के पक्षधर हैं परन्तु क्या यही बात पाकिस्तान के लिए कही जा सकती है जाहिर है चीन पाकिस्तान परस्त है, उसका पक्ष ले सकता है जबकि उत्तर कोरिया और ईरान को चोरी-छिपे परमाणु सामग्री देने के चलते पाकिस्तान का ट्रैक रिकाॅर्ड निहायत खराब है और इसे जानते हुए भी चीन अनभिज्ञ बना रहता है। पुराने अनुभवों के आधार पर यह भी आंकलन है कि भारत को दुनिया के चुनिंदा समूहों से बाहर रखने की कोषिष होती थी कमोबेष वह क्रम आज भी जारी है। अब फर्क यह है कि पहले पष्चिमी देष इस मामले में अव्वल थे अब पड़ोसी चीन नम्बर वन बना हुआ है। इसका मूल कारण एक यह भी है कि भारत की बढ़ती वैष्विक साख से चीन भयभीत और चिंतित है क्योंकि एषियाई देषों में उसकी एकाधिकार को भारत कहीं न कहीं चुनौती दे रहा है। 
जब वर्श 1974 में पोखरण परीक्षण हुआ तब इसी वर्श परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह से भारत को बाहर रखने के लिए एक समूह बनाया गया जिसमें अमेरिका, रूस, फ्रांस, पष्चिमी जर्मनी और जापान समेत सात देष थे जिनकी संख्या अब 48 हो गयी है। इतना ही नहीं वर्श 1981-82 के दिनों में भारत के समेकित मिसाइल कार्यक्रमों के तहत नाग, पृथ्वी, अग्नि जैसे मिसाइल कार्यक्रम का जब प्रकटीकरण हुआ और इस क्षेत्र में भरपूर सफलता मिलने लगी तब भी पाबंदी लगाने का पूरा इंतजाम किया जाने लगा। गौरतलब है कि 1997 में मिसाइल द्वारा रासायनिक, जैविक, नाभिकीय हथियारों के प्रसार पर नियंत्रण के उद्देष्य से सात देषों ने एमटीसीआर का गठन किया हालांकि जून, 2016 से भारत अब इसका 35वां सदस्य बना जबकि चीन अभी भी इससे बाहर है। जाहिर है पहले दुनिया के तमाम देष नियम बनाते थे और उसका भारत अनुसरण करता था परन्तु यह बदलते दौर की बानगी ही कही जायेगी कि दुनिया के तमाम देष अब भारत को भी साथ लेना चाहते हैं। हालांकि एनएसजी के मामले में अभी बात नहीं बन पाई है। गौरतलब है कि एनएसजी में भारत की सदस्यता के लिए अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति ओबामा एड़ी-चोटी का जोर लगा चुके हैं। चीन को छोड़ सभी एनएसजी में षामिल देष भारत को इसमें चाहते हैं। इतना ही नहीं एक वर्श पहले एमटीसीआर यानि मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था में भारत अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर नियमों का अनुसरणकत्र्ता ही नहीं नियमों का निर्माता भी बन गया था। साथ ही एमटीसीआर के क्लब में जाने से चीन जैसे देषों को भी हाषिये पर भी धकेलने में सफल रहा। जाहिर है पिछले 13 वर्शों से चीन एमटीसीआर में षामिल होने के लिए प्रयासरत् है परन्तु सफलता से अभी वो कोसो दूर है। एनएसजी के मामले में अडंगा लगाने वाला चीन भले ही अपनी पीठ थपथपा ले परन्तु एमटीसीआर में भारत की एंट्री के चलते यहां उसकी भी राह आसान नहीं है। बदले दौर के परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत कहीं आगे है, उभरती अर्थव्यवस्था वाले देषों में षुमार है, वैष्विक कूटनीति में भी अव्वल है। मात्र एनएसजी में न होने से क्षमता बहुत कम नहीं हो जाती पर इसके लाभ से वंचित रहने पर भविश्य में दिक्कतें आयेंगी। 
स्विट्जरलैण्ड में एनएसजी को लेकर जो भी नतीजे होंगे उससे भारत की कूटनीति पर अलग तरीके का असर पड़ेगा। पिछले वर्श प्रधानमंत्री मोदी की वैदेषिक नीति की आलोचना इस बात के लिए भी हुई थी कि एनएसजी के मामले में उनकी कूटनीति विफल हो गयी। गौरतलब है कि मई, 2016 में भारत एनएसजी के मामले में पीछे रह गया था। उसके तीन दिन बाद ही एमटीसीआर में एंट्री मिलने से कूटनीतिक फलक पर भारत फिर चमक उठा था। फिलहाल विविधता और विस्तार से भरी दुनिया में ऐसे बहुत से दौर आते जाते रहेंगे। एनएसजी की सदस्यता मिलना इस लिहाज़ से बड़ा है कि भारत परमाणु ऊर्जा के लिए कच्चा माल और तकनीक आसानी से प्राप्त कर सकेगा। ध्यानतव्य हो कि वर्श 2014 जी-20 सम्मेलन के दौरान जब प्रधानमंत्री मोदी आॅस्ट्रेलिया में थे तभी यूरेनियम को लेकर एक बड़ा समझौता हुआ था। उस समय भी चीन की भंवे तनी थी। गौरतलब है कि द्वितीय पोखरण परीक्षण के बाद से आॅस्ट्रेलिया से सम्बंध इस मामले में पटरी पर नहीं आ रहे थे। मनमोहन काल में मामला काफी हद तक पटरी पर आ चुका था और मोदी काल में यूरेनियम समझौते की रेलगाड़ी उस पटरी पर दौड़ लगा दी। दो टूक यह भी है कि बीते तीन वर्शों से आॅस्ट्रेलिया से सम्बंध अच्छे हैं और दुनिया का 40 फीसदी यूरेनियम आॅस्ट्रेलिया के पास है। अपने परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को देखते हुए भारत मंगोलिया की ओर भी रूख किया था तब भी चीन ने नजरे तिरछी की थी। यह दौड़ कनाडा तक जारी रही। सभी जानते हैं कि भारत सवा अरब का देष है यहां दो लाख से अधिक मेगावाॅट बिजली की जरूरत पड़ती है जबकि एनटीपीसी, एनएचपीसी, सौर ऊर्जा समेत ऊर्जा के सभी आयामों से इतनी ऊर्जा नहीं मिल पाती ऐसे में परमाणु ऊर्जा की ओर रूख करना देष की मजबूरी भी है जिसके लिए ईंधन और तकनीक चाहिए और इसकी प्राप्ति के लिए एनएसजी की सदस्यता कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। 
यह भी कहा जाता रहा है कि भारत ने एनपीटी और सीटीबीटी पर बिना हस्ताक्षर के यह सुविधा चाहता है। दुनिया जानती है कि भले ही भारत परमाणु हथियार से सम्पन्न हो और परमाणु अप्रसार संधियों पर हस्ताक्षर न किये हों तब भी चीन को छोड़ सभी एनएसजी में उसकी एंट्री चाहते हैं यह उसकी परमाणु नीति को लेकर षान्तिप्रियता का ही नतीजा है जबकि पाकिस्तान इसी सम्पन्नता का बेजा प्रयोग कर सकता है। यहां तक कि आतंक को षरण देने वाला पाकिस्तान के परमाणु हथियार कब आतंकियों के हाथ लग जाये इसका भी संदेह बना रहता है साथ ही पाकिस्तान स्वयं अन्यों को इससे अवगत कराता रहता है। साफ है कि भारत और पाकिस्तान में कोई मेल नहीं है। भारत षान्ति का दूत है और उसकी नीयति में केवल विकास है। न्यूक्लियर सप्लायर्स समूह में होने से इस दिषा में उसका कदम तुलनात्मक बेहतर हो जायेगा परन्तु दुनिया के किसी कोने पर कोई बल नहीं पड़ेगा। निःसंदेह एनएसजी में सदस्यता को लेकर भारत को चिंता है पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसके बगैर गुजारा नहीं है। चीन जिन इरादों के साथ भारत की राह में रोड़ा बनता है इससे भी दुनिया के देष अनभिज्ञ नहीं हैं। पंचषील समझौते को तार-तार करने वाले चीन को तनिक मात्र भी यह समझ नहीं है कि भारत अपनी सम्प्रभुता और अखण्डता को लेकर कहीं अधिक प्राथमिकता और दूसरों के प्रति भी यही राय रखता है। चीन सीमा विवाद से लेकर अन्तर्राश्ट्रीय संगठनों की सदस्यता से जुड़े कई समस्याओं का निर्माता है। गाढ़ी दृश्टि डाली जाय तो स्विट्जरलैण्ड में होने वाली बैठक में एनएसजी की सदस्तया अभी भारत के लिए दूर की कौड़ी हो सकती है फिलहाल यदि चीन एनएसजी की राह में रोड़ा बनता है तो उसकी असलियत एक बार फिर दुनिया के सामने उजागर होगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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